लेखक : लोकपाल सेठी
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक ईवा राजनीतिक विश्लेषक)
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कर्नाटक विधान सभा के चुनाव अब कुछ ही महीने दूर है इसलिए सत्तारूढ़ बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व और पार्टी के रणनीतिकार अभी से ऐसे कदम उठाने में लगे है ताकि दक्षिण के इस राज्य में पार्टी फिर सत्ता में आ सके। इसके लिए पार्टी नेतृत्व ने पिछले दिनों एक ऐसा बड़ा निर्णय किया जो पार्टी के स्थापित मानदंडो, नियमों और परम्पराओं के एक दम विपरीत है।
यह निर्णय राज्य के चार मुख्यमंत्री रहे बीएस येद्दियुरिअप्पा को पार्टी के सर्वोच्च स्तर पर निर्णय लेने वाले केंद्रीय संसदीय बोर्ड का सदस्य बनाये जाने का था। जब पिछले साल उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो यह माना जा रहा था की अब उन्हें पार्टी की सक्रिय राजनीति से दूर रखा जायेगा। खुद उन्होंने ने भी कहा था कि वे अब पार्टी में कोई पद नहीं चाहते लेकिन पार्टी फिर सत्ता में लाने के लिए काम करते रहेंगे। हालाँकि उनके बाद बने मुख्यमंत्री बसवराज ने उन्हें कैबिनेट स्तर का दर्ज़ा देते हुए यह कहा कि वे जब तक चाहें मुख्यमंत्री के लिए निर्धारित सरकारी बंगले में रह सकते है। बाद में कुछ आलोचना होने के बाद येद्दियुरिअप्पा ने न केवल कैबिनेट मंत्री का ओहदा लेने से इंकार कर दिया बल्कि मुख्यमत्री का बंगला भी खाली कर दिया। मुख्यमंत्री पद से हटने से पहले उन्होंने इस बात को पुख्ता किया था कि उनके दोनों बेटे राघवेन्द्र और विजयेन्द्र बीजेपी के इतने बड़े स्थापित बन जाये ताकि पार्टी अगले विधान सभा और लोकसभा चुनावों पार्टी का उम्मीदवार बनाये। यह माना जा रहा था कि पार्टी में उनकी भूमिका बाद अब मार्गदर्शक जैसी होगी है।
लेकिन राजनीति संभावनायों का खेल है जिसमे कभी भी कुछ भी हो सकता है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें पार्टी के संसदीय बोर्ड का सदस्य बना कर राज्य के राजनीतिक बिसात पर ऐसी गोट चली जिसका कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता था। राज्य में लिंगायत समुदाय सबसे बड़ा ऐसा जातीय समुदाय है जो ने केवल सामाजिक बल्कि राजनीतिक रूप से भी सबसे अधिक प्रभावशाली है। कभी यह समुदाय कांग्रेस का सबसे बड़ा समर्थक था लेकिन बाद में कांग्रेस की आन्तरिक गुटबंदी के चलते इससे छिटक कर बीजेपी के साथ आ गया। येद्दियुरिअप्पा इसी समुदाय से आते है।लगभग तीन दशक पूर्व वे इस समुदाय के बड़े नेता के रूप में उभरने शुरू हुए। इसीके चलते ढाई दशक पूर्व दक्षिण के इस राज्य में पहली बार सत्ता में आई। तब उनके बारे में कहा गया था कि दक्षिण में कमल खिलने का श्रेय उन्ही को जाता है।
कुछ साल बाद पार्टी में आन्तरिक कलह के चलते उन्होंने पार्टी छोड़ कर अपना नया दल बना लिया। लेकिन 2018 के राज्य विधान सभा चुनावों से पूर्व वे फिर पार्टी में लौट आये। उन्हें न केवल राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया बल्कि पार्टी की ओर से उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप पेश किया गया। पार्टी को बहुमत से कुछ कम सीटें मिली। फिर भी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। उनकी सरकार केवल ढाई दिन चली क्योंकि वे सदन में अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर सके। इसके स्थान पर आई कांग्रेस जनता दल (स) की सरकार बनी जो एक साल से अधिक नहीं चल सकी। बीजेपी दल बदल करवा कर फिर सत्ता में आ गयी और येद्दियुरिअप्पा फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने।
पार्टी नियमों और परम्परा के कोई भी नेता 75 वर्ष का होने बाद संगठन और सरकार में किसी पद नहीं रह सकता। विधान सभा चुनावों ने पूर्व जब उन्हें अध्यक्ष बनाया गया तो वे 77 वर्ष के थे लेकिन चुनाव जीतने के लिए पार्टी ने अपने ही नियमों को तक पर रख दिया। जब उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया गया तभी यह तय हो गया था की उन्हें अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया जायेगा। इसी के चलते पिछले साल जुलाई में उन्हें पद छोड़ने को कहा गया। उनके स्थान पर बनाये गए मुख्यमंत्री बसवराज भी लिंगायत समुदाय के ही है लेकिन समुदाय में उनका कद येद्दियुरिअप्पा जितना नहीं बन सका।
हालांकि बसवराज सरकार ने बीजेपी के गोरक्षा और धर्मांतरण जैसे मुद्दों को आगे बढ़ाया लेकिन पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को लगा की केवल इन कदमों के बल पार्टी पार्टी राज्य में दोबारा साथ में नहीं आ सकती इसलिए येद्दीयुरिप्पा को फिर से पार्टी की मुख्य धारा में लाने का निर्णय किया। वे इस समय 80 वर्ष के आस पास है फिर भी नियमों तो तोड़ कर उन्हें पार्टी के केंद्रीय संसदीय बोर्ड का सदस्य बना दिया गया ताकि पार्टी की चुनावों में जीत सुनिश्चित हो सके। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)