राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में बढ़ती टकराहट
लेखक : लोकपाल सेठी

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक सलाहकार

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देश के लगभग सभी राज्यों में  वहां के राज्यपालों तथा मुख्यमंत्रियों में छोटे-मोटे मुद्दों को लेकर मतभेद उभरते रहते है लेकिन आम तौर पर इन्हें मिल बैठ कर सुलझा लिया जाता है। ऐसे मतभेद आमतौर पर सार्वजानिक नहीं होते है। लेकिन पिछले कुछ समय से ऐसे मतभेद न केवल सार्वजानिक होने लेगे है बल्कि इन मतभेदों को लेकर दोनों पक्ष शालीनता और प्रोटोकॉल की सीमाएं को भी पार कर रहे। इस मामले में दक्षिण के तीन राज्य तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल बहुत होगे है। इन तीन राज्यों में गैर बीजेपी सरकारें हैं जबकि यहाँ के राज्यपाल केंद्र में बीजेपी नीत एनडीए द्वारा नियुक्त किये गए हैं।

संविधान के निर्माताओं ने संविधान बनाते समय विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का बंटवारा बड़े ही संतुलित ढंग से किया था। इनमें टकराव की स्थिति पैदा होने की कोई संभावना ही नहीं रखी थी। 1967 तक केन्द्र तथा लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। इस दौरान संविधान की सभी व्यवस्थाओं का सही ढंग से पालन होता रहा। इसके बाद जब कुछ राज्यों में गैर कांग्रेस सरकारें बनने लगी तो राज्यपालों तथा उन राज्यों  की कार्यपालिका यानि सरकार में मतभेद होने लगे। अक्सर ये आरोप लगाये जाने लगे के राज्यपाल केंद्र के इशारे पर सरकार के काम काज में बेवजह दखल दे रहे है। लेकिन लम्बे समय तक राज्यों के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में सौहार्द बना रहा और दोनों पक्षों ने सभी तरह के प्रोटोकॉल को पालन किया। 

लेकिन अब यह स्थिति नहीं है। अब दोनों पक्षों की टकराहट सभी सीमाओं को लांघने लगी है। संविधान की सरेआम धज्जियाँ उडाई जा रही है। दक्षिण के तीन राज्यों में लगभग रोज कोई न कोई टकराहट सामने आ रही है। राज्यपालों का कहना है कि वे किसी राज्य सरकार को संविधान इतर कोई काम नहीं करने देंगे। राज्यपाल के रूप में उनका पहला कर्तव्य  सविधान की पालना करवाना है। जबकि मुख्यमन्त्रियो का मानना है कि निर्वाचित सरकारों की बात  राज्यपालों को मानना जरूरी है।     

बात शुरू करते है केरल से जहाँ पिछले एक साल से वहां के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और राज्य के वाम सरकार के बीच कोई न कोई मतभेद उभर कर सामने आ रहा हैं। राज्य सरकार ने विधानसभा से कई ऐसे विधेयक पारित करवाए जिनपर राज्यपाल ने अपनी मंजूरी देने से इंकार कर दिया। उनका कहना था की ये विधेयक संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन है। इनमें से सबसे अधिक टकराव राज्य सरकार के विश्वद्यालयों में कुलपतिओं की नियुक्तियों  को लेकर पैदा हुआ। संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। विश्ववद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल के पास है। जब आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य की सरकार द्वारा भेजे गए नामों में से किसी एक को इस पद के लिए नियुक्त करने से इंकार कर दिया। उत्तर में सरकार ने विधानसभा से एक विधेयक पारित कर राज्यपाल को कुलाधिपति के पद ही हटा दिया। विधेयक के अनुसार कुलपति की नियुक्ति  के अधिकार को अपने हाथ में ले लिया। उधर राज्यपाल ने इस विधेयक पर अपनी सहमति देने से इंकार कर दिया। तथ्य यह है कि राज्यपाल के हस्ताक्षर के बिना कोईं विधेयक कानून नहीं बन सकता। 

संविधान के अनुसार विधान सभाओं में राज्यपालों द्वारा दिए जाने वाले अभिभाषण को राज्य सरकार तैयार करती है और राज्यपाल उसे जस का तस पढ़ते मात्र है। लेकिन तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि ने विधानसभा के प्रथम सत्र में लिखित अभिभाषण के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया तथा अपनी ओर से कुछ बाते बोल दी। अभिभाषण खत्म होते ही मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें यह कहा गया था की सदन की अधिकारिक कार्यवाही में लिखित अभिभाषण को ही अंकित किया जाये न कि राज्यपाल की बातो को। इसके चलते स्टालिन ने गणतंत्र दिवस समारोह, जिसमें राज्यपाल  ध्वजारोहण करते हैं, का वहिष्कार करने का ऐलान कर दिया। लेकिन बाद में स्थिति संभाल ली गई तथा स्टालिन समारोह में जाने को मान गए।

तेलंगाना में तो मामला कुछ और आगे ही बढ़ गया। पिछले दो सालों से कोविड के चलते बड़े स्तर में गणतंत्र दिवस नहीं मनाया गया। केवल राजभवन में ही सीमित लोगों की उपस्थित में राज्यपाल तलिसामी सौंदर्यारजन ने कर दिया। मतभेदों के चलते राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव इस बार भी नहीं चाहते थे की सार्वजानिक स्थल पर राज्य स्तरीय समारोह न हो। लेकिन कोर्ट ने आदेश दिया कि राज्य स्तरीय गणतंत्र दिवस होना चाहिए क्योंकि यह एक प्रोटोकॉल है। राज्य स्तरीय समारोह हुआ लेकिन राज्य में भारत राष्ट्र समिति के सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में चंद्रशेखर राव इसमें नहीं गए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)