बाजारवाद ने परिवारों को बिखेर कर किया बुजुर्गों को हाशिये पर

वरिष्ठ नागरिक दिवस के अवसर पर विशेष 

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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आचार्य चाणक्य ने कहा है ‘‘वह जो अपने प्रियजनों से अत्यधिक जुड़ा हुआ है, उसे चिन्ता, भय का सामना करना पड़ता है क्योंकि सभी दुःखों की जड़ लगाव है इसलिए खुश रहने के लिए लगाव छोड़ दीजिए, सन्यास अवस्था में रहने का प्रयास करना चाहिए। 

आजकल कोरोना-19 महामारी के दौर में लगातार चेतावनी दी जा रही है, 65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति घरों में रहे, बाहर नहीं निकले, उनका विशेष ख्याल रखा जाय। सोशियल डिस्टेंसिंग के साथ उनकी सेहत, दवाओं का ध्यान रखा जाय। कोरोना की चपेट में आने के पश्चात सबसे ज्यादा खतरा बुजुर्गो को होता है क्योंकि वे किसी न किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित होते हैं। जिन बुजुर्गो के दमा-अस्थमा, डाईबिटीज, हाई ब्लडप्रेसर, हृदय, किडनी आदि की बीमारी है उनकी ‘‘फेटलीटी रेट’’ ज्यादा होती है। अब तक प्राप्त मृतक आंकड़ों में 60 प्रतिशत से ज्यादा 65 साल की उम्र से अधिक के बुजुर्ग है। इसलिए हर ओर से उनकी विशेष देखरेख की आवाजें आ रही है। 

सबसे प्रमुख बात यह है कि आपाधापी के इस जीवन में परिवारों में बर्दास्त करने की क्षमता खत्म होती जा रही है। रिश्तों के प्रति जिम्मेदारी का भाव कम होता जा रहा है। तमाम सुविधाएं जुटाने के बाद भी बुजुर्ग असहाय व असुरक्षित महसूस करते है। पारिवारिक रिश्तों में आ रही गिरावट का सबसे बडा कारण भौतिकात्मवादी बनना है। अपेक्षायें बढ़ती जा रही है, आय का साधन सीमित है। स्वयं की देखभाल में, माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी का भाव कम होने लगता है। दुनिया के दूसरे देशों में बुजुर्गो की इस प्रकार की उपेक्षा इसलिए नहीं होती क्योंकि वहां सरकारें स्वयं उनकी जिम्मेदारी लेती है। ओल्ड ऐज पेंशन, हैल्थ इंश्योरेंश की सुविधा से दैनिक आवश्यकताओं एवं स्वास्थ्य की चिंता नहीं रहती। 

मां-बाप को भी आधुनिकता और पैसों की दौड़ में व्यस्त होकर भेदभाव की दुनिया से अपनी संतानों को दूर रखना चाहिए व कुरीतियों के सामने नहीं झुकना चाहिए। बच्चों के भविष्य निर्माण के लिए अपना समय ईमानदारी से देना चाहिए। भारतीय संस्कृति में वृद्धों को सदैव उच्च स्थान दिया गया है। भारतीय संस्कृति में बुजुर्गो का सम्मान करने का भाव कायम है परन्तु अब बदली सामाजिक, आर्थिक स्थितियों में उदासीनता का भाव नजर आता है। बुजुर्ग प्यार व सुरक्षा की उम्मीद करते हैं, तिरस्कार का सामना उनको कष्टप्रद महसूस होता है। बुजुर्गो को अपना अहम हिस्सा समझते हुए उनके साथ प्यार व इज्जत से पेश आना आवश्यक है। 

वृद्धों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं निरन्तर बढ़ रही है इसलिए उनकी निर्भरता सन्तानों पर बढ़ती जा रही है। वृद्ध व्यक्ति शारीरिक रूप से तो अक्षम होते ही है उनमें वृद्धावस्था से मनोवैज्ञानिक परिवर्तन भी होते हैं। एकाकी एवं आत्मकेन्द्रीत युवाओं को उनके दिशा निर्देश व टोकाटाकी पसन्द नहीं आती व दूरिया बढ़ती जाती है। बुजुर्ग अपने अनुभव की अवहेलना देखकर कुण्डाग्रस्त हो जाते है। 

बाजारवाद ने परिवार को बिखेरा, संस्कार छूट गये। वर्तमान बाजार की अर्थनीति ने परिवार संस्था को तोड़ दिया, संस्कार ढीले पड़ गये, माता-पिता को बोझ समझा जाने लगा। संस्कारहीनता के कारण वृद्ध माता-पिता को अकेला छोड़ा जाने लगा अथवा वृद्धाश्रम भेजा जाने लगा। विकास की भागदौड़, बड़ा बनने व अमीर बनने की चाह में युवा अकेलापन चाहता है। वृद्ध सामाजिक सुरक्षा के अभाव में कई विकट समस्याओं का सामना करते है। उन्हें भावात्मक, शारीरिक और वित्तीय सहारे की कमी का सामना करना पड़ता है। भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर अपना अधिकार व सम्मान चाहते है परन्तु भूल जाते है कि वे वानप्रस्थ आयु को पार कर सन्यास की ओर अग्रसर हो गये है और उन्हें उसी के अनुरूप रहना है। एक सामाजिक परिवेश बनाने की आवश्यकता है जो वृद्ध लोगों की भावनात्मक जरूरतों के लिए सहायक एवं संवेदनशील हो। 

आधुनिकता के दौर में बुजुर्गो की अनदेखी के मामले तेजी से बढ़ रहे है। युवकों के वर्तमान समय में बुजुर्ग हाशिये पर आ गये है। बदलते सामाजिक परिवेश और पारिवारिक संरचना ने बुजुर्गो की जिन्दगी को कठिन बना दिया है। बढ़ते औद्योगिकरण, उदार व्यवस्था, पश्चिमी सभ्यता व जीवनशैली ने हमारी संस्कृति में सेंध लगा दी है। संयुक्त परिवार टूट रहे है, रिश्ते टूट रहे है। बुजुर्ग मार्गदर्शन करना चाहते है, युवक समझते है जमाना बदल गया है। समाज आज जिस तेजी से बदल रहा है, शिक्षा व संस्कारों में बदलाव आ रहा है उसमें बुजुर्ग अपनी स्थिति को समझकर बदलने को तैयार नहीं है, यह भी एक बड़ी कठिनाई है। 

2050 तक भारत की जनसंख्या में बुजुर्गो की हिस्सेदारी बढ़ेगी और लगभग 32.4 करोड़ हो जायेगी। आर्थिक कारणों से 60 वर्ष के बुजुर्गो में 40 प्रतिशत कामकाज करने को बाध्य है। बदजुबानी, अनादर व लापरवाही तीन मुख्य आरोप है। बुजुर्ग यह भूल जाते है कि जो संस्कृति हमें विरासत में मिली है उसे हमने विखंडित कर दिया, भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित नहीं किया। अब यह जमाना बाजार का है, बाजार हमें बताने-सिखाने लगा है कि हमारी विरासतें कैसी हो। वृद्धों का अपमान, संस्कारहीनता और भटकती युवा पीढ़ी की समस्या का यही समाधान है कि संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर बल दिया जाय। गृहणी व बालसंगोपन का महत्वपूर्ण स्थान हो, उन्हें सामाजिक सुरक्षा मिलें। अत्याचार के मामलों में तुरन्त न्यायिक कार्यवाही हो। वृद्धजनों को समय के अनुसार अपनी भावनाएं व आदतों को बदलना होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)