स्मृति नाद वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री अभय छजलानी

हिंदी पत्रकारिता की आत्मा के वासी

लेखक : नवीन जैन 

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (एमपी)  

www.daylife.page

काफी समय पहले हमारे दोस्त पत्रकार दीपक असीम ने अभय छजलानी जी उर्फ अब्बू जी को अभय प्रशाल में इंटरव्यू किया था। बातों-बातों में अब्बू जी ने  कहा था, मैं पत्रकारिता में अपनी पारी की समाप्ति की घोषणा कर चुका हूं। उसके बाद प्राय:वे अभय प्रशाल में ही बैठने लगे थे। ये तो नहीं मालूम कि तब तक दैनिक जागरण समूह ने नई दुनिया को टेक ओवर किया था या नहीं, लेकिन उसी समय के आस-पास अभयजी के सुपुत्र विनय जी वेब पत्रकारिता में नया सवेरा लेकर आए थे। उन्होंने पिलानी इंजीनियरिंग संस्थान, और थामसान प्रेस लंदन से अर्जित ज्ञान के आधार पर वेब दुनिया पोर्टल की स्थापना की, जो हिंदी का पहला वेब पोर्टल था, और जो तमाम अन्य  भारतीय संवेधानिक भाषाओं में आज भी सबसे तेज, और विश्वसनीय पोर्टल  माना जाता है। अभय जी खुद थामसन प्रेस के पास आउट थे। क्या खूब  संयोग है कि जो वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी वेब दुनिया के पहले संपादक नियुक्त किए गए थे, वे भी सरकारी नौकरी छोड़कर नई दुनिया में उप संपादक बने थे। वे एक कोठरीनुमा कमरे से वेब दुनिया को जमाने में ऐसे लगे कि जैसे लंबे समय तक अपने घर का रास्ता ही जैसे भूल गए हो।

बढ़ती उम्र की लगत बीमारियों के कारण अर्से से अभय जी लगभग बिस्तर पर ही थे। उनकी स्मृति भी करीब-करीब बुझ चुकी थी, लेकिन उन्होंने, स्व.राहुल बारपुते उर्फ़ बाबा, और स्व.राजेंद्र माथुर उर्फ स्व.रज्जू बाबू के साथ मिलकर नई दुनिया को हिंदी पत्रकारिता की रूह या आत्मा बनाने में अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया। नई दुनिया तब  बुलंदियों के पार जाने वाले नए पत्रकारों का जैसे रसोई घर हुआ करता था, जिसमें मालवा का प्रसिद्ध भोजन दाल-बाफले यदि अभय जी शुरू शुरू में बनाते, तो बाबा, और रज्जू बाबू उसकी सिकाई करते। अब्बू जी का निवास चूंकि दफ्तर के पीछे ही था, इसलिए अक्सर वे तीन बार नहाकर, कपड़े बदल कर और चक पक होकर आते। 

यदि बाबा और रज्जू बाबू शब्दों की लपटे नई दुनिया के मार्फत निकालते, तो अभय जी उन्हें एक सुविचारित और सुअनुशासित आकल्पन या लेआउट के जरिए हर दिन का एक नया दस्तावेज बना देते। इसीलिए नई दुनिया को सालों तक छपाई और साज सजावट में राष्ट्रीय स्तर के प्रथम पुरस्कार मिलते रहें। तब  एक भी प्रति में स्याही कम या ज्यादा हो जाती तो अभय जी बीसियों कॉपी रद्द करवा देते। एक बार तो हिंदी का एक शब्द गलत टाइप हो गया तो इंदौर भर की सारी कलमें (पेन) उसे ठीक करने के लिए खरीदी गई। एक बार हिंदी के मध्यप्रदेश से बाहर रहने वाले हिंदी के विश्वविद्यालय के रीडर को त्रुटियां निकालने के लिए ऊंचा मेहनताना देकर अलग से नियुक्त किया गया था। 

अभय जी ही किसी हिंदी अखबार में तीन कंप्यूटर से जुड़ी आफसेट ओरिएंट मशीन लाए जिसमें कीकर भी लगा हुआ था और तब ही उक्त तीनों मशीनें चार पेज का रंगीन परिशिष्ट अलग से छाप सकती थी। अभय जी एक-एक शब्द को विज्ञापन के रेट से जोड़ने में भी माहिर थे। यदि अंत में किसी पंक्ति में सिर्फ है शब्द रह गया है तो वे कोई ऐसी तरकीब निकालते कि है शब्द भी रह जाता, और पंक्ति की जगह भी बेकार नहीं जाती। अभय जी खुद कम से कम लिखते थे, लेकिन नए बंदों से ज्यादा से ज्यादा लिखवाते थे। 

एक जमाने में उनका साप्ताहिक कॉलम गुजरता कारवां पढ़ने के लिए लोग अखबार संबंधित पन्ने से ही खोलते थे। पेज बनवाते समय शीर्षक में से वे एकाध शब्द को इधर उधर करवाकर हेडिंग को वे ऐसा कस देते थे कि उसे बार बार पढ़ने को जी चाहता था। लगता था यार, अपने में इतनी सृजनात्मकता, सौदर्यबोध, और भाषा शैली की ऐसी समग्रता कब और कैसे आएगी। जैसे जब स्काई लेब गिरा था तो उन्होंने ही हेडिंग लगवाया था छपाक... इंदौर में जब एक बार बेइंतहा बादल फटे, तो अभय जी की कलम से शीर्षक गुजरा पानी ही पानी, पानी ही पानी।

राज्यसभा टीवी के पूर्व संपादक प्रिंट, और इलेक्ट्रोनिक माध्यम के ख्यातनाम राजेश बादल और वरिष्ठ पत्रकार और वेब पत्रकारिता में डॉक्टरेट कर चुके प्रकाश हिंदुस्तानी और वरिष्ठ पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा (कृपया यहां मेरा भी नाम जोड़ लें) को अभय जी ने बच्चों की तरह पाला पोसा। एक बार जब प्रकाश जी और शाहिद एक कमरे में बरसात का पानी घुस गया तो अभय जी ने उन दोनों को नई दुनिया परिसर में एक कमरा उपलब्ध करवाकर लंबे समय तक दोनों को सुबह शाम का भोजन घर से भिजवाया और अक्सर उनका हालचाल पूछने उनके कमरे पर भी जाते। शाहिद मियां थोड़े से अलग किस्म के प्राणी थे। वे अभय जी या रज्जू बाबू से बीच महीने में न लौटाने की शर्त पर नकद नोट ही मांग लिया करते थे। ऐसी शरारते करने की तब नई दुनिया में छूट हुआ करती थी, लेकिन काम के दौरान आप सीट पर से उठ भी नहीं सकते थे। चाय, पानी सब डेस्क पर ही आते थे। 

राजेश बादल, और प्रकाश हिंदुस्तानी को जब वे इन्दौर रेसीडेंसी में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व.अर्जुन सिंह से मिलवाने ले गए, तो उनसे उन दोनों यह कहकर परिचय करवाया कि ये दोनों हमारे जवान साथी या सहयोगी हैं। वे टेबल टेनिस के अच्छे खिलाड़ी थे। इन्दौर में स्व. लता मंगेशकर अलंकरण समारोह उन्हीं प्रयासों से प्रारंभ हो सका। अपने सुदर्शन व्यक्तित्व, स्पष्ट, और गहरी आवाज़ से  समां बांध देते थे। जो त्वरित स्पंदन, न्यूज सेंस, और तात्कालिकता उनमें थी, वह इंदौरी पत्रकारिता की एक खास ठसके वाली पहचान थी। कई लोगों को किसी हस्ती के गुजर जाने के बाद उसकी कुछ बातों को लेकर पेट में घुड़घुड़ाने  की बीमारी होती है। अब ऐसे लोगों का हाजमा ठीक रखने के लिए, तो बाबा रामदेव के कारखाने की फैक्ट्री में अभी तक तो शायद कोई चूर्ण बना नहीं होगा, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आर्युवेद भी किसी काम का नहीं है। 

अभय जी की स्मृतियों को शत_शत नमन। धन भाग हमारे कि वे हम जैसे नाकुछ युवाओं के जीवन में पधारे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)