जातिगत जनगणना के गहन प्रभाव : डा.सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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भाजपा सरकार ने 2018 में कहा था 2021 में होने वाली जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में आने वाली जातियां गिनी जायेंगी। अनुसूचित जातियों व जनजातियों की जातिवार गिनती पहले ही होती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पिछड़ी जातियों को गिनने के खिलाफ है, इसलिए सरकार ने ऐन मौके पर फेसला बदल दिया। यदि जातिगत जनगणना हुई तो भारतीय समाज के 70-80 प्रतिशत हिस्से की जातिवार संख्यात्मक तस्वीर उनकी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति सामने आ जायेगी। इसके परिणाम कुछ ऐसे निकल सकते हैं जो इसके समर्थकों और विरोधियों दोनों की समझ में नहीं आ रहे हैं।

मुख्यतौर पर ओबीसी जातियों के नुमाइंदे जातिगत जनगणना के लिए इसलिए दबाब डाल रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि पिछड़े वर्ग आयोगों द्वारा पिछड़ी जातियों की संख्या में दुगनी से ज्यादा व बड़ी जनसंख्या वाली जातियों  जिनको मण्डल ने छोड़ दिया था, इसके जरिये वे अपने आरक्षण को 27 प्रतिशत से बढ़ाकर अपनी संख्या के बराबर लाने का दावा ज्यादा मजबूती से कर सकेंगे। आखिर दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के हिसाब से ही तय किया गया है। 

ओबीसी जातियों (मुसलमानों समेत) की अलग-अलग संख्या की प्रासंगिक जानकारी मिली वैसी ही जनसंख्या के साथ वर्तमान सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राज्यसेवा की जानकारी मिली वैसे ही इस दायरे में सम्मिलित प्रभुत्वशाली जातियों को उनकी संख्या से अधिक मिल रहे आरक्षण के लाभों की जानकारी भी मिलेगी। कुछ पर सवालियां निशान लग सकता है। अंदेशा यह है, जो गोलबंदी है वे ऊंची जातियों के आरक्षण व मिल रहे लाभों के खिलाफ करना चाहते हैं, वह ओबीसी दायरे में अति पिछड़ों द्वारा प्रारम्भ होगी। आरक्षण के न्यायपूर्ण बंटवारे की मांग प्रारम्भ होगी। यह भी पूछा जा सकता है कि क्या आरक्षण का कोटा पूरी तरह से लागू किया गया और नहीं तो उसके लिए क्या प्रयास किये गये।

जनगणना के विरोधियों को लगता है कि इससे जाति संघर्ष तीखा होगा, हिन्दु और मुसलमान समाज के बीच गृह युद्ध छिड़ सकता है। यह अंदेशा केवल कपोल कल्पना साबित होगा। दरअसल जातिगत जनगणना राजनीतिक गोलबन्दी के ढांचे को बदल सकती है। राजनीतिक मांगों का विन्यास और पार्टियों के घोषणा पत्र जनगणना के पश्चात बदल सकते है। चुनावों में टिकटों के बंटवारे के मानक नए सिरे से तैयार करने पड़ सकते हैं। पार्टियों में मदों का बंटवारा, सरकारों में मंत्री पदों का वितरण आदि में राजनैतिक बदलाव आ सकता है। जातिगत जनगणना के प्रभाव गहन और बुनियादी होंगे, उन अर्थो में नहीं जिनमें लोग सोच रहे हैं बल्कि सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक सभी स्थितियों पर गहन प्रभाव होगा, आरक्षण मात्र पर नहीं।

हमारा देश जातियों का संघ बन गया है। हमारी राजनीति उन जातियों को साधने की कला बन गई है। वोट बैंक की राजनीति को पानी पी पी कर गाली देने वाली भाजपा भी अब वोट बैंक की राजनीति करने लगी है। आरक्षण की कट्टर समर्थक कहलाने के लिए अब होड मची है। कोई यह सोचने और बहस करने को तैयार नहीं है कि करीब 75 वर्ष से दिये जा रहे आरक्षण का लाभ क्या निकला। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू हुए भी 30 वर्ष होने को है लेकिन उस पर बहस भी करने को संसद तैयार नहीं है। आरक्षण की अवधि बगैर बहस बढ़ा दी जाती है। लोकसभा, राज्यसभा में किसी सदस्य ने चर्चा नहीं की।

दूसरा तथ्य और भी दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकारी नौकरियों में किस जाति का कितना प्रतिशत है यह आंकड़ा हमारी सरकार के पास नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि सरकार चलाने वालों को यह नहीं पता है कि अपने देश की आबादी में विभिन्न जातियों का कितना प्रतिशत है। अपने देश में जाति के आधार पर जनगणना नहीं की जाती है लेकिन राजनीति उसी आधार पर की जाती है। 130 करोड़ के देश की हजारों जातियों का हिसाब किताब रखना एक कठिन काम हो सकता है लेकिन बमुश्किल दो करोड़ सरकारी कर्मचारियों की जाति का आंकड़ा रखना बहुत कठिन नहीं है। आखिर जाति के आधार पर आरक्षण देना है तो फिर जातियों को कितना लाभ मिला इसकी जानकारी भी सरकार के पास होनी चाहिए। अगर सरकार के पास आंकड़े है तो गोपनीय क्यों रखा जाता है। अब तो सरकार ने संविधान की मूल भावना के विपरीत आर्थिक आधार पर सभी उच्च वर्गो को आरक्षण की श्रेणी में ला दिया है।

न संसद में बहस होगी और जातियों के आंकड़े दिये जायेंगे तो आरक्षण की मूल अवधारणा ही व्यर्थ हो जायेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार यह कहा है कि मलाईदार तबकों को धीरे-धीरे आरक्षण के दायरे से बाहर लाना चाहिए परन्तु सरकार राजनैतिक लाभ की दृष्टि से मलाईदार तबकों को भर रही है। तथ्य व आंकड़ें नहीं हों तो उन तबकों की शिनाख्त कैसे होगी, बिना शिनाख्त किये उन्हें आरक्षण से नहीं रोका जा सकता। सरकार ने पिछड़ा वर्ग के क्राईटेरिया ही बदल दिये है। अब राज व शोषण करने वालों के लिए द्वार खोल दिये गये है, होगा उल्टा। जो सम्पन्न है और दलितों एवं पिछड़ों की श्रेणी में नहीं आते उन्हें आरक्षण मिल रहा है। सरकार भी चुप है, विपक्ष भी चुप है। भाजपा के जो नेता आरक्षण के खिलाफ लाखों शब्द लिख चुके, दसों लाख शब्द बोल चुके उनकी कलम भी रूक गई है, जुबान बन्द हो गई है। मैरिट डीमैरिट वाले उनके व्याख्यान अब सुनाई नहीं देते।

पुरानी कहावत है छोटी व बड़ी मछली को एक साथ रख दिया जाए तो बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह भारत के जाति समाज का भी सच है। अति पिछड़ी जातियों की भी यही हालत है, इसलिए जनगणना आवश्यक है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)