कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद फिर से उभरा
लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)

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महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच लगभग छ: दशक से भी अधिक पुराना सीमा विवाद एक बार फिर उभर आया है। जब जब इन दोनों राज्यों में विधान सभा के चुनाव आते है तो दोनों राज्यों में यह पुराना सीमा विवाद एक बड़ा मुद्दा बन जाता है। चूँकि इस बार कर्नाटक में अगले कुछ महीनों में विधान सभा चुनाव होने वाले है इसलिए ये विवाद एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। इस समय कर्नाटक और महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों में ही बीजेपी की सरकारें है इसलिए यह माना जा रहा था दोनों प्रदेशों की सरकारें मिल बैठ कर इस पुराने सीमा विवाद को सुलझा लेंगी। लेकिन अब जिस प्रकार के परस्पर विरोधी बयान आ रहे है उससे यह  विवाद सुलझाता नज़र नहीं आ रहा। वैसे भी मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है इसलिए इस मामले पर अब आखरी फैसला वहीं से ही आयेगा। इस विवाद को लेकर दोनों प्रदेशों की सरकारों ने बड़े-बड़े वकीलों को लिया है ताकि उनकी ओर से मजबूत कानूनी बहस हो सके। अपना पक्ष पेश करने के लिए दोनों ओर की सरकारों ने जाने माने विधि विशेषज्ञों की समितियां बनाई है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे जहाँ खुद ऐसी समितियों की बैठकें ले रहे है वहीं कर्नाटक के मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई भी इस मामले में पीछे नहीं।

1956 जब  भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन आयोग बना तो इसने तब की बॉम्बे रेजीडेंसी का विभाजन कर  महाराष्ट्र और गुजरात का गठन किया।  महाराष्ट्र मराठी भाषी और गुजरात, गुजराती भाषी राज्य बने। इसी प्रकार दक्षिण के कन्नड़ भाषी इलाकों को मिलकर मैसूर राज्य बना जो कालान्तर में  कर्नाटक के रूप जाना जाने लगा। महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा लगती है। दोनों राज्यों सीमा से लगते इलाकों में  कई ऐसे गाँव है जहां मराठी और कन्नड़ भाषी लोग सदियों से रहते आ रहे है। मसलन कर्नाटक के बेलगाँव (जो अब बेलगावी हो गया है), विजयपुरा और धारवाड़ जिलों के अनेकों गाँव में मराठी बोलने वालों का बाहुल्य है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के सांगली, सोलापुर और कोहलापुर जिलों के बहुत से गाँव में  कन्नड़ भाषी रहते है। दोनों राज्यों के बीच    विवाद तभी शुरू हो गया था, जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ था। उस समय दोनों राज्यों में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी लेकिन इसके बावजूद इन दोनों ने राज्यों के इस पुनर्गठन को सही नहीं माना। पुनर्गठन के कुछ समय बाद ही यह मांग उठें लगी की कर्नाटक के मराठी भाषी गाँव को महाराष्ट्र में मिलाया जाये। उधर कर्नाटक ने भी कहना शुरू कर दिया कि महाराष्ट्र के कन्नड़ भाषी गाँव कर्नाटक को दिए जाएँ। दोनों ओर इस मुद्दे को लेकर अपने अपने यह आन्दोलन हुए . इसी को देखते हुए दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सहमति से केंद्र सरकार ने 1966 ने जस्टिस मेहरचंद महाजन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। दोनों राज्यों की सरकारों ने केंद्र से यह वायदा किया कि इस आयोग के सिफरिशों मंजूर किया जायेगा। आयोग ने लम्बे समय की कवायद कर जो रिपोर्ट पेश की उसमें कर्नाटक के मराठी भाषी इलाकों के 262 गाँव महाराष्ट्र को देने की बट कही। जबकि महाराष्ट्र 824 गाँव मांग रहा था। इसी प्रकार  कर्नाटक ने महाराष्ट्र के 516 कन्नड़ भाषी गाँव पर दावा किया था। 2006 में इस रिपोर्ट को दोनों राज्यों की सरकारों ने ख़ारिज कर दिया और इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का निर्णय किया। यह सुनवाई हाल तक शुरू नहीं हुई थी। अचानक न्यायालय इन याचिकायों 30 नवम्बर से सुनवाई करने का निर्णय किया। 

इस आयोग की रिपोर्ट के बाद कर्नाटक के बेलगाँव इलाके में महाराष्ट्र एकीकरण समिति का गठन किया गया, जिसकी एक ही मांग थी कि इन इलाकों का  महाराष्ट्र में मिलाया जाये। इस समिति को महाराष्ट्र के प्रमुख राजनीतिक दल शिव सेना का खुला समर्थन था। लम्बा आदोलन चला और कर्नाटक की सरकार को इस क्षेत्र के विकास के लिए कई बड़ी योजनाये देने का निर्णय किया ताकि आदोलन थम जाये। एक समय था जब समिति का इस इलाके सभी 6 विधान सभा सीटों परकब्ज़ा था। बेलगाँव नगरपालिका में इसका बहुमत था। नगरपालिका ने बाकायदा एक प्रस्ताव पारित कर इस इलाके को महाराष्ट्र में शामिल करने के माँग की थी। धीरे-धीरे आन्दोलन कमजोर पद गया और इलाके में या तो बीजेपी का दबदबा बना या फिर कांग्रेस का। 

अब दोनोंओर आदोलन फिर शुरू हो गया है। सावधानी के तौर पर महाराष्ट्र ने सरकारी यात्री बसों को कर्नाटक भेजना बनद कर दिया है, इसी प्रकार कर्नाटक ने भी अपनी बसें वहां नहीं भेजने का निर्णय किया हैं। आशंका है जैसे-जैसे चुनाव निकट आएंगे यह आन्दोलन और तेज होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)