यात्राओं का केंद्र बिंदु कन्याकुमारी ही क्यों...!


लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

www.daylife.page  

लगभग  चार दशक पूर्व तब जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर, जो तीन दशक पूर्व लगभग 6 महीने देश के प्रधानमंत्री भी रहे है, ने जब भारत यात्रा करने का निर्णय किया कि तो सबसे पहले यह सवाल आया कि यह यात्रा कहाँ से शुरू की जाये। आखिर में यह तय हुआ कि यह लम्बी यात्रा तमिलनाडु के  कन्याकुमारी से शुरू होकर दिल्ली में गाँधी की समाधी राजघाट तक हो। इसी प्रकार तीन दशक पूर्व जब बीजेपी के नेता मुरली मनोहर जोशी ने एकता यात्रा  करने का निर्णय किया तो यह तय हुआ कि यह यात्रा कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक होगी। चंद्रशेखर की यात्रा लगभग चार चालीस हज़ार किलोमीटर थी  तथा इसे पूरा होने में 6 महीने लगे थे। जबकि मुरली मनोहर जोशी की यात्रा लगभग एक साल तक चली तथा तीस हज़ार किलोमीटर से अधिक चली। इन यात्रयों को पद्यात्रयों का नाम दिया गया। इनका उद्देश्य अपने आप को आम व्यक्ति जोड़ना था तथा उनके समस्यों को जानना और सुनना था। राजनीतिक  नजरिये से इन यात्राओं के मूल उद्देश्य इन नेताओं के राष्ट्रीय छवि बनाना था। इसमें वे कुछ सीमा तक सफल भी रहे। 

कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी की भारत यात्रा जोड़ो योजना इन दोनों यात्राओं से अलग नहीं है। यह भी कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक है। इसका उद्देश्य भी उनकी राष्ट्रीय छवि बनाना और सुधारना है जहाँ। यद्यपि तीनों यात्रायें एक ही स्थान से चली, लेकिन इनका स्वरूप और आकार अलग अलग था। 

जब हम कश्मीर से कन्याकुमारी कहते है तो यह बोध होता है यह देश के कोने से दूसरा कोना है। यानि जब इस मार्ग से कोई यात्रा होती है तो पूरे देश की यात्रा हो जाती है। कन्याकुमारी देश के सूदूर राज्य तमिलनाडु के समुद्र पर स्थित कभी छोटा से ईसाई मछूआरों का गाँव था। समुद्र तट से लगभग 500 मीटर   आगे एक चट्टान है जहाँ कभी ईसाई मछुआरों ने क्रॉस लगा रखा था। 1892 में स्वामी विवेकानंद ने कई दिन तक इस चट्टान पर बैठ कर ध्यान किया था। वे तट से तैर कर इस चट्टान तक जाते तथा वहां बैठ घंटों ध्यान करते थे। यह माना जाता है यही बैठकर ध्यान करते एक दिन उन्हें ज्ञान का प्रकाश मिला मिला था। 

इसके बाद ही वे शिकागो के विश्व धर्म सम्मलेन गए थे जहाँ उन्होंने हिंदुत्व पर जो भाषण में दिया था उसी से वे प्रसिद्ध हुए। विवेकानंद रामकृष्ण मिशन से जुड़े थे इसलिए मिशन के लोगों ने इस चट्टान का नाम विवेकानंद से जोड़ दिया और चाहते थे की उनका यहाँ स्मारक बने। लगभग 6 दशक पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एकनाथ रानाडे  ने मिशन के साथ मिलकर यहाँ स्वामी जी का स्मारक बनाने का बीड़ा हुआ। बड़ी  कठिनाइयों के बाद 1963 में यहाँ काम शुरू हुआ तथा पूरा स्मारक 1970 बनकर तैयार हुआ। यहाँ एक मंडप के अलावा स्वामी विवेकानंद के विशाल मूर्ति लगी हैं। अब यह एक पर्यटन स्थल के रूप में बहुत लोकप्रिय हो गया है। हिन्दू अस्थाओं से जुड़े लोग भी यहाँ बड़ी संख्या में आते है। यही एक बड़ा कारण के नेता लोग यहीं से अपनी यात्रायें  आरंभ करने को प्राथमिकता देते। इससे से पूर्व महतम गाँधी के दांडी यात्रा और एलके अडवानी की यात्रायें यहाँ से न हो कर अलग स्थान से चली थी। 

1983 में जब चंद्रशेखर ने यहाँ से यात्रा आरंभ की उनके साथ एक दर्ज़न से कुछ अधिक लोग थे। यात्रा में तीन कारें और एक वैन थी, जो सामान आदि रखने के लिए थी। बाद में इसमें एक ट्रक और जोड़ दिया गया। यात्रा के खर्च के नाम पर कुल 3500 रूपये थे। यात्रा में भाग लेने के लिए यात्री अपने खर्चे पर यहाँ आये थे। औसतन रोज 45 किलोमीटर की पैदल यात्रा की जाती थी। जनता पार्टी के स्थानीय नेता उसी गाँव में ठहरने और खाने का बंदोबस्त करते जहाँ शाम के समय यात्रा पहुँचती थी। यात्री खुले में ही नहाते थे तथा खुले में ही निवृत होते थी। यात्रा में सादगी चरम पर थी। लेकिन मुरली मनोहर की यात्रा पूरे   लवाजमे और सुविधाओं से युक्त थी। अब राहुल गाँधी की 150 दिन के भारत यात्रा जोड़ो ने सभी सीमायें पार कर दी हैं। इसमें कुल यात्री 120 हैं लेकिन  उनके रहने और सोने आदि की सुविधा के लिए 88 बड़े बड़े केंटर है। जहाँ जहाँ रात को यात्रा रुकती है वहां पूरा का पूरा गाँव बस जाता है। खाने आदि का प्रबंध भी यात्रा के प्रबंध से जुड़े लोग करते है। एक दिन में 11 किलोमीटर यात्रा की जाती है और इसी में राहुल गाँधी और अन्य यात्रियों का आम आदमी से संपर्क होता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)