बढ़ते महिला अपराधों पर डा. सत्यनारायण सिंह की एक रपट

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के हैल्थ व रिसर्च विंग के आंकड़ों के अनुसार दुनिया की 35 प्रतिशत महिलाओं को हिंसा का शिकार होना पड़ता है। कुछ देशों में तो 70 प्रतिशत महिलाओं को यौन यातना झेलनी पड़ती है। विश्व में महिलाओं की कुल हत्याओं में अतरंग साथी या परिवार के किसी सदस्य द्वारा ही की गई है। यूनएन वूमेन का आंकड़ा यह भी कहता है कि 20 करोड़ लडकियों को जबरन यौन संबंध के लिए मजबूर किया गया। उसमें पांच साल से छोटी लड़कियां भी सम्मिलित है।

भारत में महिलाओं की हालत बदतर है। नेशनल क्राईम ब्यूरों के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 वर्षो में महिलाओं के खिलाफ अपराध दोगुने हुए हैं। इंडिया स्पेंड के सर्वेक्षण के मुताबिक देश में हर घंटे में महिलाओं के खिलाफ 26 हिंसक मामले दर्ज  होते हैं यानि हर दो मिनट में एक अपराध हुआ। संबंधियों द्वारा क्रूरता के हर घंटे में  10 मामले यानि 909713 मामले दर्ज हुए। शीलभंग के 4.70 लाख मामले, अपहरण के  3.15 लाख मामले, बलात्कार व दहेज उत्पीडन के 66 हजार से अधिक मामले दर्ज हुए  है। पारिवारिक व सामाजिक सम्मान की दुहाई देकर हजारों मामले छिपा दिये जाते है।

राजस्थान में 31151, उत्तर प्रदेश में 38467, महाराष्ट्र में 26893, मध्यप्रदेश  में 28678 मामले महिलाओं के खिलाफ अपराधों के अन्तर्गत दर्ज हुए है। पूर्वोत्तर राज्यों  में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या सबसे कम है। इसका कारण पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना होना व उच्च साक्षरता है। हिंसा के अनेक रूप व प्रभाव है परन्तु केवल 10 प्रतिशत पुलिस में शिकायत दर्ज होती है।

बलात्कार महिलाओं के खिलाफ हिंसा विभत्सतम रूप है। अधिकतर बलात्कार किसी परिचित द्वारा किया जाता है। एनसीआरबी के अनुसार धारा 306 बलात्कार की  कोशिश व महिला को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले बढ़े है। अब पीड़िताओं ने ऐसे मामले दर्ज करने की हिम्मत दिखानी शुरू हुई है। महिलाओं का पीछा करने वाले ज्यादातर लोग परिचित होते है, अपरिचित केवल 23 प्रतिशत होते है। एनसीआरबी के 2014 के आंकड़ों में देश में 47000 मामले स्टाकिंग के दर्ज हुए है। तस्करी के मामले भी बढ़े है। डायन बताकर महिलाओं की हत्या व प्रत्याडना करने के मामलों में वृद्धि  हुई है। जातीय हिंसा, दंगों व सामाजिक आन्दोलनों में भी महिलाओं के साथ अत्याचार होता है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश व गुजरात के दंगों के भयावह सच को कौन नहीं  जानता। आपदाओं में वे बच भी जाती है तो उन पर शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक दबाब सबसे ज्यादा होता है।

सरकार कानूनी प्रावधानों में बदलाव के साथ पीड़ित को सहायता, मनोवैज्ञानिक सलाह, अस्थाई आश्रय, मुआवजा, सुरक्षा बढ़ाने के लिए सीसीटीवी कैमरों की व्यवस्था, हेल्प लाइन, इमरजेंसी रेस्पांस सिस्टम, पुलिस बल की मौजूदगी, साईबर क्राइम की रोकथाम हेतु कदम उठा रही है।

इंडियन  डवलपमेंट  सर्वे कहता है औरतों को आत्मनिर्भर बनने दीजिये, घर के बाहर निकल, मनौवैज्ञानिक रूप से ताकतवर होंगी। घरेलू हिंसा रोकथाम कानून, दहेज  निवारक कानून, कार्यस्थलों पर सुरक्षा कानून के अलावा ऐसी व्यवस्था बने जिससे  महिलाओं  को रोजगार, नियुक्ति, प्रोन्नति आदि में मुश्किल नहीं आये, अप्रिय स्थितियों  को  रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जाये।

नारी समानता का विचार केवल बौद्धिक विमर्शो से हल नहीं, धरातल पर उतारने, ठोस कदम उठाने से आगे बढेगा। देश में लिंगानुपात 940 प्रति 1000 होने पर भी विधायिका में मात्र 33 प्रतिशत आरक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं की जा रही। नारी संवेदी संरचनाओं के प्रति हमारा रवैया सही नहीं है। इस दिशा में बहुत कुछ करने  की आवश्यकता  है। ज्यादातर लड़कियां असुविधाओं, बोझ व भय के तले जीवन बिताती  है। महिलाओं के साथ हिंसा की भर्त्सना होने लगी है परन्तु महिलाओं को आत्मसम्मान, आत्मविश्वास प्रदान करने वाले सामाजिक वातावरण की आवश्यकता है।

प्रोफेसर अमर्त्य सेन और प्रोफेसर ज्यां द्रेज ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में कहा है ‘‘बाहरी कार्य व वेतनभोगी रोजगार से अंततः परिवार विवरण में महिला विरोधी पक्षपात कम होता है इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि ‘‘लाभप्रद’’ आर्थिक गतिविधि में महिलाओं की भागीदारी दुनिया के बहुत से हिस्सों में होने वाली विशेष प्रकार की हानियों से निपटने का महत्वपूर्ण कारक है। भारत में ज्यादातर महिलाओं  की आमदनी  में वृद्धि किये बिना उनके काम में बोझ को बढा दिया है।’’

धार्मिक कानून और पद्धतियां जो हमारे संविधान के विरूद्ध हो, जो महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंधन करते हैं, उन्हें चुनौती दी जानी चाहिए। कामुकता पर नियत्रंण, पितृसत्तात्मक विचारधारा, सांस्कृतिक व धार्मिक प्रथायें, उन पर सावधानीपूर्वक  पार पाना होगा। गरीबों और वंचितों को उत्तम और सस्ती शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा  उपलब्ध कराना दुर्जेय कार्य है। अभी हम मातृ मृत्यु दर अनुपात को कम करने में ही सफल नहीं हुए है।

पुलिस बल में महिलाओं की मौजूदगी, राष्ट्रीय महिला कोष की स्थापना, समतामूलक समावेशी जनकेन्द्रीत और परिवर्तनकारी प्रयासों व योगदान की आवश्यकता  है। संगठित अपराधियों पर तो जोरदार प्रहार की दरकार है जिससे अबोध बालिकाओं  को नरक में धकेलने वालों पर लगाम लगे। सेक्स बाजार ने बच्चों को भी एक वस्तु बना दिया है। बलात्कार पीड़िताएं  किस दंश से गुजरती है, रपट लिखवाने के साथ न्याय  मिलने तक जिंदगी में बलात्कार का दंश पीछा नहीं छोड़ता। दरिन्दें बेखौफ जी रहे हैं, घूम रहे है, पीड़िता पल-पल दर्द को महसूस करती है, उसके व उसके परिवार की  उपेक्षा होती है, आरोपी पकड़े नहीं जाते, पढ़ाई छूट जाती है, अपराधी जैसा बर्ताव होता है, वीडियो वायरल कर लगातार जलील किया जाता है, जलालत की बातें सुनकर नींद  नहीं आती। मामले 15-20 साल तक अदालत में चलते है, गवाहियां होती है। गांव में रहने वाली बलात्कार पीडिता की जिंदगी तो नरक बन जाती है। दबाब में पीडित पक्ष  के गवाह अंतिम समय में मुकर जाते है, अनैतिक व्यवहार को बढावा मिलता है।

पुलिस व न्यायिक सिस्टम में सुधार की तुरंत आवश्यकता है। मामलों के निस्तारण की समय सीमा तय हो, चालान पेश होने, सुनवाई पूरा होने, पीडिता व गवाहांे को बार-बार अदालत में पहुंचने व बैठे रहने, प्रत्याडना व उलाहना सहने, विशेष केस आफिसर व अदालतों की व्यवस्था द्वारा पीड़ा से छुटकारा मिले। पीडिता को निर्धारित  सीमा में मुआवजा मिले, पीडिता व परिवार के साथ उपेक्षित व्यवहार नहीं हो, पुनर्वास  की उचित व्यवस्था हो, समय-समय पर काउंसलिंग हो, पुलिस संवेदनशील हो, शीघ्र एफआईआर दर्ज कर मेडीकल जांच हो, साक्ष्य जुटाये जायें, समय सीमा में फैसले संबंधी पक्की व्यवस्था हो। अक्सर पुलिस आपसी सहमति का मामला मानकर जांच में ढिलाई  करती है। राजस्थान बलात्कार के मामलों में नम्बर एक पर है। राजस्थान पुलिस, राजस्थान की सरकार, आम जनता को निश्चित कायदे कानूनों का पालन कर सचेत रहकर कठोर कार्यवाही करनी होगी। सोसियल सिक्यूरिटी के साथ सतर्कता पर  सर्वाधिक धन देना होगा। कामकाजी महिलाओं, अकेली महिलाओं, तलाकशुदा तथा विधवा महिलायें आपसी समझ द्वारा स्वयं को शक्तिशाली बना सकती है। ढंग के कपडे  पहने, देर रात तक बाहर नहीं रूके, हमेशा सतर्क रहे। दलित महिलाओं के  संग  दुर्व्यवहार तो सामाजिक आक्रोश, भेदभाव व अशांति पैदा कर रहा है।

बलात्कार भयावह आयाम ले रहा है। न्याय के इंतजार में पीडिता व उसके परिवारजनों का जीना मुश्किल हो जाता है। अपराधियों के हौसले बढ़ते है,  घटनायें  बढती है। सभ्य समाज की इस ओर बड़ी जिम्मेदारी है। वेश्यावृति,  बच्चों  का  सेक्स  बाजार, देह बाजार, बढ रहा है, यौन कर्मियों की संख्या बढ रही है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)