करोड़ों बालक-बालिकायें अब भी बुनियादी शिक्षा से वंचित

शिक्षक दिवस पर विशेष : शिक्षा का व्यवसायीकरण

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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बाल विकास के संबंध में यूनिसेफ ने कहा है कि अब पहले के मुकाबले ज्यादा बच्चे स्कूल जा रहे है लेकिन करोड़ों बालक-बालिकायें अब भी बुनियादी शिक्षा से वंचित हैं। स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय नेतृत्व ने न्यूनतम समय में सबको बुनियादी शिक्षा प्रदान करने को सर्वाधिक महत्व दिया था और 10 वर्ष की अवधि इस लक्ष्य को हासिल करने की निर्धारित की गई थी। सन् 1948 में प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने शिक्षा के महत्व को स्वीकारते हुए कहा था कि ‘‘बुनियादी शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है और  बगैर शिक्षा के बतौर नागरिक जिम्मेदारियां नहीं निभा सकता। इस बुनियादी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निर्मित विकास योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही। देश में शत प्रतिशत नामांकन का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाये। 

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘शिक्षा के मूल्यांकन को हम उसी ढंग से नापते है जैसे कि जमीन या शेयर बाजार में जमीनों अथवा शेयरों का मूल्यांकन।’’ हम केवल ऐसी शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं जो कि छात्र को कमाने योग्य बना सके। हम शिक्षा के साथ बच्चों के चरित्र में सुधार के बारे में तो ध्यान से सोचते ही नहीं। लड़कियों के संबंध में हमारा मानना है कि उनको कमाई नहीं करनी होती इसलिए उनको क्यों पढ़ाया जाय। जब तक इस तरह के विचार बने रहेंगे तब तक हम शिक्षा को सच्चा महत्व देने की आशा भी नहीं कर सकते।’’

वर्ष 2018 में विश्वभर में जितने भी अशिक्षित लोग है, उसके आधे भारत में है। कम और घटिया स्तर की शिक्षा प्राप्त करने वालों में ज्यादातर दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक है। इसमें भी लड़कियां सबसे पीछे है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल जाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा संतोषजनक नहीं है। अगर वह विद्यालय जाते भी है, खासतौर पर बालिकायें, वे ज्यादा देर वहां नहीं टिकते। अधिकांश सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की स्थिति बहुत दयनीय है। न तो उचित शाला भवन है और न ही शिक्षक-शिक्षिकायें। शिक्षण संबंधी सामग्री भी ठीक ढंग की नहीं है। अधिकांश शालाओं में लड़कियों के लिए शौचालय भी नहीं है। पेयजल, ब्लेक बोर्ड, कक्षा कक्ष संबंधी सुविधाएं भी आशाजनक नहीं है। जो विद्यार्थी वर्षों की स्कूली शिक्षा पूरी कर लेता है, उसे भी सही अर्थो में शिक्षा नहीं मिलती और वह अर्द्ध शिक्षित ही रहता है। 

देश-प्रदेश में शिक्षा विभाग ऐसे जनप्रतिनिधियों को मिलता है जो शिक्षा के क्षेत्र में अनुसंधान करते रहते है। राजनैतिक आधार पर स्कूल खुलते है तो राजनैतिक आधार पर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति। बच्चों की संख्या में भले ही बढोतरी हो, ज्यादातर गरीब व मजदूर वर्ग के बच्चे बीच में स्कूल छोड़ जाते है और प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते है। जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है, 18-23 वर्ष की आयु के लगभग 10 प्रतिशत ही बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त करते है। 

राष्ट्रीय बुनियादी साक्षरता कार्यक्रम का दीर्धकालीन लक्ष्य भी शिक्षा के सकल घरेलू उत्पाद से बहुत कम प्रतिशत है। भारत को 2020 तक एक विकसित राष्ट्र बनाने की सोच है परन्तु हमारे देश में अभी लगभग 30 करोड़ लोगों को साक्षर बनाने की आवश्यकता है और उसमें भी उनको रोजगार योग्य कौशल प्रदान करना है। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम आजाद ने कहा था कि ‘‘शिक्षा वास्तविक अर्थो में सत्य की खोज है। ज्ञान और प्रकाश की अंतहीन यात्रा है। मानवता के विकास के लिए नये रास्तों को खोलना है। इसलिए हमें समाज के कमजोर वर्गो को के बारे में सर्वप्रथम सोचना है, जो अल्पपोषित है, कुछ ही बच्चे शिक्षा पूर्ण कर पाते है। हमें मानसिक और शारिक रूप से अक्षम बच्चों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। 

सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बड़ी मात्रा में संसाधनों की आवश्यकता है। दूर दराज के गांवों में प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालय खोले गये है। वर्ष 2001 में भारत में साक्षरता दर 65.38 प्रतिशत थी। 1950-1951 में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या लगभग 2.25 लाख थी जो बढ़कर गत वर्षो में 10 लाख के लगभग हो गई। उच्च शिक्षा केन्द्रों की संख्या भी 6.26 से बढ़कर 36 लाख के लगभग हो गई। नामांकन 1950-1951 में लगभग 2 करोड़ था जो अब 100 करोड़ के आसपास है एवं प्राथमिक विद्यालयों में 50 करोड़ हो गई है। 

हमारा राष्ट्रीय परिदृश्य विविधतापूर्ण है। सकल घरेलू उत्पाद आंकड़ों से स्पष्ट नहीं होता है। एक ओर केरल में साक्षरता दर 90 प्रतिशत से अधिक है, प्राथमिक स्तर 103 प्रतिशत है जिसका अर्थ यह हुआ कि प्राथमिक स्तर तक प्रत्येक बच्चा स्कूल जाता है वहीं पर स्कूल भवन व अध्यापकों की संख्या भी कम नहीं है। दूसरी तरफ बिहार है जहां प्रत्येक 2 बच्चों में से एक बच्चा स्कूल जाता है। आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिमी बंगाल भी पीछे है। बिहार में नामांकन दर में लैंगिक अंतर 42 प्रतिशत है और उत्तर प्रदेश में 71 प्रतिशत। इसकी तुलना में केरल में नामांकन 3 प्रतिशत और लैंगिक अंतर 5 प्रतिशत है। स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों का अधिक प्रतिशत आन्ध्र प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश में है। बिहार व उत्तर प्रदेश में ही लगभग 35 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जाते। लड़कियों की शिक्षा प्रतिशत अपर्याप्त है। बालकों व शिक्षकों की सहभागिता की समस्या काफी व्यापक है। 

सर्व शिक्षा अभियान से शिक्षा को लेकर जागरूकता उत्पन्न हुई है। लड़के-लड़कियों के बीच प्राथमिक स्तर पर नामांकन में कमी आई है। भौतिक लक्ष्य जिनमें स्कूल भवन निर्माण, कक्षा कक्षों का निर्माण, नये स्कूल भवन निर्माण, नये अध्यापकों की नियुक्ति, मुफ्त पाठ्य पुस्तकों का वितरण, मिड डे मील आदि के क्रियान्वयन में प्रगति आई है परन्तु प्रति छात्र शिक्षकों की कमी है। प्राथमिक विद्यालय, उच्च प्राथमिक विद्यालय, उच्च माध्यमिक विद्यालय व उच्च शिक्षण संस्थों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है। 

शिक्षा का व्यवसायिकरण हो रहा है। सरकारें निजी स्तर पर अथवा पीपीपी माडल पर नवीन कालेज व विश्वविद्यालय ही नहीं प्राथमिक विद्यालय भी खोलने पर विचार कर रही है। इसलिए देशभर में व्यवसायिक शिक्षा देने वाले निजी संस्थानों की बाढ़ सी आई हुई है। इसमें भी अधिकांश में न तो योग्य अध्यापक है और न ही अनुसंधान की सुविधाएं। यह अब सर्वाधिक लाभदायक व्यापार बन गया है। प्रवेश के समय बड़ी फीस वसूल की जाती है और आगे सालभर उन्हें शिक्षा सहित सामाजिक क्षेत्र में पूरी प्राथमिकता नहीं देते। 

शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण ने शिक्षा को पूर्णतया निजी हाथों के सुपुर्द कर दिया। राजस्थान में ही गत वर्षो में लगभग 40 इंजीनियरिंग कालेज 22 मेनेजमेंट कालेज, 6 मेडीकल कालेज, 20 डेंटल कालेज, 57 लॉ कालेज और अनगिनत कोचिंग संस्थान खुल गये है जिसने शिक्षा के स्तर को गिरा दिया है। शिक्षण व्यवस्था में अनुशसनहीनता बढ़ती जा रही है, शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है, शिक्षण संस्थानों में राजनीति प्रवेश कर गई है, कई राज्य जिनमें बिहार व उत्तर प्रदेश सबसे आगे है अराजकता ही नजर आने लगी है। 

निजी क्षेत्र में इतने व्यवसायिक कालेज खोलने की अनुमति दे दी गई है, विशेषकर इंजीनियरिंग कालेज जिससे कि पीईटी समाप्त करने की नौबत आ गई है। हजारों इंजीनियर बेकार घूम रहे है। 100 से अधिक विधि कालेज खोलने की अनुमति दे दी गई है, वकीलों की बेकारी से सभी वाकिफ है। 

राज्य सरकार शिक्षा के क्षेत्र में जिस तरह के व्यवसायिक कदम उठा रही है उससे शिक्षा का अवमूल्यन ही हो रहा है। जिन कदमों को सरकार बेकारी दूर करने के कदम बता रही है वह वास्तव में बेकारों की फौज खड़ी करने वाला कदम है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालकों के लिए पैसा ही माईबाप है और वह किसी भी हद तक प्रवेश देने के लिए जा सकते है और जा रहे है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)