नई शिक्षा नीति में आखिर क्या है : डा. सत्यनारायण सिंह

शिक्षक दिवस पर विशेष 

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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प्रथम शिक्षा नीति 1986 में कोठ्यारी आयोग की संस्तुति थी जिसे 1992 में अपडेट किया गया। टी.एस.आर. सुब्रमण्यम समिति 2015 की रिपोर्ट आगे नहीं बढ़ सकी। डा.कस्तुरी रंजन समिति की रिपोर्ट 2019 की नई शिक्षा नीति को केन्द्रीय सरकार ने स्वीकृति दे दी। 

केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय जिसे राजीव गांधी ने निर्मित किया था, शिक्षा मंत्रालय कर दिया। नई पालिसी स्कूल से कालेज स्तर तक शिक्षा में कई बदलाव लायेगी। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत खर्च होगा, अभी 4.43 प्रतिशत था परन्तु 3 प्रतिशत से कम व्यय हुआ है। पांचवी तक कि शिक्षा मातृभाषा में होगी। पाठ्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित किये जायेंगे। वर्चुअल लैब विकसित की जायेंगी और एक राष्ट्रीय शैक्षिक टैक्नोलाजी फोरम (एनईटीएफ) बनाया जायेगा जो उच्च शिक्षा के लिए एक नियामक होगा। चार वर्षीय बहुविषयों प्रोग्राम सहित बैचलर डिग्री पाठ्यक्रमों में वोकेशनल पाठ्यक्रम होंगे। स्नातक तीन या चार साल का होगा। भारत में विकसित व्यवसायिक ज्ञान, व्यवसायिक शिक्षा पाठ्यक्रमों में सुलभ होगी। सन् 2025 तक 50 प्रतिशत शिक्षार्थियों की वोकेशनल एज्यूकेशन तक पहुंच होगी। 

स्कूल पाठ्यक्रम के 10़2 ढांचे के स्थान पर 5़3़3़4 का नया पाठ्यक्रम होगा। स्कूली शिक्षा में 3 से 8 वर्ष के बच्चों का दो भागों में, प्ले स्कूल (आंगनबाडी के 3 साल) प्राथमिक विद्यालय ग्रेड-1 व 2 में दो साल होंगे। ग्रेड 3 से 5 तक 8-11 वर्ष की आयु के बच्चों का प्रारम्भिक स्कूलिंग चरण विज्ञान, गणित, कला, सामाजिक विज्ञान ‘‘ह्यूमैनिटिज’’ पर अधिक जोर होगा। 3 साल की आंगनबाडी/प्री स्कूलिंग ग्रेड 6 से 8 में 11-14 वर्ष के छात्रों को स्कूलिंग लेवल पर एक विषय उन्मूख शैक्षणिक शैली।14-18 वर्ष के बीच सैकण्डरी स्कूलिंग । 3-18 साल तक शिक्षा निःशुल्क होगी, प्री-लैंग्वेज पालिसी अपनाई गई है जिसमें दो भारतीय भाषाएं होंगी। स्कूल से दूर रहे 2 करोड़ बच्चों को मुख्यधारा में लाया जायेगा। स्कूलों को 4 कलस्टर में व्यवस्थित किया जायेगा। एडमिशन के लिए केवल एक एग्जाम, एम.फिल का कोर्स व डिग्री समाप्त, देश में शोध व अनुसंधान को बढ़ावा दिया जायेगा। मल्टीपल एंट्री व एग्जिट सिस्टम लागू होगा। टीचर्स रेटिंग उच्च गुणवत्ता की सामग्री एवं प्रशिक्षण से होगी। विकलांग बच्चों की शिक्षा को बेरियर फ्री बनाया जायेगा। युनिवर्सिटीज में अलग-अलग नियम है, नई पालिसी में सभी के लिए समान नियम होंगे। 

एक राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन नीति तैयार की जायेगी, बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान मिशन की स्थापना होगी। बुनियादी सुविधाओं से वंचित क्षेत्रों व समूहों के लिए बालक-बालिका समावेशी कोष व विशेष शिक्षा जोन की स्थापना होगी। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफेशनल मानक, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा विकसित किया जायेगा। 

आईआईटी, आईआईएम के समकक्ष बहुविषयक शिक्षा व अनुसंधान विद्यालय स्थापित किये जायेंगे। महाविद्यालयों में क्रमिक स्वायत्ता प्रदान की जावेगी, निजी उच्च शिक्षा संस्थानों को प्रोत्साहित किया जायेगा। स्कूली व दूरस्थ शिक्षा इनक्लास कार्यक्रमों के समतुल्य होगी। आललाइन शिक्षा, डिजीटल शिक्षा, भारतीय भाषाओं को बढावा, व्यवसायिक शिक्षा, शिक्षा में प्रोद्योगिकी, वित्त पोषण शिक्षा व सार्वजनिक निवेश को बढावा दिया जायेगा। 

राजनैतिक दलों द्वारा जारी नीतियों में शिक्षा की बेहतरी के लिए बहुत बातें व घोषणाएं होती है परन्तु उन पर पूरी तरह अमल नहीं हो पाता। नागरिकों के बुनियादी अधिकारों में शिक्षा भी शामिल है और बेहतर नागरिक बनाने के लिए शिक्षा ही एकमात्र औजार है। जटिल और अप्रत्याशित समस्याओं के इस दौर में नई पीढ़ी को एक वैश्वीक समाज व वैश्वीक अर्थव्यवस्था में जीवनयापन के लिए सक्षम बनाना सबसे बड़ी चुनौति है। स्कूल व कालेज के ढांचे को परिवर्तनों के अनुरूप बनाया जाना आवश्यक है। 

सरकारें शैक्षणिक संस्थानों से हाथ खींचकर निजी और पीपीपी मोड पर दिये जाने को उतारू हैं।निजी सेक्टर की शिक्षा प्रणाली तक समाज के हर तबके की पहुंच नहीं हो सकती। पाठ्क्रम को औपनिवेशक मानसिकता से मुक्त कर स्थानीय संदर्भो और जरूरत के सापेक्ष बनाना आवश्यक है। जर्जर स्कूलों और कालेजों की हालत सुधारना आवश्यक है। 

भावी पीढ़ी को तैयार करने में लगे हमारे देश के नामचीन विद्यालय अधिकांशतः आजकल क्षेत्रवाद, जातिवाद और राजनीति के भंवरजाल में फंस गये है। कुलपति व फैकल्टी बराबरी, धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक बहुलता को पोषित करने के बजाय चुनावी गतिविधियों में भागीदारी करने लगे हैं। विश्वविद्यालय परिसरों का राजनीतिकरण हो गया है। जब सत्तासीन राजनैतिक दल अपनी विचारधारा या अपनी पसंद के व्यक्ति को कुलपति नियुक्त करें तो स्वाभाविक रूप से माहौल में मनचाहे फैसले होते है। फैकल्टी सदस्य व शिक्षक संगठनों के नेता चुनावों में सक्रियता से भाग लेते हैं जिसका संबंध सत्तारूढ़ दल से होता है, वह दबंगई से पक्षपातपूर्ण कार्य करता है। राजनीति के काम से अध्ययन-अध्यापन से दूर हो जाते है। विश्वविद्यालयों में कुलपति का चयन भी राजनीतिक विचारधारा के आधार पर होने लगा है तो स्वस्थ व शैक्षिक वातावरण लुप्त हो जाता है व गरिमा नहीं रहती, रेग्यूलर पढ़ाई तो होती ही नहीं।

जहां तक स्कूली शिक्षा का सवाल है, स्कूल कैसे बन रहे है, उनमें शिक्षा कैसे दी जा रही है, यह नहीं देखा जा रहा। प्राथमिकता तय करने की तरफ हमारा ध्यान नहीं है, न तो इच्छा है और न ही दृष्टि, न तो पक्का मकान है न फर्नीचर है, न ब्लैक बोर्ड है और न किताबें व बुनियादी सुविधाएं। शिक्षक या तो नदारद रहता है या एक ही शिक्षक सब कक्षाओं को पढ़ाता है। दाखिला लेने वाले 10 बच्चों में पांचवी कक्षा तक 4 बच्चे रह जाते है, बालिका शिक्षा पर जोर नहीं है। प्राथमिक शिक्षा को कानूनीतौर पर अनिवार्य व निःशुल्क किया गया है परन्तु शिक्षा व्यवस्था में विकृत जाति व्यवस्था पनप रही है। 

शहरों व ग्रामीण स्कूलों के बीच जमीन आसमान का फर्क है। दाखिले को बढ़ाने पर ही जोर है, शिक्षक नियमित स्कूल नहीं जाते, कोचिंग सेन्टर्स पर जाते है, विश्वविद्यालयों में 180 दिन भी पढ़ाई नहीं होती। खरपतवार की तरह उगने वाले कुकुरमुत्तों की तरह खुलने वाले निजी विश्वविद्यालय व महाविद्यालय, गैर सरकारी शोधग्रन्थों की मौलिकता को सुनिश्चित करने के लिए कोई फुलफ्रूफ तंत्र नहीं है। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के बजाय डिग्री हथियाने की आतुरता रहती है। 

उच्च शिक्षा में जीवन मूल्यों की अनदेखी से वैज्ञानिक दृष्टिकोण व मानवीय मूल्यों का स्वस्थ समीकरण नहीं हो रहा, सामाजिक सरोकारों से नहीं जोड़ पा रही। शिक्षा अन्य उद्यमों की तरह व्यवसायिक निवेश का क्षेत्र बन गई है। तकनीकि शिक्षा, प्रबन्धकीय शिक्षा, कम्प्यूटर ज्ञान, विधिक शिक्षा के सैकड़ों संस्थान अस्तित्व में आ चुके है। 1994 में विश्व बैंक शिक्षा को अलाभकारी उत्पाद मानता था, 2000 में शिक्षा को मानवीय आवश्यकता मानते हुए राज्य का दायित्व मान लिया परन्तु शिक्षा का निजीकरण किया जा रहा है।

पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकें अच्छे व उपयोगी नागरिक बनाने के लिए है न कि राजनीति दलों की सत्ता लिप्सा की पूर्ति का माध्यम। इनमें राजनीतिक विचारधारा की प्रतिबद्धता हमारे शिक्षा दर्शन, हमारे देश व समाज के लिए अत्यन्त घातक होगा। राजनेता, जनप्रतिनिधि राजनीति की बिसात बिछाकर पाठ्क्रम व पाठ्यपुस्तक के विभिन्न मूल्यांकन करते है,शिक्षा में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक अराजकता का झण्डा फहरा रहा है। सवा अरब की आबादी में बीस-पच्चीस करोड़ वैभवशाली, तीस-पैतीस करोड़ सामान्य, शेष चालीस करोड़ जिन्हें सामान्य खाना नसीब नहीं होता, जिन्हें आर्थिक वृद्धि का लाभ नहीं मिल रहा है। निर्धन, बेरोजगार, दरिद्रता से पीड़ित 40 करोड़ और सरकारी आंकड़ों के अनुसार शिक्षा से 40 करोड़ वंचित, मिलाजुला संदेश क्या है? 

स्कूल छोड़ने के अनेक कारण, घर की हालत ठीक नहीं, मजदूरी करने को लाचार, स्कूल नहीं, स्कूल है तो अध्यापक नहीं, अध्यापक है तो नियमित कक्षा नहीं, कुछ बच्चे घर से चलकर अध्यापक की सेवा में व कुछ घर वापस, स्कूल के रजिस्टर में सब बच्चों के नाम, हाजरी दर्ज, सरकारी आंकड़ों की खानापूर्ति। लकड़ी के फर्नीचर, पोटरी आदि की वोकेशनल शिक्षा से क्या विद्यार्थी सफल नागरिक व वर्तमान आर्थिक दौड़ में बन सकेंगे। एनजीओ पार्टीसिपेशन व निजीकरण के नाम पर, द्विभाषा के नाम पर अंग्रेजी के बजाय दक्षिणपंथी सरकार की शिक्षा व भाषा नीति है, 10़2 की संरचना में अनावश्यक बदलाव है। गैर औपचारिक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए था, इन परिवर्तनों से वास्तविक उपयोग व गुणवत्तायुक्त बदलाव नहीं होने वाला। स्कूलों की हालत सुधारने के संबंध में व पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार व विस्तार के बारे में जोर नहीं है। अल्पसंख्यक स्कूलों को शामिल नहीं किया गया। प्रतिस्पर्धा की दुनिया में निजीकरण व पीपीपी मोड पर जोर है। 

सामाजिक विसंगतियों के कारण आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चों स्कूल नहीं देख पाते। ग्रामीण सरकारी स्कूल में बुनियादी जरूरतों के लिए तरसते हैं, शिक्षकों की कमी रहती है। गुणवत्तायुक्त पूर्ण शिक्षा का अभाव है, निजी स्कूलों के विस्तार से शिक्षा में असमानता बढ़ रही है। 55 हजार से ज्यादा गांवों में इंटरनेट नहीं है, शहरों में भी इंटरनेट की सुविधा 40 फीसदी है, गांवों में केवल 15 फीसदी। आर्थिक हालात में कमजोर तबके के लिए आनलाइन पढ़ाई दुरूह होगी। आंगनबाडियों को प्राइमरी स्कूल, शिक्षा प्री-प्राइमरी स्कूल में तब्दीली भी उपयुक्त नहीं होगी। आंगनबाडी किराये के मकानों में जीर्ण शीर्ण प्राइमरी स्कूलों में एक कमरे या झुग्गी झौपड़ियों में चल रही है। 

कम मानदेय वाली आंगनबाडी कार्यकर्ता प्ले स्कूल के मुकाबले में शिक्षा का स्तर नीचा रहेगा। मातृ भाषा में पढ़े एवं अंग्रेजी माध्यम से पढ़े छात्रों में विषमता होगी, सूचना आधारित डिजीटल लर्निंग सिस्टम ऐसे ग्रामीण स्कूलों में अभी संभव नहीं हो सकेगा।प्रतिभाशाली निर्धन छात्रों को नुकसान, खेलकूद के लिए स्थान नहीं है। सभी को समान शिक्षा मिले, अवसर की समानता हो। हाथ के काम को दिमाग के काम से कम (निचला) दर्जा मिल रहा है, पारम्परिक कलाओं को बढ़ावा देना है तो कम्पलीट कैरियर पाथ बनाना होगा। आईआईटी तरह इंस्टीट्यूट शुरू करने चाहिए, मॉस प्रोड्क्शन में शिक्षा से शिक्षा के स्तर में तेजी से गिरावट आयेगी, केवल संख्यात्मक विकास होगा। फर्जी डिग्रिया, नियामक संस्थायें, भ्रष्टाचार के गढ़, निष्प्रभावी, पंगु एवं असफल,आंतरिक मूल्यांकन में शत प्रतिशत अंक मिलेंगे। 

योग्यता के आधार पर कुलपतियों व शिक्षकों की नियुक्ति हो, राजनैतिक दल व विचारधारा के प्रचारक नहीं हो। शिक्षा को राजनैतिक एंगल से तौड-मरोड़ नहीं किया जाये। शिक्षा योग्यता व समर्पण भाव पर निर्भर होती है। 

भारत में अकादमिक सामाजिकरण ने हमें परमुखापेशी बना दिया है। पश्चिमी चिन्तन होता गया, हम पश्चिमी विचार सारिणी का अनुगमन करते रहे। श्रम, समय, संशोधन, निरूद्देश्य नकल में जाते रहे, मौलिकता व सृजनतात्मकता नहीं रही। निजी क्षेत्र की शिक्षण संस्थाएं अब व्यवसायिक रूप धारण कर चुकी है। भूमि का निःशुल्क व रियायती आवंटन प्राप्त कर देश के नामी विजनेस स्कूल बन गये है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)