आरक्षण का राजनीतिकरण
लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
(रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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राष्ट्रीय पुनर्जागरण काल में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में हर वर्ग के लोगों ने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी। हमारे राष्ट्र नायकों ने देश का अपना संविधान बनाया जिसमें राष्ट्र की सुदृढ़ता, राष्ट्रीय एकता तथा बंहुधत्व के लिए समतामय समाज बनाने के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय समस्त देशवासियों को दिलाने का संकल्प लिया। न्याय, समता, बंधुत्व के महान आदर्शो को प्रभावी ढंग से लागू करने, सदियों से चली आ रही भेदभाव समाज व्यवस्था, उंच-नीच तथा छुआछूत समाप्त कर समाज के कमजोर वर्गो को जो सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक एवं राजनैतिक कारणों से उपेक्षित रहे, निषेदों व निर्योग्यताओं के शिकार होने से प्रगति में एवं सरकारी सेवाओं से वंचित हो गये।
संविधान सभा में विरोध के बीच डा. अम्बेडकर को प्रारम्भ में दस वर्ष के लिए राजनैतिक और राज्य सेवाओं में माईनरिटी तक आरक्षण का अधिकार स्वीकार करना पड़ा। एससी, एसटी को जनसंख्या के अनुसार व पिछड़े वर्गो को 50 प्रतिशत में शेष आरक्षण रखा गया। सुप्रिम कोर्ट ने भी 50 प्रतिशत की सीमा निर्धारित की। पिछड़े वर्गो की कोई सूची संविधान के साथ नहीं जोड़ी गई। देश के विभिन्न आयोगों ने स्थानीय राजनैतिक, सामाजिक स्थितियों व परिस्थितियों को देखकर सूचियां बनाई। उच्चतम न्यायालय ने लगातार सूची का परीक्षण व प्रत्येक दस वर्ष मे लिस्टों का रिवीजन किये जाने का निर्णय दिया परन्तु राजनैतिक कारणों से रिवीजन नहीं हो सका। पिछड़ा वर्ग में क्रिमीलेयर (अपवर्जन) का सिद्धांत अपनाया परन्तु राजनैतिक कारणों से उसकी सीमा बढ़ती गई व उच्चतम न्यायालय की अपवर्जन की मंशा समाप्त हो गई।
उच्चतम न्यायालय ने केवल जाति, संपत्ति व आय यानि केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण को अवैध घोषित किया। कहा व्यवसाय व आय का आधार सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति को देखते हुए आधार हो सकता है। आरक्षण सूचियों का रिवीजन के साथ वर्गीकरण भी आवश्यक है जिससे तुलनात्मक दृष्टि से संपन्न ही आरक्षण का लाभ नहीं उठाये परन्तु सामाजिक बदलाव का यह टूल विकृत हो गया। आयोगों के नई-नई जातियां जोड़ने से अत्यधिक पिछड़ों का अधिकार समाप्त हो गया। राज्यों की सूची में 80-90 तक जातियां हो गई जिनकी जनसंख्या 55-60 प्रतिशत तक हो गई।
भारत सरकार ने जातिगत जनगणना कराने से इंकार कर दिया। प्रथम जातिगत आरक्षण का विरोध किया, पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने में लम्बा विवाद रहा। अब राजनैतिक कारणों से पिछड़े वर्गो में नये नाम जोड़े जा रहे है। पिछड़े वर्गो में आज आजादी के पचहतर साल बाद, एससी में एसटी में नाम जोड़े जा रहे है। बगैर किसी कारण नये अनुसूचित जाति, जनजातियों के नाम जोड़कर सूचियो को लम्बा किया जा रहा है। जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे है, योग्यता के विरूद्ध करार कर रहे है, देश से युवाओं के पलायन, निराशा व मानसिक तनाव के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे थे, 90 प्रतिशत अंकों के विरूद्ध 30 अंकों को प्राथमिकता व अवसर के जुमले बढ़ रहे थे, प्रशासनिक गिरावट के लिए जिम्मेदार मान रहे थे उन्हीं लोगों ने आरक्षित सूचियों में नाम जोड़ने के साथ-साथ पूर्ण रूप से सुप्रिम कोर्ट द्वारा अवैध ठहराये गये आरक्षण, संपत्ति व आय के आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण कर दिया।
संसद में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संविधान संशोधन सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के लिए पेश किया था। स्पष्ट कहा था आर्थिक शब्द नहीं जोड़ा जाना चाहिए। छुआछूत, गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक निषेधों व निर्योग्यताओ एवं सामाजिक जुल्मों के शिकार जिन अनुसूचित जाति, जनजाति के लोगों ने हिन्दु धर्म छोड़कर ईसाई या मुस्लिम धर्म ग्रहण कर लिया था उनके साथ छुआछूत व निर्योग्यतायें समाप्त हो गई थी। ऐसे परिवारों और कुटुम्बों के साथ सामाजिक असमानता समाप्त हो गई थी, अब राजनैतिक कारणों से उन्हें भी एससी, एसटी में जोड़ा जा रहा है। आरक्षित वर्गो की संख्या व जनसंख्या में वृद्धि होगी। एससी, एसटी का आरक्षण बढ़ने से जनसंख्या व उनके आरक्षण प्रतिशत पर प्रभाव पड़ेगा, आज भी वे 16 प्रतिशत के बजाय 17 प्रतिशत व 12 प्रतिशत के बजाय 13 प्रतिशत की मांग कर रहे है। पिछड़ा वर्ग आरक्षण कम हो गया, यह सिलसिला रूकेगा नहीं। यदि राजनैतिक आधार पर नाम जोड़कर आरक्षण प्रदान करने का काम नहीं रोका गया तो शत प्रतिशत, जातिगत जनगणना के अनुसार आरक्षण की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।
उच्चतम न्यायालय देश में सामाजिक न्याय के मुद्दे पर बहुत कुछ करने व सही रास्ता दिखाने के कार्य कर चुका है। राजनैतिक दबाबों से हटकर स्पष्ट निर्णय होना चाहिए जिनके पास लैण्ड, लर्निंग व पावर है उन्हें आरक्षण नहीं मिलेगा, जो वर्ग आरक्षण का लाभ प्राप्त कर शिक्षित, आर्थिक रूप से समृद्ध व पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त कर चुके है उनके नाम सूचियों से विलोपित किये जाये। जनगणना हो, सूचियों का रिवीजन हो, क्रिमीलेयर सख्ती से लागू हो व वर्गीकरण लागू हो और केवल आर्थिक आधार कर आरक्षण पर पुर्नविचार किया जाये। आरक्षण अपने उद्देश्य से भटक गया है। हितकर भेदभाव की जगह शक्तिशाली समृद्ध का हथियार बन रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)