कुछ जातियो ने राजनीतिक दलों को नये किस्म के तेवर दिखाना शुरू कर दिया

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

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राजनीति और चुनाव में जाति की भूमिका तो राजस्थान में पहले से ही रही है लेकिन इस बार जैसा नजारा देखने में आ रहा है वह प्रदेश के सामाजिक ताने बाने और समरसता के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। जगह-जगह जातियों के बड़े सम्मेलन और पंचायते हो रही है। राजनैतिक दलों ने क्षेत्रों को जातियों के आधार पर बांटकर अपना पूरा दम लगा दिया है। जातीय पंचायतें व सम्मेलन राजनीति पर चर्चा ही नहीं कर रहे, निर्णय कर रहे हैं और एक प्रकार से फतवे जारी किए जा रहे हैं। कुछ जातियो ने नये किस्म के तेवर दिखा राजनीतिक दलों को ही हकियाना और धमकाना शुरू कर दिया है तो किसल दल विशेष से टिकट पाने के लिए नये नेताओं ने अपनी जाति की पंचायतें व सम्मेलनों में मांग उठाई हैं। 

आजादी से पूर्व पिछड़े अगड़ा बनना चाहते थे, आजादी के बाद अगड़े पिछड़े बनना चाहते हैं। कहना न होगा ऐसी घटनायें और कार्यवाहियां राजनीति वातावरण में उत्तेजना और तनाव को ही बढ़ाने का काम कर रही है जिससे जनतंत्र व चुनाव का उद्देश्य गौण होता जायेगा और शांति व्यवस्था और सद्भाव भी कई जगह भंग होगा। जातिगत प्रतिद्वंदिता का खुला खेल शुरू हो जाने से गांव-गांव में तनाव व झगड़े की नौबत बनी रहती है। जातिगत उन्माद का वातावरण पूरे प्रदेश में फैल रहा है। सामाजिक बैनर के तहत हुई सभाओं ने कुछ जातियों को राजनीतिक हक के लिए संगठित कर तैयार किया तो प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ अन्य जातियों ने भी अपनी इस प्रकार की मांगें उठाई जो जनतंत्र के लिए अनुकूल नहीं है। जातिगत वैमनस्य व धड़ेबंदी ही बढ़ रही है।

भाजपा जैसी अपने आपको राष्ट्रीय पार्टी व जातिवाद से दूर बताती है, इस प्रकार के सम्मेलन आयोजित कर रही है। जाति से जुड़े संगठनों की भूमिका क्या राजनीतिक हक की लड़ाई के लिए ही रह गई है? थोड़ा बहुत राजनीतिक विचार की बात ता फिर भी सोची जा सकती है मगद जिन संस्थाओं और पंचायतों की भूमिका अपने समाज में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों को मिटाकर शिक्षा दीक्षा के साथ लोगों को अच्छा नागरिक बनाने की होनी चाहिए वे झगड़े फसाद व राजनीति में फंसेगे तो संगठनों के प्रति आपसी भेदभाव व अविश्वास बढ़ेगा। यदि यह अविश्वास व पृथक्कीकरण अधिक बढ़ा तो नुकसान सम्बन्धित जाति के लोगों को तो होगा ही पूरे समाज की समरसता और प्रगतिशीलता को भी होगा। इसका अन्ततः नुकसान पूरे प्रदेश को भुगतना पड़ेगा। अच्छा तो यह है कि समाज में गैर राजनीतिक नेतृत्व को दृढ़ता दिखाकर ऐसी हरकतों पर लगाम लगाने को आगे लाया जाए।

वर्षो पूर्व मैंने सामाजिक न्याय मंच का गठन किया था परन्तु उसे भी जाति की ओर मौड़ दिया और मंच के कार्यक्रम जिसका उद्देश्य ‘‘आरक्षित को संरक्षण, उपेक्षित को आरक्षण’’ व केवल जाति के बजाय व्यवसाय व आय बगैर जाति का ध्यान किये रखा गया था, जातिवाद को महत्व देने व प्रोत्साहित करने के कारण समाप्त हो गया। अब उसकी कोई आवाज किसी ओर से नहीं है और प्रमुख जातियां जिन्होंने मंच आरम्भ किया था अपनी-अपनी जाति संगठन व हित के लिए जुट गई। जातिवाद ने मंच को समाप्त कर दिया।

यह सर्वविदित है कि जाति के आधार पर हिन्दु-मुस्लिम समाज को खण्ड-खण्ड कर दिया गया। आज धर्म व जांति पांति की राजनीति जोर पकड़ रही है व भारतीय समाज जाति के आधार पर विभाजित है। मण्डलीकरण ने इस जातिवाद को ठोस रूप देने की प्रक्रिया व वर्तमान शासन व्यवस्था ने धर्म के नाम पर विभाजन प्रक्रिया को पूरा कर दिया।

आज सवर्ण-असवर्ण, अगड़ा-पिछड़ा, हिन्दु-मुस्लिम, दलित-गैर दलित, ऊंचा-नीचा, उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, हिन्दीभाषी-अहिन्दीभाषी के बाड़ो में जनता गोलबन्द हो गई। सरकारी नौकरियों में प्रवेश जाति के आधार पर होता है, योग्यता से नहीं। पचास प्रतिशत पद, विधानसभा, लोकसभा, पंचायत, स्वायत्तशाषी संस्थाओं के पद केवल जन्म की जाति के आधार पर आरक्षित होते हैं जबकि संविधान निर्माताओं का लक्ष्य वर्ग विहीन जाति मुक्त समाज का था तदपि वास्तव में उसका उल्टा हो रहा हैं। डा. पिलानिया के अनुसार आजादी से पूर्व पिछड़े सांस्कृतिककरण द्वारा अगड़े बनना चाहते थे, आजादी के बाद अगड़े पिछड़ा बनना चाहते हैं। सब जातियों में होड लगी हैं कि कैसे आरक्षण की गंगा में हाथ धोयें। 

जातियों में घमासान मचा हुआ है जिससे समाज की समरसता दिन व दिन खण्डित हो रही है। मैं और मेरी जाति ही सर्वोपरी हो गई, परिणामतः देश गौण हो गया। आसन्न विधानसभा चुनावों में जातिवाद का बोलबाला होगा। ‘‘रोटी, बेटी, वोट जात का’’ नारा बुलन्द होगा। जातिवाद के भावनात्मक मुद्दे को भुनाने में कोई राजनैतिक पार्टी पीछे नहीं रहेगी। आज गली-गली, डगर-डगर, ढाणी-ढाणी, गांव-गाव, शहर-शहर जातिवाद का कैंसर फैल चुका है। स्वार्थ सिद्धी के लिए जो जातिय वैमनस्य के कालकूट का बीजारोपण किया गया था वह विष वृक्ष अब विराट वृक्ष बनकर अपनी जड़ों से समग्र देश की धरती को जकड़ चुका है। सम्पूर्ण राष्ट्र का भाग्य ही धर्म और जातीयता से नियंत्रित होता प्रतीत हो रहा है। धर्म व जातीयता का दानव समरसता को लीलता जा रहा है।

राष्ट्र की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिए यह अनिवार्य है कि राजनेता व सामाजिक संगठन जांत पांत के क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर चलें। देश के आजाद होने पर संविधान द्वारा कानून की नजर में सब समान हुए, जांत पांत का भेद मिटा, अस्पृश्यता का उन्मूलन हुआ, वर्ण व्यवस्था के स्थान पर समतामूलक व्यवस्था का लक्ष्य निर्धारित हुआ। आज एक दलित राष्ट्र के सर्वोच्य महामहिम के पद पर आसीन है परन्तु आजादी के 75 वर्ष बाद भी जातिवाद का तहर मिटा नही हैं। भोलीभाली अनपढ़ गरीब जनता को विभाजित कर शासन करो। धर्म और सम्प्रदाय, जाति बिरादरी के नाम पर विभाजन करना सर्व सुलभ है।

जाति व्यवस्था से आदर अनादर की श्रृंखला सर्वदा के लिए अटूट व निरन्तर कर दी गई। सदियों से निर्योग्यताओं और निषेदों के बीच गुजरने के परिणामस्वरूप अनेक वर्गो में अशिक्षा व अज्ञानता विद्यामान रही। श्रमजीवी होने के कारण निर्धारित पेशे के कारण शिक्षा व अर्थ का अभाव रहा, राज्य की सेवाओं में स्थान नहीं मिला। जाति हिन्दु समाज के सामाजिक संगठन की आधारभूत इकाई होने के नाते स्पष्टतः अभिज्ञेय तथा स्थाई समूह है, नींव की पत्थर है। लोकतंत्र में वोट की खातिर इस खाई व बुराई को बढ़ावा मिल रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं पाने विचार है)