भारतीय संसदीय लोकतंत्र व राजनैतिक दल

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह 

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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संविधान निर्माताओं ने प्रतिनिधिक संसदीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य की संकल्पना की। भारत में राज्य का स्वरूप प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक, कल्याणकारी, गणराज्यीय है जिसमें सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की संकल्पना की गई। भारत के लोग आज इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमारी संसदीय संस्थाओं में विशिष्ठ और गुणी पुरूष एवं महिलायें चुनकर आये जो संसदीय संस्कृति, वाक कौशल, वाद विवाद में पटुता व जनसेवा, कुर्बानी व व्यक्तिगत शालीनता के लिए जाने जाते हैं। हम उन पर गर्व कर सकते हैं। सन 1985 तक संविधान में राजनैतिक दलों का उल्लेख नहीं था। संविधान के 52 वें संशोधन अधिनियम से, जिसके द्वारा संविधान में 10 वीं अनुसूची जोड़ी गई। प्रथम बार राजनैतिक दलों और विपक्षी दलों को मान्यता मिली। परन्तु दुर्भाग्य से देश में एक स्वस्थ द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था अभी तक नहीं उभर सकी। दल बदल कानून भी निरर्थक सिद्ध हुआ। संसदीय लोकतंत्र एक सभ्य और सुसंस्कृत शासन प्रणाली है, परन्तु धीरे-धीरे इसके चरित्र, गठन, वाद विवाद और कार्यकरण में जो परिवर्तन हुआ उससे संसदीय संस्कृति ही बदल गई। संसदीय जीवन एक लाभकारी व्यवसाय बन गया। सभी राजनैतिक दलों के लिए यह आवश्यक नहीं हुआ कि वे सम्प्रदायगत, जातिगत तथा विभाजनकारी आधारित वोट बैंक की राजनीति छोड़कर व्यापक जनाधार और आम जनता के हित की बातें सोचे व सुशासन लाये। 

संविधान की कार्यकरणी की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था निर्वाचन व्यवस्था में सुधार के लिए एक व्यापक कानून बने, राजनीतिक भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रभावी कानून बने। निर्वाचन के बाद जो सरकारें बनती है, उनकी अस्थिरता के लिए सिद्धान्तहीन राजनीतिक सौदेबाजी और बिगडते गठजोड़ों पर रोक लगे। दल बदल के पीछे मंत्री पद या अन्य राजनैतिक पद और विशाल धनराशि आदि का प्रलोभन रहता है। जिस प्रकार हमारे विधायकों का क्रय विक्रय होता रहता है, वह लोकतंत्र का परिहास है। कोई भी विधायक अपने दल को छोड़े या उसके विरूद्ध मतदान करें, उसे तुरन्त अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर, पुनः चुनाव लड़ना चाहिए। दल बदलने वाले किसी भी व्यक्ति को कोई मंत्री अथवा अन्य पद प्राप्त नहीं होना चाहिए। यदि किसी मंत्रीमण्डल को गिराने के लिए दल के निर्देश के विरूद्ध कोई मतदान करता है तो उसके मत की गणना नहीं होनी चाहिए। 

महात्मा गांधी ने इस बात पर बल दिया था कि राजनीति को नैतिकता से अलग नहीं माना जाये। सत्य और अहिंसा नैतिक सिद्धांत थे जिनका उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रवेश कराया। गांधीवादी दलगत राजनीति से विलग रहे। गांधी ने साध्य की पवित्रता के साथ साधनों की पवित्रता पर बल दिया। परन्तु अब राजनीति को पेशे के रूप में अपनाने की प्रवृति बढ़ गई है और राजनीति आचार विचार में पतन आ गया है और वह महज सत्ता के लिए लूट खसौट मात्र रह गई। जनता का शासन और जनता द्वारा लागू नहीं हुआ और दो चुनावों के बीच जनता मूकदर्शक मात्र रह जाती है। 

राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को राजनीतिक समुदायों में संगठित करती है। शासन को मजबूत आधार प्रदान करती है, परन्तु राजनीतिक पार्टियों की वैद्यता नष्ट होती जा रही है। लोकतंत्र के कार्यव्यवहार में क्षति पहुंच रही है, उनके कार्यक्रमों का अन्तर धुंधला पड़ गया है। पार्टी पद्धति का महत्व और उपयोगिता समाप्त होती जा रही है, सत्ता संघर्ष के लिए नैतिकता व राजनीतिक व्यवहार से अलग हो रही है, सिद्धान्तहीन राजनीति के द्वारा पार्टी पद्धति हानिकारक हो गई है। प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार नहीं होने से अनुपयुक्त होकर बेकार हो रही है। 

संसदीय लोकतंत्र में मतदाताओं के परस्पर आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु राजनीतिक पार्टियों की स्थापना से आर्थिक वर्ग बन रहे हैं। घार्मिक आधार पर राजनीतिक पार्टियों का गठन की अनुमति नहीं होनी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र का मान्य सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता का है। क्षेत्रीय आधार पर गठित राजनीति पार्टियों का भविष्य सीमित है। राजनीतिक पार्टियों के कार्यक्रमों में समानता आ रही है, चाहे वे वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। इसलिए पार्टियां उन आर्थिक हितों तक सीमित हो रही है जिनके नाम पर उनका गठन होता है। अब राजनैतिक पार्टियों की भूमिका घटती जा रही है, हानि करने की शक्ति बढ़ती जा रही है। सत्ता हथियाने की प्रवृत्ति सिद्धान्तहीन होती जा रही है। सिद्धान्तों का प्रभाव घट गया, आर्थिक आकर्षण बढ़ गया। सिद्धान्तहीन सत्ता संघर्ष मुख्य लक्षण बन गया, चाहे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी। 

नैतिकता को राजनीति से अलग कर दिया गया है। कालेधन का संचय किया जा रहा है, प्रतिद्वंदियों में एक दूसरे की बुराई करने, कीचड़ उछालने का प्रयास अधिक हो रहा है। जातिवाद व साम्प्रदायिकता को सुदृढ़ कर रही है, कभी पूरा न होने वाले वायदे किये जा रहे है, राजनीतिक व्यवहार को नीचे गिरा रहे है, नैतिक संवेदनशीलता अयोग्यता मानी जा रही है। समाज नैतिक व्यक्तियों की सेवाओं से वंचित हो रहा है, जनसेवा के लिए निष्ठावान प्रबुद्ध व्यक्ति राजनीति से बाहर हो रहे है। सिद्धान्तहीन सत्तामूलक राजनीति के कारण पार्टी पद्धति जनता व शासन की दूरियां बढ़ा रही है। कार्यपालिका के हाथों राजनीतिक सत्ता का केन्द्रीयकरण हो रहा है। आज राजनीतिक पार्टियां आर्थिक हितों की रक्षा वर्ग विशेष के सदस्यों के लिए करती है। तर्क दिया जाता है केवल पार्टी द्वारा बनायी गयी सरकार स्थायी होती है परन्तु अब उसमें भी निजी स्वार्थो के कारण तौड-फौड चलती रहती है। 

इस सबके बावजूद लंबे समय तक राजनीतिक पार्टियों का महत्व बना रहेगा। लोकतंत्र के प्रत्येक रूप में जनता जिस योग्य होती है, उसी के अनुरूप सरकार मिलती है। यदि भ्रष्ट और सत्ता लोलूप राजनीतिज्ञों का राजनैतिक क्षेत्र में प्रभाव है तो उसका कारण अज्ञान और सहज रूप से विश्वास करने वाले मतदाताओं के कारण है। अधिनायकवाद के खतरों और अधिनायकवादी तानाशाही को रोकने के लिए मतदाताओं में अच्छे बुरे की पहचान करने का विवेक उत्पन्न किया जाना आवश्यक है। इसके लिए स्थानीय जनसमितियों के रूप में जनता को संगठित करना आवश्यक है। डर है संसदीय व्यवस्था के स्थान पर नग्न अधिनायकवादी तानाशाही व्यवस्था न आ जाये। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)