जन्माष्टमी के अवसर पर विशेष
लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस अधिकारी है)
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मानव सृष्टि के इतिहास में श्रीकृष्ण को असीम संपत्तिवान, षक्तिषाली, विख्यात, सुन्दर, बुद्धिमान तथा अनाषक्त माना गया है। मानवीयकरण के कारण उनको श्रेष्ठ नेतृत्व प्रदान करने वाला एक सफल राजा, राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी, कार्यकुशल महापुरूष माना गया हैं। श्रीकृष्ण का उपदेश बगैर फल की इच्छा के कर्म, ज्ञान, कुशल नेतृत्व व अधर्म के विनाश के लिए जनहित एवं लोकहित में धर्म का उत्थान पूर्वापेक्षा अधिक प्रासंगिक है। उनके कार्य, कथन, लीला, आधुनिक युग में विशेष अनुकरणीय एवं आदर्श सिद्ध हो रहे है।
राजनीति में प्रवीण एक जननायक के रूप में उनका कोई सानी नहीं है। दर्शन, कर्म ओर ज्ञान उनमें समाहित है। उनकी जीवन लीलााओं में हर पक्ष के उदाहरण मिलते है। जनश्रुति है कि रामावतार में मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने ‘‘भव, भय, भंजक’’ के रूप में रहते हुए अपने कुछ कार्यो को शेष रख दिया था जिन्हें उनको लीला विग्रह के रूप में श्रीकृष्णावतार के रूप में पूर्ण करना था। इसीलिए स्त्री, शूद्र, द्विज, बंधुगणों का उद्वार, (सतयुग, त्रेता, द्वापर व कलियुग सभी में) को उन्होंने अपनाया, परम स्वात्म्य, दृष्टय व उद्वार किया।
श्रीकृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त श्री और अनन्त वैराग्य है। उनमें सभी शक्तियां पूर्ण रूप में निहित है। उनमें सभी प्रकार का ज्ञान, क्रिया, शक्ति का भाव निहित है। श्रीकृष्ण का प्रबन्ध आधुनिक प्रबन्धकों को भी आकर्षित करता है। उनके लिए आदर्श, सम्मान और मूल्य सर्वोपरी थे, सेवा भाव से पूर्ण थे। श्रीकृष्ण का जीवन श्रेष्ठ, निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है। उन्होंने भगवत गीता में जो उपदेश दिया है उसमें समस्त प्रकार का ज्ञान, भक्ति, आध्यात्म को सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक बनकर के प्राप्त कर सकते है।
भौतिक संसार में कोई भी संपन्न व्यक्ति विरक्त नहीं होता, परन्तु श्रीकृष्ण पूर्ण विरक्त है। कोई भी व्यक्ति उदास होता है तो उसे गीता का ज्ञान नैराश्यता से उभरने की शक्ति देता हैं। कोई भी व्यक्ति संपन्नता त्यागने के कारण कृष्णमय बन जाता है। श्रीकृष्ण कहते है कि कर्म तो करना है पर उसके फल की कामना, आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। श्रीकृष्ण, उनमें श्रृद्धा भाव रखने वालों के लिए, एकमात्र संरक्षक व रक्षक है। उनमें अहंकार का उदय कभी नहीं हुआ। बाल्यकाल में ही उन्होंनों दानवों ओर दुष्टों का संहार कर जन-जन को पाप व कष्टों से मुक्ति दिलाई। श्रीकृष्ण अन्तहकरण में प्रकाश फैलाने के लिए अवतरित हुए थे। इसलिए हिन्दू ही नहीं अन्य सम्प्रदायों के लोगों का भी उनमें विश्वास है।
पूरे भारत के अनेक राज्यों में श्रीकृष्ण की आराधना, पूजा सर्वाधिक की जाती है। पूर्वी भारत में भगवान जगन्नाथ, पश्चिम में द्वारकाधीश, दक्षिण में अयप्पा, राजस्थान में श्रीनाथजी, गोविन्द देवजी, सांवरियाजी के रूप में पूजते है। श्रीकृष्ण दुनिया में एक ऐसा चरित्र है जो बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, जवान, पशु, पक्षी सभी को आनन्द देने वाला है। बालपन में गाये, गोपियां बेसुध होकर श्रीकृष्ण को निहारते है तो ब्रज में कान्हा, द्वारका में द्वारकाधीश के रूप में। सरल के साथ सरल एवं कुटील के साथ कुटील व्यवहार उनकी विशेषता है। मनुष्य जिस रूप में श्रीकृष्ण को देखना और स्वीकार करना चाहते है, श्रीकृष्ण उनके सामने उसी रूप में प्रस्तुत होते है। कोई उनको बाल रूप में देखता है, कोई सखा रूप में, कोई प्रेमी की भांति तो कोई स्वामी जैसा देखता है। उनको उत्तम कृषक, पशुपालक के रूप में भी पूजते है।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अद्भुत सौन्दर्य की मूर्ति है, वह सभी को आकर्षित करती है। श्रीकृष्ण जयपुर में, जयपुर के राजा (राधा-गोविन्द) के रूप में पूजनीय है। औरंगजेब का नादिरशाही फरमान पहुंचते ही तत्कालीन सेवादार शिवराम गोस्वामी विग्रह को लेकर वन में छुप गये। महाराजा जयसिंह के सहयोग से सन् 1696 में कांमा पहुंचे। महाराजा रामसिंह के समय राजमार्ग से रोपडा ग्राम (गोविन्दपुरा) पहुंचे। सवाई जयसिंह ने आमेर घाटी में मंदिर बनाकर उनको विराजमान किया। राजा सवाई जयसिंह ने एक बड़े उद्यान में बारहदरी बनाई। जब जयपुर नगरी का निर्माण हुआ तो गोविन्द देवजी को कनक वृन्दावन से लाकर सन् 1735 में जयनिवास बाग के सूर्य महल बुर्ज में विराजमान कराया। सवाई जयसिंह ने सखी ललीता व सवाई प्रताप सिंह ने दूसरी सखी विशाखा की प्रतिष्ठा कराई।
जयपुर के राजा राधा-गोविन्द के जैसे दर्शन हमें कहीं ओर देखने को नहीं मिलते। मन्दिर के विशाल प्रांगण में हजारों स्त्री-पुरूष एक साथ, प्रत्येक मौसम में श्री राधा-गोविन्द के दर्शन कर सकते है। राधा-गोविन्द की प्रतिमा के सामने उनके दीवान जयपुर के राजा का चन्द्र महल, पीछे के भाग में बाग-बगीचा, तालकटोरा है। पूरा वातावरण गोविन्द दर्शन का आकर्षण उत्पन करता है। उद्यान में गोपालजी व गंगाजी का मंदिर है। यहां पर गोविन्द देवजी को ही स्वयं अधिष्ठा देवता माना जाता है। जन्माष्टमी के दूसरे दिन नन्दोत्सव उछाल उत्साह व उल्लासपूर्ण वातावरण सृजित कर देता है।
वृषभान की दादाजी ने विग्रहों को देखने के पश्चात मदन मोहन जी के चरण व गोपीनाथ जी के वक्षस्थल श्रीकृष्ण के समान बताये थे। उन्होंने गोविन्द के विग्रह का मुखारविन्द कृष्ण के समान बताया। राधा-कृष्ण विग्रह में दो ब्रह्म के लक्षण परिलक्षित होते है। दर्शनार्थ आये स्त्री-पुरूष उनके नाम का उच्चारण करते है। भक्तिभाव में लीन होकर भक्त कीर्तन में मग्न हो जाते है।
श्रीकृष्ण ने भगवत गीता में कहा है ‘‘योग कठिन है, तपस्या अत्यन्त कष्टकर है। श्रृद्धा अत्यन्त सरल है, ईश्वर को प्राप्त करने का सर्वोत्तम माध्यम है। यह श्रृद्धा, भक्ति, प्रेम, नाम उच्चारण, भजनभाव, गोविन्द के दरबार में देखा जा सकता है। श्रीकृष्ण प्रेमी ‘‘ऊं नमो भगवते वासुदेवायः’’ जपते हुए आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने का प्रयास करते है। सभी भक्त ’’श्रीकृष्णम् शरणम् ममः’’ कहते हुए अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करते है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)