लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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राजनीतिक मूल्यों का अवमूल्यन तेजी से हो रहा है। राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से देश में विघटनकारी शक्तियों को बढ़ावा मिल रहा है। अल्पसंख्यक बहुसंख्यक के नाम पर समाज को बांटा जा रहा है। वोट बैंक की मजबूती और व्यक्तिगत व पार्टीगत महत्वाकांक्षाओं के लिए लोकतंत्र व संस्कृति के मूल तत्वों को समाप्त किया जा रहा है। लोकतंत्र के घातक तत्व धनबल, बाहुबल, जातिबल, साम्प्रदायिकता जड़ों तक पंहुच गये है।
राजनीतिक दलों की उलटबांसी यह है कि वे एक तरफ धार्मिक समभाव और धर्मनिरपेक्षता का महामंत्र का जाप करते है और दूसरी तरफ जातिय सम्मेलनों का आयोजन कर उनमें सक्रिय भाग लेते है। फलस्वरूप सामाजिक कुरीतियां, जातिवाद, धार्मिक संकीर्णता चुनावों को प्रभावित कर रही है। नैतिकता, शुचिता और सिद्धांतप्रियता को दरकिनार कर एक दूसरे समुदाय पर अनगिनित आरोप लगाते है। शांति, सहअस्तित्व, सद्भावना, भाईचारे की बेनामी बातें की जा रही है। अतीत के जख्मों को कुरीदकर साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है। साम्प्रदायिक हलचलें पैदा करने की नायाब कौशीशें की जा रही है। कोई नेता व सत्तासीन दल गरीबों, वंचितों, पिछड़ों, दलितों, किसानों, मजदूरों के उत्थान के प्रति गम्भीर नहीं है। मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, महिला व दलित अत्याचार बढ़ रहे है। बेतुके मुद्दे उठाकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे है।
जिनके चरित्र से आम आदमी प्रेरणा लेता था वे ही जनप्रतिनिधि राजनैतिक नैतिकता छोड़कर बांटने की कौशीश जाति, धर्म, लिंग, स्वार्थ के आधार पर कर रहे है। फसाद की जड़ों में खाद पानी डाल रहे है, विघटनकारी शक्तियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। वोट बैंक की मजबूती, अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए अल्पसंख्यकीकरण बहुसंख्यकीकरण के नाम पर देश को अंधकारमय भविष्य की ओर ले जा रहे है। राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से दलबदल को प्रोत्साहित किया जा रहा है, विघटनकारी शक्तियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, विदेशी ताकतों के आगे खेती तक को, किसानों की कमर तौडी जा रही है।
लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल से लेकर टैगोर, विवेकानन्द तक ने जातीय वृष वृक्ष को जड़ से सफाई के लिए साहसिक पहल की। गांधीजी पृथक दलित मतदाता के माध्यम से देश को बांटने वाली पहल के खिलाफ हिमालय की तरह खड़े हुए। सामाजिक संगठन, समाज सुधारक, धर्माचार्य देश को जातियता के कालकूट विष से बचाने के लिए आगे आये परन्तु अब राजनैतिक दलों के नेता जातिय राजनीति के हाथों की कठपूतली बन गये। बाहुबली लोकतंत्र का मखौल उडा रहे हैं।
आर्थिक नीतियां उस लकदक अमीर आदमी को केन्द्र में रखकर बनाई जा रही है तो हर तरह से साधन सम्पन्न है, उसमें गरीब, पिछड़े, विपन्न और साधनहीन व्यक्ति के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। बाजारवाद के असर से मंहगी व ब्रांडेड चीजों का फैलाव हो रहा है। शिक्षा शुद्ध कारोबार में बदल रही है।
गरीबी मिटाने, रोजगार देने, भ्रष्टाचार को मिटाने, मंहगाई पर नियंत्रण पाने, कालाधन समाप्त करने के संकल्प के साथ सत्ता की कुर्सी पर बैठने वाले, सत्तारूढ़ होने के पश्चात अपना ध्यान केवल व्यक्तिगत अहं और अपनी सत्ता को बचाने में लगा रहे है, उन्हें राष्ट्रीय समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करने का अवकाश ही नहीं है। लोकतंत्र को महत्वाकांक्षा के रूप में बदल दिया, उसका प्रस्थान सत्ता की कुर्सी की ओर बढ़ रहा है। नेताओं में आर्थिक लोलूपता, प्रतिशोध लेने की वृत्ति, मानसिक असंतुलन बढ़ रहा है। लोकतंत्र के इन सारथियों को रथ हांकने की विधि का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया। राजनीति के सिद्धांत नीचे दब रहे हैं, जातियता और साम्प्रदायिकता के बंधन उभर रहे है। जिस जातिवाद को वर्तमान समय तक निष्प्राण हो जाना था उसकी प्राण ऊर्जा और बढ़ गई है जिस साम्प्रदायिक कट्टरता को अर्थहीन हो जाना था उसकी सार्थकता बढ़ गई है।
लोकतंत्र के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अनुबंध है, लोकतंत्र ने स्वतंत्रता को मूल्य दिया है परन्तु आज लोकतंत्र जातियता, साम्प्रदायिकता आदि अनेक बंधनों से जकड़े हुए है। लोकतंत्र की वास्तविक सत्ता जातिवाद, साम्प्रदायिकवाद और आर्थिक स्रोतों में आसीन हो गई है। नम्बर दो की सत्ता शासन व प्रशासन के पास है। भूख की समस्या बड़ी विकट हैं, लाखों लोगों को अपोषक खाद्य भी बड़ी कठिनाई से मिल रहा है। रिश्वत लेने, अनाज को जमा रखने व अनुचित लाभ कमाने की प्रवृत्ति से जनतंत्र कमजोर हो रहा है, भूखी जनता रिश्वत लेने व अनुचित लाभ कमाने वालों के प्रति क्रांति का बिगुल बजाने की तरफ बढ़ रही हे। कानून की प्रतिष्ठा कम होने से अपराध की ओर प्रवृत्ति बढ़ रही है।
लोकतंत्रीय राष्ट्र पर किसी सम्प्रदाय अथवा पंथ का आधिपत्य हो तो वह अपने लोकतंत्रीय स्वरूप को सुरक्षित नहीं रख सकता इसलिए उसका सम्प्रदाय अथवा पंथ निरपेक्ष होना अनिवार्य है। साम्प्रदायिक कट्टरता में सहिष्णुता नहीं होती व अपने से भिन्न विचार को सहन करना नहीं जानती। राजनीति किसी सम्प्रदाय विशेष की अवधारणा से संचालित नहीं होनी चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)