लेखक : लोकपाल सेठी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक है)
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पिछले साल पश्चिम बंगाल में भारी बहुमत से तीसरी बार सत्ता में आने के बाद टीएमसी सुप्रीमो और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को लगा कि अब समय आ गया है कि उन्हे राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करना चाहिए। उन्होंने गैर कांग्रेस और गैर बीजेपी पार्टिओं एक तीसरा मोर्चा बनाने का काम शुरु किया। इन दोनों दलों को छोड़ कई राजनीतिक दलों के नेताओं को लगा कि ममता दीदी का नाम आगे बढ़ा एक नया मोर्चा बन सकता है। लेकिन नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ने यह कह कर सारी मुहीम ठंडी कर दी कि कांग्रेस को साथ लिए बिना ऐसा कोई भी मोर्चा बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकता। वास्तव में शरद यादव ममता बैनर्जी को आगे बढ़ने से रोकना चाहते थे। ठीक इसी प्रकार समाजवादी पार्टी के नेताओं ने भी ऐसे मोर्चे के प्रति कोई अधिक उत्साह नहीं दिखाया। क्योंकि यह पार्टी उत्तर प्रदेश में अकेले विधान सभा का चुनाव लड़ने का मन बना चुकी थी।
इसके बाद तेलंगाना के मुख्यमंत्री और राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति के सुप्रीमो चंद्रशेखर राव ने कुछ महीने पहले अपने आपको को राष्ट्रीय राजनीति में लाने की मुहीम शुरू की। वे दिल्ली में जा कई छोटे बड़े दलों के नेताओं से मिले। लेकिन उनका उत्साह भी जल्दी ही ठंडा पड़ गया क्योंकि उन्हें इन नेताओं ने जता दिया कि उनकी अभी कोई राष्ट्रीय छवि नहीं है इसलिए उनके प्रयासों को कोई अधिक सफलता नहीं मिलेगी। हालाँकि अभी उन्होंने ने अपनी कोशिशे कम नहीं की है लेकिन कोई परिणाम आते नज़र नहीं आ रहे है।
एम के स्टालिन न केवल तमिलनाडु के मुख्यमंत्री है बल्कि सत्तारूढ़ दल द्रमुक से सुप्रीमो भी है। उनकी छवि बड़े द्रविड़ नेता की है। दो साल पहले राज्य की सभी लोकसभा सीटों पर अपनी पार्टी को जीत दिलाकर उन्होंने बता दिया था उनको आगे बढ़ने से अब कोई रोक नहीं सकता। पिछले साल राज्य विधान सभा के चुनावों में उनकी पार्टी को दो तिहाई बहुमत मिला जिससे उनका राजनीतिक कद और बढ़ गया।
लगभग 25 साल पहले केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त मोर्चे के प्रधान के प्रधान मंत्री रूप में जब एच डी देवेगौडा ने सदन में बहुमत के आभाव में अपने पद से त्याग दे दिया तो उस समय तमिल मनिला कांग्रेस (मूपनार) ने नेता जी.के. मूपनार का नाम इस पद के लिए सामने आया। उन दिनों तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक प्रमुख एम् करूणानिधि से जब पूछा गया कि वे खुद अपने आपको को इस पद का दावेदार क्यों नहीं समझते। उनको सीधा से उत्तर था उनकी अपनी सीमायें है इसलिए वे इस पद के लिए दावा नहीं कर सकते। इसका एक कारण साफ़ था कि उनकी छवि के क्षेत्रीय और कट्टरपंथी द्रविड़ नेता की थी तथा उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहीं थी। एक अन्य वजह उनके और उनकी पार्टी दवारा हिंदी का घोर विरोध करना था। यह माना जाता है कि राष्ट्रीय स्तर का नेता होने लिए हिंदी आना एक शर्त सी ही है।
लेकिन इस मामले में स्टालिन अपने पिता करूणानिधि से बेहतर स्थिति में हैं। दक्षिण में उनकी स्वीकार्यता कहीं अधिक है। राजनीति से जुड़े लोगों का कहना है कि वे राष्ट्रीय राजनीति में आने में सक्षम है। खुद उन्होंने भी अपने प्रयास शुरू कर दिए है। दो महीने पूर्व उन्होंने आल इंडिया फेडरेशन ऑफ़ सोशल जस्टिस की ओर से कई गैर बीजेपी दलों के नेताओं को इसके सम्मलेन के लिए आमंत्रित किया था। इसके कुछ दिन बाद ही उन्होंने अपनी आत्मकथा उनुग्लिल ओरूवन (आप में से एक) के विमोचन के एक बड़ा समारोह किया जिसमे सभी प्रमुख दलों के नेताओं को आमंत्रित किया गया था। केवल इतना ही नहीं वे कुछ दिनों बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन के दौरान एक सेमिनार में हिस्सा लेने भी गए।
हाल ही में जब दिल्ली में द्रमुक के कार्यालय का उद्घाटन हुआ तो उन्होंने इसमें में सभी दलों के नेताओं को बुलाया। इस प्रकार वे ऐसे सभी प्रयास कर रहे है जिससे उनकी स्वीकार्यता बढे तथा उनकी अपनी राष्ट्रीय छवि बन सके।
तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जो बाहर से आर्थिक निवेश बढ़ने की कोई खास कोशिश नहीं करता। लेकिन स्टालिन न केवल इस दिशा में आगे बढ़ रहे बल्कि यूनाइट अरब अमीरेट का दौरा कर 131 सहमति के समझौतों पर हस्ताक्षर भी कर चुके है। अब वे अगले साल चेन्नई में ग्लोबल इन्वेस्टमेंट मीट आयोजित करने की तैयारी कर रहे है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)