गाँधी जयंती पर विशेष
लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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महात्मा गाँधी ने पूरा जीवन देश की सेवा में लगाया। आजादी के संघर्ष में कांग्रेस में नरम और गरम, दोनों तरह के नेता थे। लेकिन वे सभी गाँधी को ही अपना नेता और मार्गदर्शक समझते थे। सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह में उनका पूर्ण विश्वास था। साम्प्रदायिक एकता एवं सद्भाव उनकी ताकत थी।
1918 में अहमदाबाद में मिल मालिकों और मजदूरों के बीच महंगाई भते की दर को लेकर विवाद हुआ था। महात्मा गाँधी ने उन्हें हड़ताल करते रहने की सलाह दी और तब-तक हड़ताल करते रहने की प्रतिज्ञा दिलवाई जब तक उनकी मांग पूरी नहीं हो जाती है। इस पर कई लोगों ने गाँधी पर हड़ताल के लिए दबाव बनाने का आरोप भी लगाया। लेकिन जब इनकी हड़ताल पूरी हुई तो सबने मजदूरों की मांगो को जायज ठहराया गया। तब से आज तक मालिकों और मजदूरों के बीच विवादों के हल के लिए हड़ताल एक माध्यम बनी हुई है। इससे लोकतंत्र को भी मजबूती मिलती है।
देश में 1922 के बाद जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। इस पर कई लोग उन्हें यंत्र विरोधी कहने लगे। महात्मा का कहना था कि हमारा शरीर भी एक जटिल मशीन है, क्या मैं इसका विरोध कर सकता हूं ? उन्होंने स्वयं कपड़ा तैयार कर उसका इस्तेमाल करने की सलाह दी और चरखे के पक्ष में तर्क पेश किया कि इससे करोड़ों लोगों को आजीविका मिलेगी।
वर्ष 1931 में भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे क्रांतिकारी नेताओं को अंग्रेज सरकार द्वारा फांसी दी गई। फांसी रूकवाने के लिए गाँधी तत्कालीन वाइसराय लार्ड इरविन से चार-पांच बार मिले और उन्हें पत्र भी लिखा लेकिन उन्होंने गाँधी जी की नहीं सुनी। आज कई लोग आरोप लगाते है कि गाँधी ने भगतसिंह और उनके साथियों की फांसी नहीं रोकी। प्रतिक्रियावादियों का यह मिथ्या प्रचार है। अंग्रेजों की दमनकारी नीति के खिलाफ कांग्रेस के गरम दल के नेता कुर्बान होने के लिए तैयार थे। गाँधी जी का कहना था कि हिंसक प्रवृति पर विश्वास रखने वाले लोगों की कुर्बानी भी बहादुरी है लेकिन स्वयं हिंसा के रास्ते पर नहीं गए।
1932 में दलितों के लिए जब अंग्रेज सरकार मतदाता मंडल की व्यवस्था कर रही थी, तो गाँधी ने इसके खिलाफ उपवास किया। वह चाहते थे कि समाज में छुआछूत जैसी बीमारी को दूर करना चाहिए। उन्होंने अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों को अपने घर पर रखा। यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका से भारत आने पर उन्होंने साबरमति के किनारे आश्रम स्थापित किया, तो उन्होंने एक दलित परिवार को आश्रम में बसाया। इस वजह से उनके आश्रम को मिलने वाली मदद भी बंद की गई थी। गाँधी जी ने अस्पृश्यता के खिलाफ आमरण अनशन के द्वारा जागृति लाए। इसके कारण देश में सैकड़ों मंदिरों में दलितों का प्रवेश कराया गया। इसके साथ ही सार्वजनिक कुएं भी दलितों को सुलभ हो पाए थे।
महात्मा गाँधी जन्म आधारित जातिवाद के खिलाफ थे। अस्पृश्यता को समाप्त करने में उनका प्रमुख योगदान है। अम्बेडकर की पृथकतावादि सोच के खिलाफ थे। अम्बेडकर को संविधान सभा में प्राइम समिति का अध्यक्ष महात्मा गाँधी के निर्देश पर बनाया, महात्मा गाँधी के गहने पर उन्हें कानून मंत्री बनाया गया। भारत के सामाजिक आधार पर विघटन के खिलाफ थे। हिन्दु थे परन्तु उनका हिन्दुत्व स्वतंत्रता, समानता, सभी धर्मो के प्रति आदर भावना पर आधारित था।
सुभाष चन्द्र बोस को भी गाँधी ने अहिंसात्मक आन्दोलन की सलाह दी थी एवं कहा था कि वह जिस रास्ते पर चल रहे है, यदि उससे आजादी मिल सकती है, तो बधाई का सबसे पहला तार मैं भेजूंगा। महायुद्ध के दौरान सुभाष बाबू की मौत की खबर सुनते ही गाँधी जी बहुत दुखी हुए। दोनों के बीच जो भी मतभेद रहे हो परन्तु सुभाष बोस गाँधी का राष्ट्रीय एकता व उत्थान में अपरिहार्यता व आवश्यक योगदान मानते थे। गाँधी को राष्ट्रपिता कहने वाले भी सुभाष चन्द्र बोस ही थे।
15 अगस्त 1947 को जब दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, तो देश के कई स्थानों पर लोग विभाजन का दर्द झेल रहे थे। महात्मा गाँधी दिल्ली में जश्न मनाने के स्थान पर बंगाल की गलियों में घूम-घूमकर शांति कायम करने का काम कर रहे थे। लंबे संघर्ष के चलते जब 1947 में आजादी मिली, तो गाँधी का सपना था कि यदि वह 125 वर्ष तक जिंदा रहे, तो वह भारत के गांव को आजादी का आभास करा देंगे। गाँधी का यह सपना 30 जनवरी, 1948 के बाद साकार नहीं पूर्ण रूप से साकार नहीं हुआ, पर तब से सत्य, अहिंसा का उनका विचार पूरी दुनिया में बहुत तेजी से फैला। गाँधी के विचार और दर्शन की तरफ दुनिया का झुकाव बढ़ा है। उन्होंने हमेशा अंतिम व्यक्ति की चिन्ता को सबसे ऊपर रखा।
महात्मा गाँधी ने अपने आन्दोलनों में धर्म की विशेष भूमिका को स्वीकार किया था तथा धर्म और राजनीति का राष्ट्रीय आन्दोलनों में मिश्रण किया था। गाँधी ने यद्यपि कहा कि ‘‘धर्म सामाजिक एकता का एक प्रभावशाली माध्यम है’’। उन्होंने राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अपनाया और इसे भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने और हिन्दु धर्म की रक्षा करने हेतु आवश्यक समझा। उनके इस विचार से सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद भी सहमत थे। परन्तु गाँधी ने हिन्दु-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। गाँधी ने एक वैष्णव के रूप में हिन्दु-मुस्लिम एकता को बहुत खूबी से रखा। परन्तु सुधारवादियों में चाहे वे हिन्दु हो या मुसलमान, रूढ़ीवादी दृष्टिकोण पनपा और सांप्रदायिक हिंसा व घृणा का वातावरण फैल गया।
मोतीलाल नेहरू, आचार्य नरेन्द्र देव, डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, डा. भीमराव अम्बेडकर आदि ने सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के प्रति धर्म निरपेक्षता के दृष्टिकोण को अपनाया। उनके अनुसार धर्म पृथकतावाद का सबसे बड़ा प्रेरक था। सुभाष चन्द्र बोस क्रांतिकारी थे लेकिन धार्मिक तथा सामाजिक सुधारवादी नहीं थे। उन्होंने धर्म को राजनीति के साथ नहीं जोड़ा। मौलाना आजाद मुस्लिम सांप्रदायवाद, मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना के दुराग्रह के विरोधी थे।
प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायवादी शक्तियों के कारण सामाजिक अलगाववाद, राजनैतिक विघटन का वातावरण पैदा हो गया था। मानववाद, समाजवाद, धर्म निरपेक्षता सैद्धांतिक दृष्टि से बना रहा परन्तु वह कमजोर पड़ गया। समंवयात्मक सार्वभौमवाद व राष्ट्रवाद व्यवहारिक एवं आधारभूत दृष्टिकोण में कमजोर पड़ गये। पं. नेहरू धर्म निरपेक्षवादी धारणा के प्रमुख समर्थक थे। डा. अम्बेडकर भी राष्ट्रवाद व अतिवाद से सहमत नहीं थे। पं. नेहरू रविन्द्र नाथ टैगोर की तरह आध्यात्मिक नहीं थे परन्तु मानव की स्वतंत्रता में उनकी अटूट आस्था थी। वे धर्म के विरोधी नहीं थे परन्तु अन्य लोगों के प्रति घृणा के समर्थक नहीं थे। उस काल में नेहरू व अम्बेडकर मानववाद स्वतंत्रता, समानता, प्रेम, मित्रता, सहयोग और सहानुभूति का आदर्श एवं शांतिमय पद्धति का प्रेरणा स्रोत बने।
भारतीय मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलीस, जमायते उल, जमायते ए हिन्द आदि का गठन हुआ, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी सांप्रदायवादी बने रहे। पृथकतावादी राजनीति एवं धर्मान्धता ने इनको और अधिक कट्टर बना दिया। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)