जयप्रकाश नारायण का ‘‘जनता समाजवाद’’

जन्मदिवस पर विशेष 

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस.अधकारी है)

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बीसवीं सदी के प्रारम्भ में राष्ट्रवादियों का एक प्रमुख समूह लोगों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक उत्थान के लिए राष्ट्रीय रंगमंच पर आया जिसने लोगों में एक सामाजिक चेतना पैदा की और राजनैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। इनमें लाला लाजपत राय, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, पंड़ित जवाहर लाल नेहरू, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्द्धन आदि प्रमुख थे। इनमें पंड़ित नेहरू व जय प्रकाश नारायण मार्क्सवादी विचारधारा और उसकी उपलब्धियों से प्रभावित थे। जय प्रकाश इस विचार से सहमत थे कि ‘‘संपत्ती की सामूहिकवादी धारणा में आदमी सदैव के लिए व्यक्तिविहिन सामूहिकतावादी बन जाता है।’’ मार्क्सवाद में वैयतिक स्वतंत्रता पर विचार नहीं किया गया है इसलिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रभावित होने के बावजूद जय प्रकाश नारायण ने शांतमय सामाजिक परिवर्तन के लिए जनतंत्र में विश्वास और हिंसा के प्रति विरोध रखा और मानवाधिकारों की पवित्रता के सम्मान को स्वीकार किया। 

जय प्रकाश नारायण चाहते थे कि भारत में समाजवादी आन्दोलन मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर समाज में स्वयं चिंतनवादी दृष्टिकोण विकसित करें। उन्होंने समाजवाद के प्रति इस बुनियादी अंतर को सामने रखा। जय प्रकाश नारायण लौकिकवादी व धर्म निरपेक्षवादी थे। उन्होंने राष्ट्रवाद को मानव उत्थान की विचारधारा के रूप में स्वीकार किया। जय प्रकाश नारायण की मानव की स्वतंत्रता में अटूट आस्था थी। सामाजिक एवं राजनैतिक अधिकारों के प्रमुख वक्ता थे। देश में जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था चाहते थे। उनकी सोच थी कि जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था से सामान्य लोगों का आर्थिक कल्याण किया जाये ‘‘एक ऐसे समाज का निर्माण किया जाये जिसमें अवसर की समानता हो।’’ उन्होंने विषमताओं के उन्मूलन पर बल दिया। उन्होंने शिक्षा को वैयतिक प्रगति एवं समाज के पुनर्निर्माण का प्रभावशाली माध्यम माना। उनके अनुसार राजनैतिक समानता का अर्थ है ‘‘राजनैतिक सत्ता का अधिक से अधिक विस्तार।’’ 

जय प्रकाश ने अपने आपको पक्का समाजवादी कहा क्योंकि उन्होंने समाजवादी विचारधारा पर कार्य किया था व गरीब जनता के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने वर्ष 1954 में सक्रिय राजनीति का परित्याग किया और सर्वोदय समाज के जीवन पर्यन्त सदस्य बन गयें उनका समाजवाद गांधीवादी सर्वोदय बन गया। उनके अनुसार समाजवाद की स्थापना में राज्य शक्ति के उपयोग की अपेक्षा लोगों को अपनी इच्छा के द्वारा स्वयं समाजवाद को जीवन में अपनाने को प्रेरित करना चाहिए। राज्य समाजवाद की अपेक्षा जनता समाजवाद की स्थापना करनी चाहिए। सर्वोदय जनता का ही समाजवाद है। समाजवाद में सामाजिक, आर्थिक पुनर्निर्माण को सीधे रूप में स्वीकार किया। उन्होंने समाजवाद को भारतीय संस्कृति के साथ जोड़ने का प्रयास किया। 

उनके अनुसार भारतीय संस्कृति का सार एक दूसरे के हितों की सहभागिता व सहकारिता की भावना है और यही भारतीय परिस्थितियों में समाजवाद का आधार होना चाहिए। सर्वोदय समाजवाद पर उन्होने अपने संगठन के माध्यम पर बल दिया और कहा कि सभी ग्राम स्वपोषित व आत्मनिर्भर इकाई होने चाहिए। भूमि के उपर सीधा स्वामित्व उसी जोतने वाले का हो। सभी कृषि संबंधी ऋणों का अंत, छोटी-छोटी भूमियों का एकीकरण, सहकारी समितियों की स्थापना, बाजार व्यवस्था द्वारा सहकारी लघु उद्योगों का प्रसार। उनके अनुसार सहकारी व्यवस्था ही सुगमता से कृषि एवं उद्योगों में आर्थिक संतुलन ला सकती है। 

उन्होंने साम्यवाद से सीधा संबंध रखने से इंकार किया। वे मार्क्सवाद के साथ गांधीवाद के प्रबल समर्थक थे और इसलिए समाजवादी विचारधारा में अहिंसा व प्रेम को रखना चाहते थे। समाजवाद के पुनर्निर्माण की भूमिका में वे गांधीवाद के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने घोषणा की थी कि समाजवाद में गांधीवाद की अपेक्षा जोखिम अधिक है। जय प्रकाश गांधीवादी आध्यात्मवाद के कट्टर प्रेरक बन गये। उन्होंने महसूस किया कि सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण कार्य भौतिकवादी दर्शन की छत्रछाया में सफल नहीं हो सकता। उन्होंने गांधीवाद को इसलिए स्वीकार किया कि निर्धारित लक्ष्य गांधीवादी मार्ग के द्वारा ही आसानी से प्राप्त कर सकते है। गांधीवादी सर्वोदय मार्ग पर चलकर उन्होंने समाजवादी विचारधारा का परित्याग कर दिया। वे राज्य विहीनता की पद्धति से प्रभावित हुए। ग्रामोत्थान एवं बिनोभा का भू-दान आन्दोलन उनका लक्ष्य बन गया। जय प्रकाश का समाजवाद सत्ता के विकेन्द्रीयकरण पर निहीत था। 

गांधीवादी समाजवाद का लक्ष्य अहिंसा से गांधीवादी समाजवाद की स्थापना है जिसकी मूल इकाई आत्मनिर्भर गांव हो जहां जनता की सत्ता व प्रशासन हो। वे केन्द्रीय अर्थ व्यवस्था के विरोधी थे। उनके अनुसार केन्द्रीयकरण एक व्यवस्था के रूप में सामाजिक अहिंसात्मक ढांचे के प्रतिकूल है। यद्यपि सर्वोदय समाज का लक्ष्य सत्य और अहिंसा के आधार पर एक ऐसे वर्ग विहीन व जाति विहीन समाज की स्थापना है जिसमें किसी वर्ग का शोषण न हो लेकिन सर्वदलीय समाज राज्य विहीन समाज की परिकल्पना पर आधारित है। जय प्रकाश का सर्वदलीय समाजवाद एक ऐसे राज्य की कल्पना करता है जो आत्मनिर्भर हो, जहां प्रत्येक नागरिक का अपने स्वयं का शासन हो। उन्होंने उसे विकेन्द्रित आत्मनिर्भर राज्य की संज्ञा दी। 

उनके अनुसार प्रशासन की मूल इकाई ग्राम ही होनी चाहिए जो सामाजिक जीवन संबंधी सभी बातों को प्रभावी ढंग से स्वीकार करें ताकि नागरिक सुविधाओं के लिए केन्द्र की ओर मुह न तांकना पड़े। वे ऐसे समाज की कल्पना करते है जिसमें सभी उत्पादन करें और कभी दूसरों पर आश्रित बनकर नहीं रहे। उन्होंने इसे निर्दलीय जनतंत्र की संज्ञा बताया। सर्वोदय राजतंत्र के विरू़़द्ध है। सर्वोदयवादी समाज ने राज्य को लोगों के कल्याण के माध्यम के रूप में कतई नहीं चाहा। वे चाहते थे कि लोग पारस्परिक सहयोग के आधार पर दलगत राजनीति का परित्याग करें। वे चाहते थे ‘‘जाति विहीन समाज में दलविहीन संस्था के कारण ग्राम में स्वयं की सरकार की स्थापना।’’ वर्ण व्यवस्था के संबंध में उन्होंने कहा कि सामाजिक व्यवस्था आज इतनी भ्रष्ट एवं विकृत कर दी गई है कि आज उसकी रक्षा करना बहुत बड़ा काम है। उन्होंने हर प्रकार के अतिवाद की निंदा की। उनका विश्वास था कि अल्पतम सरकार द्वारा भौतिक हितों की समस्त बुराईयों को समाप्त किया जा सकता है। 

इस प्रकार जय प्रकाश नारायण गांधीवादी आध्यात्मवाद के कट्टर प्रचारक बन गये। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘‘भारत में आर्थिक पुनर्निर्माण कार्य भौतिकवादी सोच की छत्रछाया में सफल नहीं हो सकता।’’ जय प्रकाश नारायण ने गांधीवाद को यह कहते हुए स्वीकार किया था कि स्वराज एवं समानता के लक्ष्य को गांधीवादी मार्ग द्वारा आसानी से प्राप्त कर सकते है। वे सत्ता के केन्द्रीयकरण के पूर्णतः खिलाफ थे। उनके अनुसार आधुनिक विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया कि मानव में स्वतंत्रता प्राप्ति की आकांक्षा है और उसने विवेक व नैतिक भावना के माध्यम से प्राकृतिक व स्वाभाविक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)