सामाजिक न्याय हेतु जरूरी है जातिगत जनगणना : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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जातियां हिन्दु समाज रूपी भवन की इमारती ईटें है। बिना जाति व वर्णव्यवस्था के हिन्दु समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। स्वतंत्रता के बाद वयस्क मताधिकार ने जाति व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती दी परन्तु व्यस्क मताधिकार पर आधारित राजनैतिक प्रणाली में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण बन गई। जातिवाद दूसरे रूप में उभर गया व काफी हद तक बढ़ गया व जाति के आधार पर पार्टीयां, संस्थान व योजनायें बन गयी।

आज भी जातियों की बीच उतनी ही दूरी तथा सामाजिक आर्थिक, शैक्षणिक असमानता बनी हुई है जितनी कई दशक पूर्व-थी। दलितों, पिछड़ों, वंचितों की दशा दयनीय है, भंयकर गरीबी में अपना जीवन व्यतीत करने वाले बन्धुआ गरीब खेतीहर मजदूर दिहाड़ी पर कार्य कर अपना पेट भरते हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी शोषण के बीच जिन्दगी गुजारते हैं। महिला शिक्षा का अभाव है। धार्मिक, सामाजिक आर्थिक असमानता व अपमानों के बीच जीने को मजबूर हैं। जाति विहीन समाज की अवधारणा समाप्त हो गई है।

वर्तमान में देश में 16.23 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 8.6 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, लगभग 54 प्रतिशत पिछड़े वर्ग है। देश की कुल आबादी का 27 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे है। अनुसूचित जनजाति के 26.25 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में और 38.47 प्रतिशत शहरी इलाकों में गरीबी रेखा केे नीचे जीवन यापन कर रहे है। अनुसूचित जनजाति  के 26.25 प्र्रतिशत ग्रामीण इलाकों में , 38.47 प्रतिशत शहरी इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। पिछड़ा वर्ग के 45.66 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में 34.75 प्रतिशत शहरी इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे है। दलित व पिछड़ा वर्ग सर्वहारा वर्ग है इन्हें शिक्षा व विकास के अवसर, निषेदों व निर्योग्यताओं के चलते, सरकारी सेवाओं में स्थान नहीं मिले।

संविधान के अनुसार हितकर भेदभाव की नीति के अन्र्तगत आरक्षण का प्रावधान का आधार, आरक्षण सूची में कृषक, खेतीहार मजदूर, श्रमिक, दस्तकार सेवक आदि है। निम्न व्यवसाय करने वाले लोग हैं। जिनमें आपस में सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक असमानता रही है। अब कुछ जातियां व परिवार आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सम्पन्न शिक्षित, समृद्ध व उन्नत हो गये वे राज्य सता पर हावी हो रहे हैं। उनके बच्चे उच्च संस्थान में शिक्षा प्राप्त कर रहे है। महलों में रहने वाले ऐसे दलित व पिछड़ी जाति के नुमाइन्दें झौपड़ी में रहने वाले अपने ही वर्ग के दलित पिछड़ो के हक की रोटी छीनकर खा रहे। पिछड़ो के बीच शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक असमानता को देखते हुए काका कालेलकर आयोग ने 1955 में सिफारिश की थी कि जनगणना में जाति व उनका व्यवसाय, सामाजिक आर्थिक स्थिति अंकित की जाए जिसके आधार पर वर्गीकरण हो और विकास योजनायें बनें। पुनः 1980 में मण्डल कमीशन ने भी स्पष्ट किया कि आरक्षित जातियों की स्थितियां भिन्न है, उनकी संख्या व आर्थिक सामाजिक शैक्षणिक स्तर की जानकारी आवश्यक है।

संविधान निर्माताओं की मंशा व इरादा स्थाई रूप से आरक्षण की वैशााखी थमाने का नहीं था। प्रतिस्पर्धा, जातिवाद और राजनीतिक लोक लुभावनवाद ने जाति अतिरेक के हद तक पहुंचा दिया है। जो समाज अधिक मुखर व संगठित है, राजनैतिक न्यूसेंस वेल्यू है, उन सक्षम जातियों के आगे घुटने टेककर उच्चतम न्यायालय के निणर््एायों व निर्देशों का अनादर कर सक्षम, सम्पन्न शक्तिशाली व उन्न्त वर्ग को सूचियों में जोड़ना व जोड़े रखना समस्त आरक्षित वर्ग के लिए नुकसानदायक है। असमानता बढ़ रही है असंतोष वढ़ रहा है।

सदस्य सचिव पिछड़ा वर्ग आयोग के पद पर कार्य करते हुए मैंने महसूस किया, जातियों की जनसंख्या, सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति की अधिकृत जानकारी नहीं है। जातियों में आपस में असमानता है। पिछड़ा वर्ग आयोगों ने सूचियों में सम्मिलित जातियों के बीच असमानता की और राज्य सरकारों का ध्यान दिलाया है व वर्गीकरण को आवश्यक बताया है। केन्द्रिय सूची में शामिल अन्य पिछड़ा वर्ग में 97 प्रतिशत नौकरियों और दाखिलों का फायदा केवल एक चैथाई जातियां ही उठा रही है। ओबीसी में शामिल 983 जातियंा यानि 39 प्रतिशत को कोई नौकरी या दाखिले का लाभ नहीं मिला। ओबीसी में शामिल दस जातियों ने 24.95 प्रतिशत नौकरियों व दाखिले में लाभ उठाया। कई राज्यों में ओबीसी कोटा उनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं ज्यादा है कई राज्यों में बहुत कम है। सूची में सम्मिलित चैथाई जातियों को किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं मिला। दूसरी ओर 994 जातियों का नौकरियों व दाखिले में मात्र 2.68 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व मिल पाया है।

आरक्षित वर्गो का रिवीजन व वर्गीकरण आवश्यक है यह केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं, उनकी वर्तमान शैक्षणिक सामाजिक आर्थिक स्थिति व प्रतिनिधित्व के आधार पर ही हो सकता है। क्रीमिलेयर का सिद्धान्त एससी, एसटी, पर लागू नहीं है। पिछड़ा वर्ग में लागू क्रिमीलेयर को डाईल्यूट किया जा रहा है। इससे अत्यधिक पिछड़ी जातियों को लाभ नहीं मिल रहा तो उच्चतम न्यायालय ने सूचीयों का समय-समय पर रिवीजन करने के आदेश दिये हैं परन्तु आज तक किसी राज्य में रिवीजन नहीं किया गया। पिछड़ा वर्ग का वर्गीकरण उच्चतम न्यायालय ने जनसंख्या व सामाजिक असमानता के आधार पर करने को कहा है, जिसमे क्रीमीलेयर, सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व तथा जनसंख्या को देखा जाए। एससी व एसटी जातियों में भी अत्यधिक असमानता पाई गई है।  

आरक्षण व्यवस्था का आधार सम्यक हो, उसका लाभ अन्तज्य तक पहुंचे। लिस्टों का रिवीजन हो वर्गीकरण हो परन्तु उसके लिए आवश्यक डेटा एकत्रित करने की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने इन्द्रा साहनी व नागराज के केसों में स्पष्ट निर्देश दिये हैं। उच्चतम न्यायालय ने पंजाब सरकार बनाम देवेन्द्र सिंह व अन्य फैसलों में स्पष्ट कहा है कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को सही रूप से लागू करने के लिए विस्तृत आंकड़े आवश्यक हैं और ये आंकड़े जनगणना में विस्तृत सूचना एकत्रित करने पर ही संभव है।

जातिगत जनगणना के विरोधियों में आरक्षित वर्ग में सक्षम सम्पन्न तथा उच्च वर्ग के लोग है और जाति संघर्ष का होवा दिखाते हंै, जो निर्मूल है। जाति जनगणना के आंकड़े योजना बनाने में कारगर होंगे और प्रत्येक वर्ग को अपना अधिकार प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। 1931 तक जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल किये थे उनके आधार पर योजना आयोग व प्लानिंग समितियां द्वारा अनुमानित आंकड़े बनाये जा रहे है। बगैर विस्तृत आंकड़ो के रिवीजन व उपविभाजन सुचारू रूप से पिछड़ा, अतिपिछड़ा व अत्यधिक पिछड़े में नहीं हो सकेगा। यदि जातिगत जनगणना नहीं हुई तो असमानता बढ़ती रहेगी। योजनाओं का लाभ सक्षम, शिक्षित, सम्पन्न व उन्नत ही उठाते रहेंगे। आरक्षित वर्ग में असमानता बढ़ती रहेगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)