फिल्म उद्योग में बढ़ता दक्षिण का दबदबा
लेखक : लोकपाल सेठी

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श्रेष्ठ फिल्मो का सबसे बड़ा पुरस्कार कहा जाने वाला ऑस्कर अवार्ड का सिलसिला 95 वर्ष पूर्व हुआ था। लगभग एक सौ साल की अवधि में कभी भी किसी  सम्पूर्ण भारतीय फिल्म को किसी भी श्रेणी में कोई पुरस्कार नहीं मिला। हाँ कुछ भारतीयों को यह पुरस्कार मिला वह विदेशी फिल्मों में काम करने के लिए मिला। मसलन किसी फिल्म में मौलिक संगीत के लिए एआर रहमान को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया। यह फिल्म थी स्लम डॉग मिलिनियर, जो भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी इंग्लिश की एक विदेशी फिल्म थी। इसी प्रकार का एक आध पुरस्कार किसी अन्य भारतीय को मिला और वो भी विदेशी फिल्म के लिए  मिला। दो भारतीय फिल्मों मदर इंडिया और लगान को नॉमिनेशन जरूर मिला लेकिन कोई भी पुरस्कार पाने में असफल रही। पिछले हफ्ते ऐसा मौका आया जब भारत की एक नहीं दो बल्कि फिल्मों को अलग-अलग श्रेणियों में यह पुरस्कार मिला। फिल्म आरआरआर के गान नाटू नाटू को मौलिक संगीत का पुरस्कार मिला। 

सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म का पुरस्कार द एलिफेंट व्हिस्पर को मिला। ये दोनों फ़िल्में पूर्णरूप से भारतीय थी। यानि इसका निर्माण भारतीय कलाकारों ने भारतीय पटकथा पर भारत में ही इनका निर्माण किया गया। दोनों ही फ़िल्में दक्षिण में बनी। इन पुरस्कारों से भारतीयों का गदगद होना स्वाभविक था। इसको लेकर दक्षिण के फिल्म निर्माता और और कलाकार विशेष रूप से प्रसन्न हुए। उनका कहना है की देश में मुंबई को भारतीय फिल्मो की राजधानी  कहा जाता है। लेकिन वहां बनी भारत की किसी फिल्म को यह पुरस्कार कभी नहीं मिला। इसलिए दक्षिण के फिल्म निर्मातायों और कलाकारों का अधिक प्रसन्न होना स्वाभविक ही है। वास्तव में पिछले कुछ सालों से दक्षिण की फिल्मों का दबदबा बढ़ रहा है।   

अगर भारत में फिल्म निर्माण का मूल्याकन किया जाये तो पिछले लगभग एक दशक दक्षिण का फिल्म उद्योग मुंबई के फिल्म उद्योग से कही आगे निकल गया है। वहा एक से बढ़ कर एक अभिनेता सामने आ रहा है। दक्षिण के फिल्म की पटकथाएं मौलिक होती था तथा फिल्म बनाने की तकनीक भी दक्षिण फ़िल्में मुंबई से कही आगे निकल गई है। 

एक समय था जब दक्षिण के पांच राज्यों- तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना  और आंध्र प्रदेश में बनने वाली अधिकांश फ़िल्में स्थानीय भाषाओं यानि तमिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम में ही बनती थी तथा इनका बाज़ार मोटे तौर पर स्थानीय ही था। दक्षिण बनने वाली इन फिल्मों का आमतौर पर निर्माण तमिलनाडु की राजधानी में ही होता था। 

यहाँ फिल्म निर्माण के लिए अच्छे  स्टूडियो के अलावा अन्य सभी प्रकार के सुविधाएँ थी। बाद में यहाँ के फिल्म उद्योग का कुछ हिस्सा अविभाजित आंध्र प्रदेश में चला गया क्योंकि वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री एनटी रामाराव, जो राजनीति में आने से पूर्व तेलगु फिल्मों के सबसे बड़े अभिनेता था, ने यहाँ फिल्म निर्माण सुविधायों में इजाफा किया। उस काल में फिल्म सिटी का विकास हुआ जहाँ फिल्म निर्माण की हरसुविधा उपलब्ध थी। केरल की फ़िल्में कहानी और अभिनय के नजरिये से उच्च कोटी की होती थी वहीं दक्षिण के अन्य राज्यों में दर्शकों के भाई जानी वाली  फ़िल्में बनती थी। 

लेकिन एक दशक पूर्व  दक्षिण में फिल्म निर्माण में एक बड़ा बदलवा आया और यह बदलाव तेलेगु फिल्मों से आया। कुछ समय पूर्व यहाँ बनी फिल्मे बाहुबली  ने बॉक्स ऑफिस के सब रिकॉर्ड तोड़ दिये। यह फिल्म हिंदी को मिलाकर चार भाषायों में बनी थी। तकनीक तथा अन्य सभी नजरियों से यह एक विश्वस्तरीय   फिल्म थी। इसकी पटकथा प्रसिद्ध लेखक विजेयेंद्र प्रसाद ने लिखी थी तथा इसके निर्देशक एस एस राजामौली थे। इस फिल्म ने हिंदी भाषी इलाकों में  अच्छा खासा बिज़नस किया। 

इस सफलता के कुछ समय बड़े राजामौली इसी फिल्म का दूसरा भाग बनाया और वह भी बॉक्स ऑफिस पर उतना ही अधिक सफल  रहा। उनकी तीसरी फिल्म आरआरआर ने तो पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिये। तभी कहा जाने लगा था कि अगर भारत सरकार अधिकारिक रूप से इसे ऑस्कर पुरस्कार के लिए भेजे तो इसे निश्चिय ही कई पुरस्कार मिलेंगे। लेकिन जब भारत सरकार ने इसके स्थान पर किसी अन्य फिल्म को भेजने का निर्णय किया तो राजामौली ने निजी आधार पर इसके लिए वहां भेजने का निर्णय किया। 

पिछले कुछ वर्षों से दक्षिण में मुंबई जितनी फिल्मों का निर्माण हो रहा है। लेकिन दक्षिण भारतीय फ़िल्में हिंदी फिल्मों के तुलना से अधिक कमाई कर रही हैं।  पिछले दो तीन सालों में दक्षिण में बनी फिल्मों के जी ऍफ़, पुष्पा और कान्तारा भारी कमाई की वही कई हिंदी फ़िल्में लगातार फ्लॉप होती चली गयीं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)