नगरीय जीवन को नरक बनाने वाले चार समूह

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

www.daylife.page 

सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय ने अवैध निर्माण संबंध अनियमितताओं को रफा दफा करने की एवं दरगुजर करने की सरकार, स्वायत्तषासी संस्थाओं व विकास प्राधिकरणों की नाकामियों को तुष्टिकरण की संज्ञा देते हुए अधिकारियों को आदेष दिये थे कि उन्हें साहस और अंतर्दृष्टि का प्रदर्शन करना चाहिए। न्यायालयों ने राजनैतिक एवं प्रशासनिक कमजोरी को जनतंत्र के लिए एक बीमारी माना है।

शीर्ष न्यायालयों के महत्वपूर्ण निर्देशों के बावजूद इस शहर के कानून तोडने वाले लोगों से, जो सुनियोजित नागरिक व्यवस्था के सभी मानको को नष्ट करने पर आमादा है, बचाने की पहल की आवश्यकता है। किसी भी शहर ने यह सब नहीं सहा होगा जैसा पिछले कुछ समय से जयपुर के साथ हो रहा है। आज की राजनीतिक व प्रशासनिक हालात में सिद्धान्त और मूल्यों व कर्तव्यों का कोई अर्थ नही रहा। सत्ता की चाहत रखने वाले दलों व लोगों में राष्ट्र कि दीर्घकालिक हित की भावना नही रही। वे तो किसी भी तरह अपना व्यक्तिगत व राजनैतिक हित पूरा कर लेना चाहते है। जयपुर को षहरीकरण एवं निर्माण के ऐसे स्वरुप ने अपनी गिरफ्त में जकड लिया है जो इसे नष्ट करने पर आमादा है, सब ओर बेतरतीब सीमेंट, कान्क्रीट के जंगल दिखाई दे रहे है, हरियाली समाप्त हो रही है, प्रदूषण बढ रहा है। कुछ ऐसी शक्तियां है जो जयपुर के नगरीय स्वरुप का हाल बेहाल कर देना चाहती है। विडम्बना यह है कि बर्बादी की कहानी लिख रहे वे लोग है, जिन पर शहर की हिफाजत, नियोजन विकास, अवैध निर्माण व अतिक्रमण को रोकने का दायित्व है।

शहरीकरण की वर्तमान अवधारणा जयपुर का मूल स्वरुप नष्ट करने पर आमादा है, उनमें मुख्य योगदान चार समूह के शक्तिशाली लोगों का है। सार्वजनिक भूमि हथियाने वालो का, अवैध निर्माण करने वालों का, अनाधिकृत काॅलोनियो की स्थापना करने वालो का और रिहायषी इकाईयों को व्यवसायिक रुप में परिवर्तित करने वालों का और सबसे अधिक भ्रष्ट अधिकारियों व जन प्रतिनिधियों का। इनमें से प्रत्येक समूह ने अपने-अपने तरीके से शहर को बिगाडा है और बिगाड रहे हैं।

पहले समूह में वो लोग शामिल है जो भ्रष्ट राजनीतिक तत्वों व अधिकारियों के साथ सांठ-गांठ कर सार्वजनिक भूमि पर अनाधिकृत कब्जा कर लेते हैं। बेतरतीब बस्तियां स्थापित करते जा रहे है। झुग्गी झोंपड़ियों के रूप में बसाई गई बस्तियों में अनगिनत रिहायशी इकाईयां बन रही है इसके अतिरिक्त उनमें बड़ी संख्या में व्यवसायिक और औद्योगिक गतिविधियां और कार्य भी चलने लगे है।

इस खेल में तीनों खिलाड़ी अनधिकृत कब्जा करने वाले लोग, राजनीतिक तत्व, ऐसी बस्तियों के स्वामियों, के इस नेटवर्क में अपने-अपने हित है। अपने हित में, एक दूसरे को लाभ पहुंचाते है। अनधिकृत कब्जा करने वालों को वन भूमि, सिवाय चक भूमि, बस्तियों की सरकारी व निजी सार्वजनिक भूमि पर मुफ्त कब्जा मिल जाता है और वे बिना कोई भुगतान किए पानी, बिजली जैसी नागरिक सुविधाएं भी हासिल कर लेते है। जो लोग ऐसी बस्तियों के मालिक है वे किराए पर वहां की भूमि लोगों को उपलब्ध करा कर अच्छी खासी धनराशि अपनी जेबों में भरते है, जबकि इस खेल में सहयोग करने वाले राजनीतिक तत्वों को इन बस्तियों के मालिकों के रूप में मुफ्त राजनीतिक कार्यकर्ता तो मिलते ही हैं, चुनावों के मौके पर वहां के निवासियों के एकमुश्त वोट भी मिलते है। 

इन बस्तियों के मालिक, सहयोगी, राजनेताओं को वहां स्थापित दुकानों और फैक्ट्रियों के माध्यम से वित्तीय मदद भी उपलब्ध कराते है। यह राजनीतिक तत्व स्थानीय निकायों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राज्य विधानसभा और संसद के स्तर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है। जयपुर की जवाहर नगर कच्ची बस्ती व शास्त्री नगर के स्लम, कठपूतली नगर इसके उदाहरण है। सरकारी अधिकारी उन्हें हटाने के बजाय दीवारे बनाकर छिपाने की कोशिश करते है।

सार्वजनिक जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं करने वाले राजनेता यदि अनाधिकृत झुग्गी झोपड़ियों का विरोध करते है तो उन्हें दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है। एक तो उन्हें चुनावों में उन बस्तियों के मतदाताओं के विरोध का सामना करना पड़ता है और दूसरे उन्हें बस्तियों के स्वामियों तथा उनके बाहुबली समर्थकों से भी धमकियां मिलती है। उन पर अतिरिक्त खतरा यह भी होता है कि उन्हें राजनीतिक मैदान पर गरीब विरोधी होने का तगमा मिलता है। भूमि व अनधिकृत निर्माणों के बदले यह व्यापार सुनिश्चित करता है कि भ्रष्ट लोगों का सत्ता के ढांचे पर नियंत्रण बना रहे।

अवैध कब्जे वाले स्थानों पर निर्माण करने वाले दूसरे समूह के लोगों ने भी घातक जाल बुन रखा है। भू और भवन माफिया, संपत्ति का स्वामी, अवैध निर्माण खरीदने वाला और उस स्थान को किराए पर लेने वाला एक ऐसे तंत्र का गठन करता है जिसका उद्देश्य नागरिक सुविधाओं की कीमत पर बस पैसे बनाना हैं लाभ हर किसी को होता है। ये सभी उस राजनीतिक तत्व की मदद करते है जो उन्हें संरक्षण प्रदान करता हैं अधिकांशतः इस खेल में शामिल राजनीतिक तत्व ही भूमाफियाओं को प्रायोजित करते है। अनधिकृत कब्जों और उन पर होने वाले अवैध निर्माण के खेल में स्थानीय निकाय के भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों को भी रिश्वत, राजनीतिक तत्वों के प्रभाव या माफियाओं की धमकी के जरिए शामिल किया जाता है। देखते-देखते ऐसे स्थानों पर जहां केवल एक या दो मंजिल बनाने की अनुमति दी जा सकती थी विशालकाय बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो जाती है। करोड़ों रूपए का यह खेल निर्बाध तरीके से जारी है। चूंकि निर्वाचन प्रक्रिया में भ्रष्ट तत्वों की वित्तीय ताकत और उनका प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जा रहा है इसलिए वे लोग हतोत्साहित हो रहे है जो ईमानदार और सत्यनिष्ठ है।

नगरीय जीवन को नरक बनाने में तीसरे समूह के लोगों का भी कम योगदान नहीं। अवैध कालोनियों का निर्माण करने वाला यह वर्ग सार्वजनिक भूमि का बड़ा क्षेत्र, अधिग्रहण वाली भूमि अथवा शहरी सीमाओं से सटी निजी भूमि पर अपने प्रभाव का उपयोग कर अवैध कब्जे करता है। सामान्यतया यह सब फर्जी भू अभिलेखों के सहारे किया जाता है, जिसमें भ्रष्ट सरकारीकर्मी मदददगार बनते है। अवैध कब्जेदार इस भूमि को प्लाटों के रूप लोगों को बेच देते है और न तो नगर निकायों से इसे नियमित करवाते है और न ही उस क्षेत्र में नागरिक सुविधाओं का ढांचा ही उपलब्ध कराते हैं। नियमितीकरण के राजनीति दांव पेंचों के साथ इन प्लाटों को उंची कीमत पर बेचा जाता है। नियमितीकरण भी नगर निकाय, राज्य या केन्द्रीय चुनावों के ऐन पहले किया जाता हैं इस दौरान जोर शोर से यह घोषणा की जाती है कि अब भविष्य में ऐसा कुछ नहीं किया जाएगा और इस तरह की कालोनियों के मामले में सख्ती से निपटा जाएगा, किन्तु यह घोषणा बमुश्किल अगले चुनावों तक चल पाती है। भ्रष्टाचार के इस खेल में शामिल लोग तो मालामाल होते ही है, लेकिन उस शहर को नागरिक सुविधाओं के अभाव से जुझने के लिए छोड़ दिया जाता है।

जहां तक चौथे समूह का प्रश्न है तो ऐसे नागरिकों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है जो रिहायशी इकाइयों को व्यवसायिक रूप देने में संलग्न है। शायद यह पैसा कमाने का सबसे सरल और त्वरित तरीका बन गया है। इसके दुष्परिणाम आस-पास के नागरिकों को भोगने पड़ते है। ट्रेफिक और पार्किंग की समस्याएं इन क्षेत्रों में आम बात है। यह जयपुर शहर के लिए कोड में खाज के समान है जिसे पहले ही अधिक शोर शराबे वाले नगरों व प्रदूषित शहरों में शामिल किया जा चुका हैं।

चारों समूह के लोगों ने जयपुर को किस हद तक हाल बेहाल किया है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि शहर में स्लम के रूप में बनती अनाधिकृत कालोनियां और झुग्गी झोपड़ियों वाली अवैध बस्तियां बढ़ती जा रही है। गत कुछ महिनों की अवधि के दौरान हजारों अवैध निर्माण किए गए हैं व रिहायशी इकाइयों को व्यावसायिक रूप देने के हजारों अन्य मामले अलग है।

विकास अभिकरण एवं निगम अधिकारियों के कार्य बगैर नोटिस व्यावसायिक परिसरों को सीज करना, बगैर वैध तरीके अपनाये आवंटन निरस्त करना, कब्जा लेना, अपने अधिकारों से बढ़कर गैर कानूनी चेष्टा करना रह गया है जिससे न्यायालयों में मुकदमें बढ़ रहे हैं। हाॅं अखबारों की सुर्खियों में बने रहते है। विकास कार्यो को समय पर व सुचारू रूप से पूरा करने की ओर ध्यान नहीं है, न कोई नियंत्रण है। अधिकारों का दुरूपयोग करना आदत बनती जा रही है।

सवाल उठता है, सरकार की नाक के नीचे प्रशासन की इस प्रकर की लापरवाही को कैसे बर्दाश्त किया जाता है। हमारे यहां कानून, नियम और उनमें संसाधनों की कमी नहीं है। करोड़ों रूपए साल के खर्च करके सरकार, जे.डी.ए. व निगम पूरी प्रशासनिक व्यवस्था के तहत इंतजाम करती है। लेकिन अफसर लोग व स्थानीय जनप्रतिनिधि करते क्या है? क्यों जनता से खिलवाड़ हो रहा है, उनकी ड्यूटी सख्ती के साथ पूरी क्यों नहीं होती? (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)