शिष्टाचार से ही निकलता है सफलता का मार्ग
लेखक : प्रोफेसर डॉ. सोहन राज तातेड़ 

(पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालयए राजस्थान)

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पुनरुत्थान कार्यक्रम जीवन को नई दिशा देने वाला, पतन से उत्थान की ओर ले जाने वाला एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें मानव जीवन से सम्बन्धित, शिष्टाचार से सम्बन्धित विषयों पर चर्चा करके मानव को जागृत किया जाता है। सभी प्राणियों में दस संज्ञाएं होती है जिसके द्वारा मानव सफलता प्राप्त करना चाहता है। लोकेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेषणा से प्राणी ग्रस्त रहता है। जीवन में ये सब वस्तुएं तभी प्राप्त होती हैं जब मानव के अन्दर शिष्टाचार और सदाचार होता है। मन, वचन, काया से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना, बड़े लोगों का सम्मान और सत्कार करना, दूसरे लोगों के साथ शिष्ट व्यवहार करना शिष्टाचार कहलाता है। आजका युग प्रतिस्पर्धा का युग है। आगे बढ़ने के लिए होड़ मची हुई है। लोग उचित या अनुचित साधनों को अपनाकर आगे बढ़ना चाहते है। जो लोग अनुचित मार्ग को अपनाकर आगे बढ़ना चाहते हैं उनका यह कार्य ठीक नहीं है। शुद्ध साधन से ही शुद्ध साध्य की प्राप्ति हो सकती है। मानव में जब तक वाणी का संयम नहीं रहेगा तब तक वह आगे नहीं बढ़ सकता। कबीरदासजी ने लिखा हैं- 

ऐसी  वाणी  बोलिये  मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय।।

अर्थात् व्यक्ति को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जो दूसरों को सुख दें और स्वयं को भी अच्छी लगें। सत्य कटु होता हैं। प्रायः संसार में यह देखा जाता हैं कि लोग अपने बड़े लोगों को प्रसन्न रखने के लिए उनके अनुकूल ही वाणी बोलते हैं। सत्य कथन करने की शक्ति सबमें नहीं होती। सत्य वही बोलता है जो निष्पक्ष होता है। सचीव, मित्र और वैद्य को सदैव सत्य बोलना चाहिए। सचीव का कार्य होता है कि वे अपने मंत्री को सत्यवात से अवगत करावें। निर्णय लेना और न लेना मंत्री का कार्य होता है। मित्र को अपने मित्र से सदैव सत्यवात कहनी चाहिए। मित्र को धोखा कभी नहीं देना चाहिए। इसी प्रकार वैद्य को चाहिए कि वह रोगी को सत्य से अवगत कराये। दवा कड़वी हो या मीठी रुचि के अनुसार रोगी को न दे, बल्कि जो रोगी के रोग को दूर कर सके ऐसी दवा देनी चाहिए। गुरु का भी यह कर्त्तव्य हैं कि वह शिष्य को सत्य उपदेश दें। सन्मार्ग पर लाना, उसका जीवन निर्माण करना गुरु का कर्त्तव्य है। शिष्य का कर्त्तव्य हैं शिष्टाचार पूर्वक गुरु के दिखलाये हुए मार्ग पर चलना। शिष्य गुरु का यदि अनुकरण करता हैं तो उसका जीवन निर्माण होता है। शिष्टाचार एक बहुत बड़ा गुण है। 

अशिष्ट आचरण लोगों में असंतोष पैदा करता है। असंतोष समाज और राष्ट्र को खोखला कर देता हैं। बड़े लोगों के साथ, महापुरुषों के साथ सदैव शिष्ट व्यवहार करना चाहिए। वाणी का संयम सबसे बड़ा संयम है। वाणी से ही कोई पूजनीय बनता हैं और कोई अपूजनीय। इसलिए हृदय की तराजू पर तौलकर वाणी को मुख से बाहर निकालना चाहिए। समाज में वाणी का ही मूल्यांकन होता है, मनुष्य का नहीं। महापुरुषों के वचन को जीवन में धारण करना चाहिए। शिष्टाचार जीवन का दर्पण है। शिष्टाचार के माध्यम से ही मानव के व्यक्तित्व का विकास होता है। अच्छा या बुरा, दूसरों पर कैसा प्रभाव पड़ता हैं, यह हमारें उस व्यवहार पर निर्भर करता है जो हम दूसरों के साथ करते है। शिष्ट व्यवहार का दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। दूसरों को सद्भावना आत्मीयता और सहयोग की प्राप्ति होती है। 

इसके विपरीत अशिष्ट व्यवहार दूसरों में द्वेष पैदा करता है। अशिष्ट व्यवहार से अपने भी पराये बन जाते है। अशिष्टता का अभिशाप व्यक्तित्व के विकास की सबसे बड़ी बाधा है। शिष्टाचार व्यवहार की वह रीति-नीति हैं जिसमें व्यक्ति और समाज की आन्तरिक सभ्यता और संस्कृति के दर्शन होते है। शिष्टाचार से व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन हो जाता है। परस्पर बातचीत, सम्बोधन से लेकर दूसरों की सेवा, त्याग, आदर, सत्कार ये सब शिष्टाचार के अन्तर्गत आते है। शिष्टाचार मानव के आचरण का नैतिक मापदण्ड है। शिष्टाचार का क्षेत्र उतना ही व्यापक है जितना हमारे जीवन व्यवहार का। समाज में जहां-जहां भी हमारा दूसरे व्यक्ति से सम्पर्क होता है वहीं शिष्टाचार की आवश्यकता पड़ती है। 

परिवार के छोटे से लेकर बड़े सदस्यों के साथ सभी जगह शिष्टाचार की आवश्यकता पड़ती है। हमारा सम्पूर्ण जीवन, कार्य, व्यापार, मिलना-जुलना सभी में शिष्ट व्यवहार की आवश्यकता पड़ती है। समाज में हर वर्ग में शिष्टाचार होना चाहिए। विद्यार्थियों के लिए शिष्टाचार की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है। परीक्षा पास करने के बाद जब विद्यार्थी साक्षात्कार के लिए जाता हैं तो उसके व्यवहार का मूल्यांकन होता है। यदि विद्यार्थी विनम्र और शिष्टाचार युक्त हैं तो निश्चित ही है उसको सफलता प्राप्त होती है। शिष्टाचारी, मन-वचन, कर्म से किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। वह दुर्वचन कभी नहीं बोलता और मन से किसी का बुरा नहीं चाहता। 

विनम्रता और मधुरता उसके जीवन का अंग होता है। महाभारत में एक तरफ कौरवों की अशिष्टता का प्रदर्शन हुआ हैं तो दूसरी तरफ पांडवों की शिष्टता का। पांडव अपने शिष्टता के के कारण ही युद्ध में विजयी हुए, क्योंकि जहां शिष्टता रहती हैं वहां ईश्वर का वास रहता है। शिष्टाचार एक ऐसा सद्गुण हैं जिसे अभ्यास और आचरण के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति शिष्टाचारी हो सकता है। बच्चों को परिवार में शिष्टाचार की शिक्षा देनी चाहिए। शिष्टाचार का सम्बन्ध मनुष्य के हृदय से है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)