लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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जैविक खेती की राह में बाधाएं तीनों स्तरों पर हैं। सरकारए किसान और उपभोक्ता की कम दिलचस्पी के कारण यह खेती रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है। केंद्र और राज्य सरकारों की दिलचस्पी नहीं होने के कारण हैए रासायनिक खेती की मानसिकताए वैज्ञानिक समुदाय का जैविक या प्राकृतिक खेती की तरफ उन्मुख न होनाए कम उपज और खाद्य सुरक्षा का डरए एग्रो. केमिकल इंडस्ट्री का प्रभावए जैविक या प्राकृतिक खेती को समग्रता के साथ न देखना और अभिलेखोंए दस्तावेजो का अभावए रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों पर खास ध्यान न देनाए राज्य स्तर पर राजनैतिक इच्छा शक्ति का न होना।
किसान जैविक और प्राकृतिक कृषि को अपनाने में क्यों हिचक रहे हैंए उसके कारण है रासायनिक खेती की मानसिकताए ज्ञान और विश्वास की कमीए उपज गिरने का डर और नुकसान सहने की क्षमता का न होनाए बदलाव के समय तंत्र का सपोर्ट न मिलनाए रिस्क कवरेज न मिलनाए सरकार द्वारा जैविक बाजार की व्यवस्था न होनाए लाभकारी मूल्य मिलने का आश्वासन न होनाए अच्छी गुणवत्ता की ऑर्गेनिक इनपुट्स जैसे बीजए बायो इनपुट्स और टेक्नोलॉजी का उपलब्ध न होनाए जैविक तरीके से कीट प्रबंधन में समुचित जानकारी और विश्वास का अभावए जैविक सर्टिफिकेशन किसान के लिए मुश्किल प्रक्रिया होना ध्अनुकूल न होनाए जैविक और प्राकृतिक खेती में ज्यादा शारीरिक श्रम और समय लगनाए पशुओं पर निर्भरताए ग्रामीण युवकों की खेती में घटती रुचि और छोटे होते परिवार।
उपभोक्ता जैविक और प्राकृतिक कृषि के उत्पाद क्यों नहीं खरीद रहे हैं उसके कारण है उत्पाद ज्यादा महंगे होनाए पहुंच से बाहर होनाए हर जगह आसानी से उपलब्ध न होनाए बाजार में नकली उत्पाद होनाए प्रामाणिकता को लेकर संदेहए रासायनिक खेती के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों को लेकर जागरुकता का अभावए जैविक और पर्यावरण संरक्षण के लिंक को लेकर जागरुकता का अभाव है।
जैविक और प्राकृतिक खेती की बाधाएंए रसायन मुक्त खेतीए अब भी मुख्यधारा में आने के लिए संघर्ष कर रही है। आज देश में राष्ट्रीय स्तर का मिशन या महत्वाकांक्षी एक्शन प्लान नहीं है। राष्ट्रीय जैविक खेती नीति निष्क्रिय.सी हो चुकी है। एक तरफ जहां रासायनिक उर्वरकों को साल में सरकार की तरफ से 70 से 80 हजार करोड़ की सब्सिडी दी जाती हैए वहीं जैविक की मुख्य योजनाओं को भी सिर्फ कुछ सौ करोड़ ही दिए जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि अब तक भी वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माताओं ने जैविक और प्राकृतिक खेती के सम्पूर्ण फायदों जैसे. पर्यावरणए आर्थिक ए सामाजिकए पोषण और सतत विकास लक्ष्य संबंधी तथ्यों को पूरी तरह से या तो समझा नहीं या समझकर भी नीति निर्माण में महत्व नहीं दिया।
एक तरफ जहां रासायनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए एग्रो.केमिकल इंडस्ट्रीज की बड़ी लॉबी रहती हैए वहीं बहुत सारी आशंकाओं के चलते रसायन मुक्त खेती को उच्च स्तर पर राजनैतिक सहयोग भी हासिल नहीं हो पाता। देश की कृषि शिक्षा व्यवस्था और वैज्ञानिक समुदाय रासायनिक खेती पर ही बात करता है और रसायन मुक्त खेती को बड़े स्तर पर ले जाने की ओर अग्रसर नहीं है। हमारे देश का कृषि तंत्र किसानों का सही मार्गदर्शन और सहयोग करने में सक्षम प्रतीत नहीं होता। किसानों को उत्पादों का सही मूल्य लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और काफी समय बाजार की भागदौड़ में निकालना पड़ता है। रसायन मुक्त खेती का तेजी से प्रचार.प्रसार न होने का एक बड़ा कारण उचित दाम न मिल पाना है। सरकार की किसी भी योजना में किसानों द्वारा योजना के तहत उत्पादित कृषि उत्पादों को खरीदने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी के साथ किसानों को उत्तम गुणवत्ता और उचित दाम पर जैविक बीजए जैविक खाद आदि की व्यवस्था नहीं है। कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में या तो जैविक नीति है ही नहीं या है भी तो सही तरीके से लागू नहीं हो पा रही है।
प्रदूषण मुक्ति के प्रयास असफल हो रहे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जलवायु परिवर्तन हो रहा है जिसके दुष्प्रभाव खाद्य पदार्थोए फलो पर पड़ रहे है। वायुमण्डल में जहरीले गैस कण खाद्य पदार्थो पर विपरीत असर डाल रहे है लाखों हेक्टर फसल बर्बाद हो रही हैा अर्न्तराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान कन्सलटेटिव ग्रुप के मुताबिक प्रदूषण से गेंहू के उत्पादन में 2050 तक भारत 5ण्60 प्रतिशत कमी आयेगी। प्रदूषण बढ़ने से कृषिए बागवानीए औषधीए व फूलों की खेती में फसलों में नये रोग होंगेा मृदा व पानी में प्रदूषण बढ़ेगा वनस्पति में नए रोग पैदा होने लगेंगे। तापमान के बढ़ने से बेमौसम बारिश स्थिति को भयावह बनायेगी। रसायनों के उपयोग से प्रदूषण बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है।
पर्यावरण और स्वास्थ्य पर रासायनिक खेती के गंभीर दुष्प्रभाव को देखते हुए धीरे.धीरे ही सही लेकिन जैविक व प्राकृतिक खेती की तरफ लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। भारत में यह खेती अब भी सीमित क्षेत्रफल में ही हो रही है। सरकारों द्वारा अभी काफी कुछ करना बाकी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)