राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का लक्ष्य अहिंसक समाज की स्थापना का था

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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महात्मा गांधी का लक्ष्य एक अहिंसक समाज की स्थापना का था। गांधी राष्ट्रीय अस्मिता, आत्मनिर्भरता और आत्मविष्वास पर जोर दिया करते है। उनकी सत्य और अहिंसा की उपासना दार्शनिक की उपासना नहीं थी। वे अपने विचारों का प्रयोग करने से कभी नहीं चूके। सत्य और अहिंसा को सबल बनाकर उन्होंने विदेशी साम्राज्य के विरूद्ध असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया। धर्म पर आधारित उनकी राजनीति से भारत की धर्म परायण जनता ने उन्हें महात्मा ही पुकारना शुरू किया। पराधीन, निराष और निर्जीव देष में पुनः नवीन प्राणों का संचार करने के कारण उन्हें राष्ट्रपिता की संज्ञा दी गई। उनके अनुसार धर्म का अर्थ श्रद्धा, कट्टरपंथ से नहीं है, इसका अर्थ है एक नैतिक सुव्यवस्थामय श्रद्धा। उन्होंने ग्राम स्वराज (राजनैतिक विकेन्द्रीकरण) व स्वदेशी के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अहिंसक पद्धति (सत्याग्रह) का अपनाया।

गांधी अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उसके वर्चस्व के विरोध में संघर्षरत थे। राजनैतिक क्रांतिकारी स्वराज को अत्यन्त सीमित अर्थ में स्वीकार करते है। क्रांतिकारियों द्वारा हिंसात्मक साधनों का प्रयोग, साधन व साध्य दोनों में संकीर्णता है। गांधी के अनुसार स्वराज के 5 अर्थ है। पहला अर्थ अंग्रेजों की दासता से मुक्ति, राजनैतिक परतंत्रता की समाप्ति और राजनैतिक स्वतंत्रता की स्थापना। परन्तु स्वराज का अर्थ मात्र राजनैतिक परतंत्रता से मुक्ति नहीं है। स्वराज का दूसरा अर्थ है राजनैतिक स्वतंत्रता। 

लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्रता शब्द का प्रयोग वैचारिक स्वतंत्रता व अभिव्यक्ति, शासन की आलोचना-प्रतयालोचना, राजनैतिक संस्थाओं का निर्माण है। स्वराज का तीसरा अर्थ है आर्थिक स्वतंत्रता। गांधी की आर्थिक स्वतंत्रता नैतिक अनुशासन में बंधी है। हिन्द स्वराज में मशीनों का जो विरोध है वह इसलिए है कि श्रम हीनता से मनुष्य की आर्थिक परतंत्रता बढ़ जाती है, शारीरिक क्षमता का हास होता है। श्रम गांधी के लिए एक प्रकार का कर्म है। गांधी ने आर्थिक स्वतंत्रता और स्वदेशी श्रम को समान माना। स्वराज का चौथा अर्थ है सांस्कृतिक दासता से मुक्ति । पाश्चात्य सभ्यता अंग्रेजी शासन के माध्यम से भारतीय जनमानस में रच बस गई। 

स्वराज का पांचवा अर्थ है आत्मानुशासन। लोकतंत्र का अर्थ है सुशासन, जनता अपना शासन स्वयं करें। उनके अनुसार स्वराज में हिंसात्मक साधन कभी बलबती नहीं हो सकते। गांधी के अनुसार क्रांतिकारी हिंसा की कोई भूमिका जन जाग्रति में नहीं है। उनके अनुसार हिंसात्मक साधनों से किसी भी ऐसे समाज कीरचना नहीं हो सकती जिसमें व्यवस्था और शांति का बखान हो। हिंसा की परिसमाप्ति हिंसा में ही होती है। 

गांधी चिंतन सृजनात्मक पुर्नरचना का माध्यम है। गांधी की प्रासंगिकता 21 वीं शताब्दी में भी है। अतिशय यंत्रीकरण ने मनुष्य जीवन के हर पक्ष को प्रभावित किया है। यंत्र साधन नहीं साध्य बन गया फलस्वरूप मानवीय संबंध मानवोचित नहीं होकर यंत्रवत हो गये। लोकोत्तर सत्ता पर सबसे बड़ाप्रहार विज्ञान का है। धर्म आस्था को रेखांकित करता है। ईश्वर के अस्तित्व पर वैज्ञानिक संस्कृति ने जमकर प्रहार किया। धर्म और विज्ञान दोनों के संस्कार भिन्न है।

गांधी के लिए साध्य और साधन में अंतर नहीं था। गांधी ने अहिंसा के जिस महत्व को रेखांकित किया वह 21 वीं सदी में भी समीचीन है। गांधी चिंतन का सार है कि लोकोत्तर सत्ता द्वारा विश्व में सत्य, अहिंसा, प्रेम, करूणा और संवेदनशीलता की स्थापना। गांधी के चिंतन में माना गया कि जो कल्याणकारी नहीं है वह बहिष्कृत करने योग्य है। आज समाज धार्मिक रूढ़ीयों से ग्रस्त है वहीं अमेरिकी जनता आधुनिक रूढ़ीयों से। 

गांधीजी मानते थे मनुष्य जीवन का उद्देष्य आत्मदर्षन है, परमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना। यदि सेवा के कारण हमारे मन में अभिमान जागता है तो हमारी सेवावृति कच्ची मानी जाएगी। लोकलाज एंव दिखावे के लिए सेवा आदमी को कुचल देती है। सेवा के सम्मुख ऐशो आराम या धनोपार्जन तुच्छ प्रतीत होते है। मैनें सेवाधर्म स्वीकार किया है। विरोधी के प्रति मन में आदर, सरल भाव उसके हित की इच्छा और तदानुसार व्यवहार होना चाहिए। अन्याय की निंदा करना, सत्य की साधना करने वालों का धर्म है। अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है। 

गांधी जी के अनुसार हमारा आदर्श इतना ऊंचा होना चाहिए कि हम वहां तक भले ही नहीं पंहुच सके, किन्तु पंहुचने का प्रयास से निरन्तर ऊपर उठते जायगें। ऊंचे साध्य के साधन भी तो ऊंचे ही होंगे। 

स्वयं पवित्र होकर दूसरों को पवित्र बनाने वाले वैष्णव को ही गांधी ने अपना आदर्श माना। उनके रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की सम्पूर्ण रक्षा होगी, लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा। वे गीता का पाठ ही नहीं करते थे, बल्कि उसे अपने जीवन में उतारने की चेष्ठा भी करते थे। फल त्याग का अर्थ यह नहीं है कि परिणाम के संबंध में लापरवाही रहे। जिस कर्म में अधिक से अधिक जीवों का अधिक से अधिक क्षेत्र में कल्याण हो जिससे अधिक से अधिक सेवा हो वह महायज्ञ है। इसलिए गांधीजी ने चरखा काटने को भी यज्ञ कहा है, क्योंकि वो सीधे दरिद्र नारायण से जुड़ा है। 

गांधीजी के अनुसार अहिंसा ही सत्य वस्तु है। अहिंसा के बिना सत्य का साक्षात्कार असंभव है। हिंसा और आंतक के परिधान में लिपटी 21वीं सदी मनुष्य के विवेक को चुनौती है। आधुनिकता की कोख से उपजी विसंगतियां अतिक्षय समृद्धि, अतिक्षय निर्धनता, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और पश्चिम का वैज्ञानिक प्रभुत्व आधुनिकता के विशिष्ट लक्षण है। प्रभुत्व, वर्चस्व और हिंसा के साथ गांधी ने सांस्कृतिक दासता का भी विरोध किया था। 

गांधी ने ग्राम स्वराज, खादी आन्दोलन, ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त प्रोविशिंयल स्वतंत्रता मशीनों का विरोध, रामराज्य आदि अवधारणाऐं समाज के सामने रखी। तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक विचारक व नेताओं ने गांधीवाद का विरोध नहीं किया, बल्कि समर्थन किया। गांधी ने देश में स्वराज और रामराज्य की कल्पना की थी। उनका सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व धर्म के क्षेत्र में बहुत बड़ा दर्शन व विचारधारा थी। गांधी की अवधारणा के अनुसार गांधीवाद से अर्थ है पुनः ग्राम की और लौटना एवं गांवों को आत्मनिर्भर बनाना। अस्पृश्यता के बारे में गांधी ने कहा था न मैं मोक्ष पाने की इच्छा करता हूँ, न पुर्नजन्म की, परन्तु अगर मेरा पुर्नजन्म हो तो मैं चाहूगां कि अस्पृश्य के घर में पैदा हूँ।

महात्मा गांधी आर्थिक विचारक अथवा नवीन अर्थिक चिन्तन के प्रतिपादक नहीं थे। उनके विचार आर्थिक समस्याओं की यथार्थता व मानवता पर आधारित थे। उनके आर्थिक विचारों का मानदण्ड नैतिक मर्यादा है। आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ उनके अनुसार व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने प्रयास से आर्थिक उत्थान है। गांधी जी का अर्थिक समानता में विश्वास था। प्रत्येक व्यक्ति के पास उचित घर, खाने के लिए भोजन, शरीर ढकने के लिये पर्याप्त खादी। उनके अनुसार जो मनुष्य काम किये बगैर खाता है, वहा पापी है। गांधीजी मषीनीकरण, यंत्रो के असंतुलित दुरूपयोग के विरोधी थे। 

वे सार्वजतिक उपयोग वाले यंत्रों के सार्वजनिक नियंत्रण के पक्ष में थे। ’’पहले सभी लोगों को रोजगार मिलें, आवष्यकतानुसार मषीनों का प्रयोग हो।’’ गांधी ने ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योग पर बल दिया। पूंजीवाद में बेकारी व शोषण की प्रवृतियां बलवती होगी। वे पूंजी व श्रम में समुचित तारतम्य कायम करना चाहते थे। गांधीजी वर्ग संघर्ष की अवधारणा पर विष्वास नहीं करते थे। वे पूंजीपतियों को सफाया नहीं चाहते, उनका हृदय परिवर्तन कर उसकी लाभ व शोषण की प्रवृति को बदलना चाहते थे। गांधी जी के आर्थिक विचारों में न्यासिता का सिद्धान्त महत्वपूर्ण है। 

आर्थिक विषमता के दौर में पूंजी व श्रम की संघर्ष की समाप्ति, आमीर लोगों का जिनके पास सम्पति केन्द्रित है, उसका प्रभाव हटाना, लाखों गरीबों की आर्थिक स्थिति सुधारना। ’’जब तक गरीब व अमीर के बीच की खाई है, तब तक अहिंसा पर आधारित सरकार कायम करना बेईमानी है।’’ यदि सम्पति में आम लोगों को भागीदार नहीं बनाया तो हिंसात्मक क्रांति होगी। रोटी के लिए श्रम उनकी आर्थिक विचारधारा का सार है। गांधीवादी आर्थिक चिन्तन में खादी इनका मुख्य कारण है। 

विकास की गांधीवादी अवधारणा संकुचित एवं एकपक्षीय न होकर व्यावक एवं बहुआयामी है। व्यक्ति के सर्वोतोन्मुखी विकास की दिशा, पूंजीवादी विकास में अधिकाधिक उत्पादन, असीमित उपयोग, बौद्धिकवादी संस्कृति को जन्म दिया है। समाजवादी विकास के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतंत्र विचारधारा व आवष्यकताऐं कुचलने लगती है। इन दोनों स्वरूपों का मूल आधार भौतिकवाद है। गांधीजी के विकास के अर्थ मानवीय मूल्यों के आधार पर है। 

गांधी जी के लिए साध्य और साधन में अंतर नहीं थे। इनके उनके अनुसार अषुद्ध साधनों से षुद्ध साधय संभव नहीं है। उनकी चिन्तन का सार है, लोकोतर सता में विष्वास, सत्य, अहिंसा, प्रेम, करूणा और संवेदनशीलता। जो चिन्तन व्यवस्था और संस्था इसे नष्ट करती है, वह कल्याणकारी नहीं है। आंतकवादी हिंसा का षिकार वही नहीं है जिसकी हत्या होती है, बल्कि उसकी भी जो हिंसा करता है। गांधी के अनुसार मनुष्य यथासंभव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति श्रम के माध्यम से करें। गांधी के चिंतन श्रम शक्ति से वंचित मनुष्य आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं परतंत्र है। गांधी द्वारा प्रस्तुत दृष्टि 21वीं षताब्दी की उभरती समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकती है। सृजनात्मक पुर्नरचना के माध्यम से गांधी की प्रासंगिकता स्पष्ट है। 

महात्मा गांधी ने इतिहास के सबसे बड़े जन आंदोलन भारतीय स्वाधीन स्वतंत्रता संग्राम का संचालन किया। अन्याय के विरूद्ध शांतिपूर्ण एवं अहिंसक आन्दोलनों की सलाह दी। गांधी द्वारा प्रस्तुत तात्विक दृष्टि - 21वीं शताब्दी की उभरती हुई समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकती है। यद्यपि वैज्ञानिक शोधें, उपलब्धियां, सर्वग्रासी यांत्रिकरण और मानवोचित जीवन शैली की विसंगती, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व पश्चिम के वैज्ञानिक प्रभुत्व के कारण गांधी की राय दुष्कर है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)