देश के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ, पूर्व केन्द्रीय मंत्री और देश के तीन राज्यों से लोकसभा के लिए सात बार और उ०प्र० से एक बार व बिहार से दो बार राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने वाले खांटी समाजवादी शरद यादव अब हमारे बीच नहीं हैं। 75 वर्षीय शरद यादव ने 12 जनवरी की रात गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल में अंतिम सांस ली। वह काफी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में एक साधारण परिवार में 01 जुलाई 1947 को आंखमऊ गांव में जन्मे व्यक्ति ने न केवल देश की राजनीति और राजनीतिज्ञों में अपनी एक खास जगह बनायी बल्कि वह कई दशकों तक सामाजिक न्याय के मुद्दे व नारे के चलते राज्यों में बनी सरकारों के केन्द्र बिन्दु भी बने रहे।
उनकी सबसे बड़ी खासियत यह रही कि वह किंग मेकर की भूमिका में रहे, किंग बनने की चाहत उसमें कभी रही ही नहीं। 1997 में वह जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष जरूर बने, इसमें दो राय नहीं। 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद युवा सांसद शरद यादव युवा जनता के भोपाल अधिवेशन में युवा जनता के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने।उसके बाद युवा लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष, लोकदल के महासचिव, जनता दल के महासचिव, संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष, जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष और फिर जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष व भाजपा नीतित राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय गठबंधन राजग के संयोजक के रूप में उनकी यात्रा खत्म हुई।
देखा जाये तो एक जुझारू छात्र नेता के रूप में उनकी पहचान जबलपुर में ही नहीं, पूरे मध्य प्रदेश में इंजीनियरिंग कालेज के छात्र रहने के दौर में 1970 के दशक में ही बन चुकी थी। 1971 का उनके जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह वह समय था जब वह जबलपुर में छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गये। उस दौर में वह जयप्रकाश नारायण जी के संपर्क में आये। यह वह समय था जबकि पूरे मध्य प्रदेश में प्रमुख छात्र नेता के रूप में शरद यादव की न केवल पहचान बन चुकी थी बल्कि वहां के विश्व विद्यालयों के छात्र उन्हें अपना सबसे बड़ा हितैषी मानने लगे थे। जेल से उनका नाता छात्र जीवन से ही बना रहा। 1974 में जबलपुर लोकसभा सीट पर वहां के दिग्गज कांग्रेस नेता सेठ गोविंददास के निधन के कारण उप चुनाव हो रहा था।
संघर्षशील और आंदोलनकर्मी युवा छात्र नेता शरद यादव की प्रतिभा और क्षमता को जार्ज फर्नांडीज ही नहीं, राज्य के शीर्ष समाजवादी नेताओं के साथ जयप्रकाश जी ने पहचाना और जबलपुर लोकसभा के उप चुनाव में शरद यादव को प्रख्यात क्रांतिकारी समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीज की सलाह पर जनता उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस उम्मीदवार सेठ गोविंददास के बेटे रवि मोहन दास के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा। इस चुनाव में मध्य प्रदेश के छात्रों की मेहनत, समाजवादियों के प्रचार और शरद यादव के संघर्ष की बदौलत जयप्रकाश जी के जनता उम्मीदवार शरद यादव ने कांग्रेस उम्मीदवार को भारी मतों से शिकस्त दी और पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया।
जाहिर है जयप्रकाश नारायण का कांग्रेस के खिलाफ पहला चुनावी प्रयोग सफल रहा जिसमें तत्कालीन छात्र आंदोलन की अहम भूमिका थी जिसकी अंतिम परिणिति 1977 में कांग्रेस के पराभव के रूप में हुयी। देश के शीर्षस्थ राजनेताओं में शरद यादव की छवि ने उस समय गहरी पैठ बनायी, जबकि आपातकाल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने के विरोध में प्रख्यात समाजवादी नेता मधु लिमये का अनुसरण करते हुए लोकसभा की सदस्यता से उन्होंने इस्तीफा दे दिया। आपातकालीन में वह लम्बे समय तक जेल में रहे।आपातकाल के खात्मे के बाद 1977 में वह जबलपुर से ही लोकसभा के लिए फिर चुने गये।
सन 1980 में उन्हें जबलपुर से लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। उसी साल संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। उसके बाद अमेठी के लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के राजीव गांधी से व 1984 में बदायूं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार सलीम इकबाल शेरवानी से हार का उन्हें सामना भी करना पड़। वह बात दीगर है कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की बीमारी के दौरान चौधरी साहब के पुत्र अजीत सिंह और सहारनपुर के काजी रशीद मसूद के साथ वह 1986 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में पहुंचे और 1989 में बदायूं से जनता दल उम्मीदवार के रूप में लोकसभा पहुंचे और राजा विश्व नाथ प्रताप सिंह की सरकार में कपड़ा मंत्री बनाये गये। इसके बाद वे बिहार के मधेपुरा लोकसभा क्षेत्र से चार बार 1991, 1996,1999 और 2009 में लोकसभा सदस्य और दो बार 2004 और 2014 में बिहार से राज्यसभा पहुंचे। इस दौरान वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में 1999-2001में नागरिक उड्डयन मंत्री, 2001-2002 में श्रम मंत्री व 2002-2004 में उपभोक्ता मामले एवं खाद्य मंत्री बनाये गये। इस बीच वह भाजपा नीत एनडीए यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक भी रहे।
सन 1977 में वह जनता पार्टी, 1980 में चौधरी चरण सिंह नीतित जनता एस व 1982-1084 में दलित मजदूर किसान पार्टी,1989-1991 में जनता दल में रहे और उसके बाद जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1990 के बाद से कुछ बरस पहले तक लगातार उन्होंने बिहार की राजनीति को प्रभावित किया। उन्हीं की भूमिका का कमाल रहा जिसके चलते लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बन सके। उसके बाद नीतीश कुमार के साथ उन्होंने मिलकर भाजपा का साथ दिया और बतौर राजग संयोजक अटल सरकार में मंत्री बने। बाद में शरद यादव और नीतीश दोनों का भाजपा से मोहभंग भी हुआ। फिर दोनों अलग भी हुए।
वह बात दीगर है कि जीवन के मध्य में लालू प्रसाद यादव और आखिरी पड़ाव में नीतीश कुमार से मतभेद भी हुए और अलग होकर तकरीब चार बरस पहले उन्होंने अपनी अलग पार्टी भी बनाई। लेकिन आखिर में उन्होंने अपनी पार्टी का लालू प्रसाद नीतित राजद में विलय कर लिया और जीवन की आखिरी सांस तक राजद के ही होकर रहे। यह विडम्बना देखिए कि जब शरद यादव युवा लोकदल अध्यक्ष थे, तब नीतीश कुमार बिहार युवा लोकदल के अध्यक्ष थे और जब शरद यादव लोकदल महासचिव थे तब विधान परिषद सदस्य नीतीश कुमार युवा लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे।
जब बात उत्तर प्रदेश की आती है तो इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि भले शरद यादव ने अमेठी में लोकदल उम्मीदवार के रूप में राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लडा़, दस्यु उन्मूलन के नाम पर हुए पिछडो़ं खासकर यादवों के उत्पीड़न के खिलाफ हुए आंदोलन में एटा जेल गये हों, बदायूं से दो बार लोकसभा चुनाव लडे़, एक बार जीते एक बार हारे लेकिन उत्तर प्रदेश के यादवों में वह लाख कोशिशों के बावजूद अपनी पैठ बनाने में नाकाम रहे। दरअसल इसका अहम कारण मुलायम सिंह यादव भी रहे जो उत्तर प्रदेश में उस समय चंद्रजीत यादव, रामबचन यादव के बाद यादवों के सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। यहां गौरतलब है कि रामनरेश यादव भी, भले वह प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे लेकिन यादवों के सर्वमान्य नेता वह भी नहीं बन सके।
वह बात दीगर है कि जीवन के आखिरी समय में वह लालू प्रसाद नीतित राजद के सदस्य के रूप में ही जाने गये क्योंकि एक साल पहले मार्च 2021 में उन्होंने अपनी पार्टी लोकतांत्रिक समाजवादी दल का राजद में विलय कर दिया था। इसमें भी दो राय नहीं कि मतभेदों के बावजूद उनके बहुतेरे नेताओं से व्यक्तिगत सम्बन्ध थे जो अंत समय तक बने रहे। यहां तक लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के साथ अलगाव के बाद भी उनके सम्बन्ध थे। इसे शायद यह भी कह सकते हैं कि आखिरकार उन्होंने बिहार को अपनी कर्मभूमि मान लिया था और मधेपुरा को अपना घर।नीतीश से मतभेद और फिर अलग होने पर उन्होंने 2018 में अपनी अलग पार्टी बनायी जिसे उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवादी दल नाम दिया। यह भी सच है कि 1990 में विधान सभा चुनाव के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बनने के सवाल पर वे विश्वनाथ प्रताप सिंह की असहमति के बाद भी लालू प्रसाद के साथ दिखाई दिए। इसमें चौधरी देवीलाल की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। अपने आखिरी समय में वह लालू प्रसाद की पार्टी राजद के ही साथ खड़े दिखाई दिए।
दरअसल राजनीति में विचार और संगठन दोनों को वह बहुत ही महत्वपूर्ण मानते थे। यहां इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि शरद यादव पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, पी०वी०नरसिम्हाराव,अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार के साथ पांचवें ऐसे राजनेता थे जो अलग- अलग समय में देश के तीन राज्यों से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। राज्य सभा में भी उन्होंने उत्तर प्रदेश और बिहार दो राज्यों की नुमाइंदगी की। उन्होंने संसद के दोनों सदनों में संसदीय शिष्टाचार और मर्यादा का पालन करते हुए देश के वंचित-शोषित तबकों की आवाज को बेबाकी और तार्किकता पूर्ण तरीके से बुलंद किया।
यही नहीं संसदीय बहसों को समृद्ध करने में अपना सार्थक योगदान भी दिया। उनकी खासियत यह भी थी कि वह जब सदन में बोलने खडे़ होते थे तो पूरा सदन उनको गंभीरता से सुनता था। राजनीतिक परिदृश्य पर ऐसे समय जब देश की राजनीति विभ्रम और दिशाहीनता की शिकार है, उन जैसे अनुभवी राजनेता की बेहद जरूरत थी। मेरा उनसे परिचय 1971-72 से है जब मैं सागर यूनिवर्सिटी का छात्र था और वह जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज के छात्र थे। बाद में दिल्नी आने पर उसमें और प्रगाढ़ता आयी। दस्यु उन्मूलन के नामपर पिछडो़ं के उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन में उनके साथ एटा जेल में मैं भी उनके साथ रहा जहां वैचारिक रूप से उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनका जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति तो है ही, देश की राजनीति की अपूरणीय क्षति है जिसकी भरपायी असंभव है। ईश्वर उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दे, यही प्रार्थना करता हूँ। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।