भारत में जातीय जनगणना की आवश्यकता...!

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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भारत सरकार एवं राज्य सरकारें सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के तहत दलितों, पिछड़ों, वंचितों, शोषितों, गरीबों और अनाथ लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने का कार्य करती है। अनुसूचित जाति, जनजातियों सहित देश की करीब 80 से 85 प्रतिशत आबादी इस मंत्रालय से जुड़ी हैं। सामाजिक स्तर के साथ-साथ शैक्षणिक व आर्थिक स्तर पर मंत्रालय इन तबको से जुड़ा है, इनके लिए कार्य करता है। अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गो के छात्रों को प्री और पोस्ट मैट्रिक स्कालरशिप देता है, वेंचर कैपिटल फंड स्कीम के द्वारा सस्ते ब्याज पर ऋण देता है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के कानून व नियमों की पालना सुनिश्चित करता है। इन वर्गो के सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक विकास के लिए योजनायें बनाकर बजट प्रावधान करता है।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट में अनुसूचित जाति, जनजाति के अलावा 52 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग जनसंख्या आंकी जाकर कुल 50 प्रतिशत आरक्षण से नीचे 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई थी। इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले के पश्चात गठित केन्द्रीय व राज्य आयोगों ने नये जाति नाम जोड़े, सूचियों का रिवीजन नहीं हुआ। इस प्रकार पिछड़े वर्ग सूचियों के आधार पर पिछड़े वर्गो की जनसंख्या बढ़ती गई। वर्तमान में आबादी के अनुसार सबको आरक्षण की मांग जोर पकड़ रही है, प्राइवेट सेक्टर व पदोन्नति में आरक्षण की मांग भी बढ़ रही है।

देश में 1931 में आखरी बार जाति जनगणना के आंकड़े जारी किये गये थे। 1941 में जनगणना से जुड़े जाति के आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए। आजादी के बाद जनगणना में जाति के सवालों को शामिल नहीं किया गया। 1999 में मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने के बाद जनगणना के रजिस्ट्रार ने जाति के आंकड़े जुटाने की सिफारिश की। 2010 में संसद के दोनों सदनों ने जनगणना में जाति के सवालों को शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया। 2011 में केन्द्र ने सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण कराया जिसमें जाति से जुड़े सवाल शामिल थे। स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा कराये गये इस सर्वेक्षण के आंकड़ों में गड़बड़ियां की तो इन्हें जारी नहीं किया गया। 2018 में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा अगली जनगणना में ओबीसी को अलग से गिना जायेगा। 2019 में बिहार विधानसभा में जातिगत जनगणना का प्रस्ताव पारित हुआ, 2020 में दूसरी बार पारित किया गया। 2021 में सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल प्रधानमंत्री से इस संबंध में मिला। प्रधानमंत्री ने तकनीकी मुश्किलों के चलते देशभर में जाति जनगणना से इंकार किया, राज्य चाहे तो सर्वे करा सकते है। 2022 में बिहार में राज्यस्तर पर जाति गणना कराने का फैसला सर्वदलीय बैठक बुलाकर किया।

जनगणना संविधान के मुताबिक संघ सूची का विषय है, जनगणना कराने का अधिकार केन्द्र सरकार के पास है। राज्य द्वारा कराई गई जनगणना का स्वरूप काफी हद तक सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण जैसा होगा ताकि राज्य की विभिन्न जातियों की संख्या व आर्थिक हैसियत और सामाजिक स्थिति का आंकलन होगा। सर्वे की संवैधानिक स्थिति जनगणना जैसी नहीं होगी मगर इसके जरिये वे तमाम आंकड़े बाहर आयेंगे जिसकी अपेक्षा जाति जनगणना की मांग करने वालो की है। संवैधानिक मान्यता नहीं होगी। सुप्रिम कोर्ट में जातिगत जनगणना कराने के संबंध में भारत सरकार ने हलफनामा प्रस्तुत कर कहा है जातिगत जनगणना प्रशासनिक रूप से जटिल कार्य है। 2011 के सर्वे में सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों में तमाम तरह की खामिया थी। 2011 के सर्वेक्षण में जातियों-उपजातियों की संख्या 46 लाख थी। ऐसे में तकनीकी तौर पर मुश्किल होगा।

सच तो यह है कि अनुसूचित जातियों व जनजातियों से जुड़े जातियों के विवरण जनगणना में पहले से ही दर्ज होते रहे है। केन्द्र व राज्यों की ओबीसी की सूची पहले से तैयार है व उपलब्ध है, केवल अगडी जातियों की सूची नहीं है। एंथ्रोपोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया में देशभर की सभी जातियों का विवरण दर्ज है इसलिए जातियों की संख्या के नाम पर जाति जनगणना को टालना सामाजिक न्याय के हित में नहीं है। जाति जनगणना में उपजातियों को दर्ज नहीं किया जायेगा, सिर्फ जाति के विवरण दर्ज होंगे।

भारतीय परिस्थिति में हर धर्म में जाति की मौजूदगी किसी न किसी रूप में है। पिछड़ा वर्ग सूची में सभी धर्मो के लोग हैं। केन्द्रीय सूची व राज्य सूची में हिन्दु, मुस्लिम जातियों के नाम दर्ज है। सामाजिक न्याय मंत्रालय की योजनाओं व आरक्षण का लाभ सुचारू रूप से न्यायोचित रूप से वंचिजों व अत्यधिक पिछड़ों को मिल सके इसके लिए लिए जनगणना आवश्यक है। अब तक के आंकड़ों के अनुसार आरक्षण का लाभ केवल कुछ बड़ी सक्षम व तुलनात्मक दृष्टि से शिक्षित, संपन्न, उन्नत, समृद्ध जातियों को मिल रहा है और अधिकांश अत्यधिक पिछड़ी छोटी जातियां लाभ से वंचित है। इसलिए इनकी शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक स्थितियों की जानकारी आवश्यक है। परम्परागत पेशे समाप्त हो गये हैं, भूमिहीन है, मजदूर पेशा है, रोजगार नहीं है, गरीबी है, असंगठित है, इसलिए राज्य योजनाओं के लाभों से वंचित है।

जति जनगणना के सवाल के पीछे कोई राजनीति नजर नहीं आती। बड़ी समृद्ध जातियां तो पूर्व में ही राजनैतिक क्षेत्र में मजबूत है। जनगणना से जाति आधारित इस देश में सरकारों को नीति तैयार करने में, आंकड़े एकत्रित कर प्रावधान करने में मदद मिलेगी। जाति आधारित समाज में स्पष्ट जनसंख्या, सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति की जानकारी से जातियों के बीच तनाव बढ़ेगा व माहौल खराब होगा, यह सोचना सही नहीं है। देश में आज भी जाति आधारित राजनीति चल रही है, जनगणना से स्थिति स्पष्ट होगी। अत्यधिक पिछड़े, वंचित, गरीबों को अधिक अवसर मिलेगा। इस देश में चाहे कोई भी मजहब हो, सबमें जातियों की मौजूदगी है। कुछ समाज सुधारकों के अनुसार इससे साम्प्रदायिक विभाजन नहीं है। साम्प्रदायिक ताकतों को ध्रुवीकरण करना मुश्किल होगा। इस सर्वेक्षण के आंकड़ों से सामाजिक स्थिति स्पष्ट होगी। जनगणना का विरोध वे लोग कर रहे हैं जो जाति विहीन समाज की बात करते है परन्तु जातियों के विशेषाधिकार से भरपूर लाभ उठाकर अत्यधिक वंचितों, दलितों, पिछड़ों को वंचित कर रहे हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)