दुविधा में भारतीय लोकतंत्र : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह    

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. हैं

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लोक प्रशासन का सिद्धांत है, देश की राजनीति में ‘‘सत्ता और सियासत’’ जब ताकत हासिल कर लेते हैं तो वह लोकतंत्र को छोड़कर हमेशा बने रहने का प्रयास करते हैं। लोकतंत्रिय सरकार जब अधिक बहुमत में नहीं होती तब लोकतंत्र की अन्य संवैधानिक व राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं की ताकत बनी रहती है, इनमें हस्तक्षेप नहीं होता न ही उनको दरगुजर करने का प्रयास होता है।

अभी हाल ही में विधानसभा चुनावों के दौरान पूर्व भाजपा अध्यक्ष, गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भाजपा अंगद के पांव की तरह है और उसे आगामी 50 वर्षो में कोई नहीं हटा सकता है। यह सही है कि यदि हम अत्यधिक बहुमत की सरकार चुन लेते हैं तो लोकतांत्रिक संस्थाओं व मर्यादाओं को समाप्त कर राजधर्म के नाम पर लोकतांत्रिक संस्थाओं की ताकत छीनने का प्रयास होता है। इससे लोकतांत्रिक संस्थाओं, जांच एजेंसियों, अदालतों व नियामकों का महत्व अथवा शक्ति कम हो जाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी सख्ती से रोक लगायी जाती है। अत्यधिक बहुमत वाली ताकतवर सरकार यह भूल जाती है कि वह लोकतांत्रिक संस्थाओं और अन्य संवैधानिक संस्थाओं की ताकत समाप्त कर अथवा छीन कर अधिक समय तक सफल नहीं हो सकती। 

वर्तमान में देश में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई, जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रिम कोर्ट और सरकार में लगातार तकरार रही है, रिजर्ब बैंक की स्वायता में दखल का प्रयास हो रहा है, सूचना के अधिकार को सीमित किया जा रहा है, सूचना आयुक्तों को अपने कर्तव्यपालन से रोका जा रहा है व उनकी नियुक्ति शर्तों व प्रतिष्ठा को कम किया जा रहा हैं, सरकारी विभाग भी अब सूचना आयोग द्वारा मांगी गयी सूचनाएं देने से कतरा रहे हैं। सूचना के अधिकार को सीमित करने हेतु संसद में प्रस्ताव पेश हुआ, सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने खबरों पर रोक के बहाने अखबारों की आजादी सीमित कर दी, विरोध हुआ तो प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया। विश्वविद्यालय अनुदानआयोग, विभिन्न आयोगोंमें नियुक्तियां व उनके फैसलों में पार्टी लाइन पर दखल हुआ है, उनकी आजादी कम की गई। न्यायालयों में जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप व भेदभाव किया जा रहा है।

वर्तमान सरकार ने भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनाया। यूजीसी व सीएजी जैसी संस्थाओं की भी आजादी कम की गयी। जबकि सरकार मिनीमम गवर्नेंस का नारा देकर चल रही है। चुनाव आयोग का भी जिस प्रकार से गठन किया जाकर उसका इस्तेमाल करने का प्रयास है वह भी लोकतंत्र को कमजोर करेगा। आधार कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में पार्टी व्हीप का इस्तेमाल हुआ, कानून बनाकर सरकार मौन रही। राजस्थान सरकार ने काला कानून बनाया जिसमें अफसरों व न्यायाधिशों के संबंध में कुछ लिखने से पहले उनसे जानकारी लेने के प्रावधान किये गये। मध्यप्रदेश विधानसभा में सवाल पूछले के अधिकार को समाप्त करने का प्रस्ताव आया। राजस्थान विधानसभा में पूछे गये हजारों प्रश्न जिनका सरकार जबाब नहीं दे सकी थी, उनको समाप्त कर दिया गया। 

अधिक बहुमत वाली सरकारें अलोकतांत्रिक तरीके अपनाती है। एक घोषणा से नोटबंदी का फैसला आया, जीएसटी के संबंध में राजनेताओं व व्यापारिक संस्थाओं के सुझावों को दरगुजर किया गया, राफेल सौदे के संबंध में सरकार ने स्पष्टीकरण नहीं दिया, जेपीसी का गठन कर जांच की मांग स्वीकार नहीं की, आधार के संबंध में उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद भी जिम्मेदार संस्थाओं ने अनदेखी कर रखी है। उच्चतम न्यायालय में भी दखलंदाजी हुर्ह और उच्चतम न्यायालय के जजों को प्रेस कांफ्रेंस कर कहना पड़ा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायता संकट में पड़ रही है। 

सीबीआई के निदेशक को रातोंरात बदला गया, विपक्ष के नेताओं पर सीबीआई एवं ईडी के छापे पड़ रहे हैं और उन पर अनैतिक दबाब बनाया जा रहा है। राज्यपालों को अपनी इच्छानुसार मंत्रीमंडल गठन की हिदायतें मिल रही है, चुनावों में नौकरशाही का इस्तेमाल हो रहा है, उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के फैसलों को दर गुजर कर यथावत फैसले लिये जा रहे हैं। आर्डीनेंस से फैसले निष्प्रभावी करने का प्रयास हो रहा है। उच्चतम न्यायालय को अभी हाल ही में सीबीआई अफसरों के मामले में पूछना पड़ा कि रातोंरात उनका तबादला क्यों किया गया। सरकार को आज जनता का कोई डर नहीं रहा। सरकारी संपत्तियों का बेचान, बड़े उद्योगपतियों के अरबों रूपयों के ऋण माफ किये गये है। 

सरकार की वर्तमान नीतियों से असमानता बढ़ी है। वर्तमान में 90 प्रतिशत भारतीयों की कुल संपत्ति 10 हजार डालर से कम है एवं 0.6 प्रतिशत भारतीयों की कुल संपत्ति एक लाख डालर से ज्यादा, 3.43 लाख हजार डालर करोड़पति भारत में रहते हैं, 1500 भरतीयों की कुल संपदा 10 करोड़ डालर से ज्यादा और 400 भारतीयों की 50 हजार करोड़ डालर से ज्यादा है। वैश्वीक अमीरों की फेरहिस्त के अनुसार भारतीय अरबपतियों की तादाद 131 हैं। 

वर्ष 2016 की एमपीआई में 36.40 करोड़ भारतीय गरीब थे। शिक्षा, स्वास्थ्य, रहन-सहन, बहुआयामी गरीबी के 10 संकेतों की एमपीआई से गरीबी माफी गयी है। 8.6 प्रतिशत भारतीय भीषण गरीबी में रहते हैं। सरकार ने शराब वितरण का काम कुछ लोगों के हाथ में दे दिया है जिससे राजस्व हासिल किया जा सके। सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों में युवाओं को नियमित पारिश्रमिक के बदले आरएसएस से जोड़ा जा रहा है। 

आदिवासियों, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई संबंधों को दरगुजर किया गया, काम से ध्यान हटाने के लिए, नाकामी कबूल करने के बजाय, जातिगत व साम्प्रदायिक टकराव के प्रयास हो रहे हैं। संगीन भ्रष्टाचार व घोटालों के चलते नौकरशाही में केवल अदला बदली हो रही है, देश की प्रमुख जांच एजेंसी की साख गर्त में पहुंच गयी है, माल्या, पंजाब नेशनल बैंक, शारदा रोज वैली घोटाला आदि बड़े मामलों में लीपापोती करने और विलम्ब करने का प्रयास हुआ है। सीबीआई की यह साख राजनैतिक दबाब से बिना अनुभव वाले अफसरों की भर्तियों की वजह से हुई है। मंदिर, मस्जिद के नाम पर राजनेताओं को फंसाया जा रहा है, दर्दनाक और डरावने हादसों में भी समय पर जांच व कार्यवाही राजनैतिक कारणों से नहीं हो रही है। 

इसलिए ठीक ही कहा गया है कि लोकतंत्र में संसदीय संस्थाओं में मजबूत विपक्ष की आवश्यकता है जिससे सरकार मनमानी नहीं करसकें। लोकतंत्र की अन्य संवैधानिक व राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं का अस्तित्व बना रहे। समाज के ऐसे वर्ग जो प्रगति की दौड़ में पिछड़ गये है उनको न्यायोचित व्यवहार मिल सके। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)