एक सक्षम विकल्प की जरूरत
लेखक : प्रशांत सिन्हा
(लेखक जाने-माने सामाजिक विचारक हैं)
www.daylife.page
2024 के आम चुनावों की तैयारियों को लेकर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस राजस्थान के उदयपुर में तीन दिवसीय चिंतन शिविर का आयोजन करने जा रही है। जहां तक चुनाव का सवाल है, वह तो गुजरात, कर्नाटक, और हिमाचल प्रदेश में भी हैं लेकिन कांग्रेस का चिंतन शिविर राजस्थान में आयोजित किया जा रहा है। शिविर को लेकर लोग तरह तरह के अर्थ भी निकाल रहे हैं। देखा जाये तो
पिछले चुनावी नतीजों ने कांग्रेस आलाकमान को पूरी तरह से असहज किया है, इसमें दो राय नहीं है। लेकिन यह आश्चर्य है कि इस बाबत इस बार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आयी। वह भी शायद इसलिए कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद वरिष्ठ नेताओं का बगावती रूप खुलकर सामने आया था। उन्होंने उस समय कहा था कि दल का ढांचा अब ध्वस्त हो चुका है, पार्टी का कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क टूट चुका है। उन्होंने यह भी कहा था कि आज कांग्रेस सबसे निचले स्तर पर आ खड़ी हुई है। तेईस नेताओं द्वारा शीर्ष नेतृत्व स्तर पर परिवर्तन को लेकर लम्बी चर्चा भी हुई थी। उस समय सोनिया गांधी ने आंतरिक कलह को रोकने का प्रयास किया था।
गौरतलब यह है कि पिछले दिनों 2024 के चुनाव को दृष्टगत रखते हुए पार्टी ने चुनावी रणनीतिकार प्रशान्त किशोर के साथ बैठक भी की थी। उस बैठक में प्रशान्त किशोर ने कांग्रेस के लिए एक पुनरुद्धार योजना और राज्यों के साथ- साथ आगामी लोकसभा चुनाव जीतने की खातिर रणनीति पेश की थी। लेकिन उस बैठक के कोई अच्छे नतीजे नहीं निकल सके। वह बात दीगर है कि इसे राजनीतिक विश्लेषकों ने एक अच्छा संकेत बताया और राजनीतिक दलों को प्रशांत किशोर से दूर ही रहने की सलाह दी। यह बात कटु सत्य है कि लोकतन्त्र में एक सशक्त विपक्ष का होना बहुत ज़रूरी होता है। यह भी सही है कि देश में भाजपा को चुनौती देने की सामर्थ्य सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस में ही है।
अब समय आ गया है कि कांग्रेस को जल्द ही ऐसी रणनीति एवं योजना बनानी चाहिए और उसे कार्यान्वित करने के लिए एक कोर ग्रुप का गठन करना चाहिए। असलियत में कांग्रेस के लिए चिंतन का वक्त अब गुजर चुका है। अब तो जल्द निर्णय लेने का समय है। कांग्रेस संगठन, विचारधारा और नेतृत्व में परिवर्तन समय की मांग है। आज उसके पास खोने को कुछ भी नहीं है। उसे यदि कुछ पाना है तो उसे नेहरू गांधी के विचारों को लेकर जमीनी राजनीति करनी चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस के विकास मे नेहरु - गांधी परिवार का योगदान अतुलनीय है। लेकिन अब यह अतीत की बात हो गयी है और अतीत को वर्तमान में ढोना किसी भी दृष्टि से लाभकारी नहीं होगा। उसे परिवार की परिधि के बाहर निकलना होगा और परिवार के बाहर से ही दल में से किसी कुशल, अनुभवी व्यक्ति या किसी युवा चेहरे को केन्द्र में लाना होगा और दल की बागडोर उसे सोंप देनी चाहिए। क्योंकि गांधी परिवार को देश की जनता अब परख चुकी हो और वह अब बदलाव चाहती है।कांग्रेस को चाहिए कि वह भाजपा की तरह वह नेताओं की नई पौध को लगातार विकसित करे और यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहना चाहिए। कांग्रेस को अब यह गंभीरता से भी विचार करना होगा कि अब उसके दल का कौन सा पुर्जा पूरी तरह से घिस चुका है, कौन सा पहिया टूट चुका और किस राजनेता को राजनीतिक समर से दूर रखकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए।
असल में वर्तमान का नुकसान भविष्य के विनाश से ज्यादा बेहतर होता है। यह पार्टी को समझना चाहिए कि कांग्रेस क्षेत्रीय दल नहीं है। उनकी आज भी अखिल भारतीय स्तर पर न केवल मौजूदगी है बल्कि अन्य की तुलना में उसकी सशक्त पहचान भी है। ऐसे में उसे खोई हुई सियासी जमीन हासिल करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। इसके लिए उसे कुछ कडे़ फैसले करने होंगे जो बदलते वक्त की जरूरत है। दुख तो यह है कि कांग्रेस समय के साथ अपने आप को नई राजनीति में ढाल नहीं पा रही है और न ही अपनी नीतियों को जनता को समझा पा रही है। जबकि हरित क्रान्ति, श्वेत क्रांति, तमाम आईआईटी, आईआईएम आदि की सूत्रधार होकर भी कांग्रेस की छवि एक असहाय दल के जैसी बनी हुई है। मौजूदा दौर में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पलायन जैसी समस्याओं को लोग कांग्रेस की ही देन मानते हैं।
जबकि इन समस्याओं के बारे में किए जा रहे दुष्प्रचार के बारे में अपना रुख साफ करते हुए कांग्रेस को अपनी नीति और आचरण से जनता का भरोसा जीतने का प्रयास करना होगा। आज देश में हालत यह है कि पैट्रोल, डीजल की आसमान छूती कीमतें, महंगाई, दिनोंदिन बढ़ती बेरोजगारी के बावजूद लोग भाजपा को वोट कर रहे हैं । यह उसे समझना होगा कि इसका कारण क्या है। इसका सबसे बडा़ कारण यह है कि मोदी में देश की जनता का भरोसा कायम है। जरूरत है कि कांग्रेस पार्टी गांधी - नेहरु परिवार से इतर अपनी पहचान बनाने की ओर बढे़। इसमें दो राय नहीं है कि अकेली कांग्रेस ही है जिसे देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का गौरव प्राप्त है। केंद्र और राज्यों में उसका लंबे समय तक शासन भी रहा है लेकिन हमेशा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एक ही परिवार से रहे हैं।
यही वजह है कि कांग्रेस नेतृत्व को लेकर जनमानस में तरह - तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। दल में नेताओं का असंतोष बढ़ता जा रहा है। लोग परिवार के अलावा अध्यक्ष की मांग करने लगे हैं। ऐसे में पार्टी आलाकमान को इस पर ध्यान देने की बेहद ज़रूरत है। दल मजबूत हो, इसके लिए परिवार और पुत्र मोह का उसे त्याग करना ही होगा। दल को अपने उन नेताओं का सम्मान करना होगा जिन्होंने अपना पूरा जीवन कांग्रेस को समर्पित कर दिया । कांग्रेस के पास एक और विकल्प हो सकता है। बेशक अध्यक्ष पद गांधी परिवार के पास हो लेकिन प्रधान मंत्री पद का चेहरा परिवार से बाहर वाला ही हो। यह उसे स्पष्ट करना होगा। बिलकुल वैसा ही जैसे यूपीए सरकार के समय था। लेकिन इस शर्त के साथ कि संगठन एवं सरकार एक दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगें।
इसके साथ ही साथ कांग्रेस को चाहिए कि वह प्रधान मंत्री पर व्यक्तिगत हमले करना छोड़ उन्हीं मसलों पर ध्यान केन्द्रित करे जहां प्रधान मंत्री और उनकी पार्टी असहज महसूस करती है या उनमें सरकार का प्रदर्शन अपेक्षाकृत कमजोर है या उसका ग्राफ निरंतर गिरता जा रहा है। इससे न केवल कांग्रेस सही निशाना लगा पाने मे सक्षम हो सकेगी बल्कि सरकार को भी सुधार के लिए प्रोत्साहित करने का काम करेगी जो कि लोकतंत्र मे एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका के लिए बेहद जरूरी भी है। इससे जनमानस में कांग्रेस की विश्वसनीयता भी बढ़ेगी। सच तो यह है कि कांग्रेस को अपने कार्यकर्ता के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए भी खुद अपने आप को बदलने की जरूरत है।
कांग्रेस को पुराने सेवा दल को फिर से पुनर्जीवित करना होगा जिससे गांव-गांव में कार्यकर्ता न केवल बने बल्कि संगठन भी मजबूत हो सके। उन्हें यूथ कांग्रेस एवं एनएसयूआई को भी सशक्त करना होगा। इसके अलावा अब यह साफ हो चुका है कि अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की नीति से उसका भला होने वाला नहीं है। अब उसे तुष्टीकरण की नीति को तिलांजलि देनी होगी। कांग्रेस को समझना चाहिए कि इसी तुष्टिकरण की राजनीति के कारण कम्युनिस्ट पार्टी का देश से सफाया हो गया। कुछ वर्ष पहले ए के एंटनी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा एक समिति बनाई गई थी जिसकी रिपोर्ट पर दल के अंदर आजतक कोई विचार विमर्श ही नही हुआ। यह विचार का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ।खुद एंटनी के अनुसार दल को आने वाले चुनाव में नुकसान हुआ था।
समिति की मुख्य बात यह थी कि 2014 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने " धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता " का नारा दिया था । उससे जनमानस में कांग्रेस का अल्पसंख्यकों की ओर झुकाव का सन्देश गया। कभी- कभी कांग्रेस के कुछ नेताओं के द्वारा राष्ट्रीय भावनाओं के विपरीत वक्तव्य दिए जाने से भी जनता के बीच गलत संदेश गया है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। अनुच्छेद 370 की वापसी की मांग से भी जनता आक्रोशित हुई। इससे कांग्रेस को बचना चाहिए था। पार्टी को गंभीर सामाजिक समस्याओं पर पार्टी के रुख और समाधानों के साथ जनता की अंगुली पकड़नी चाहिए थी। लोक लुभावन नारा गढ़ने और जनता का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले शीर्ष नेताओं का कांग्रेस में अब घोर अभाव है। याद रहे 1971 का चुनाव " गरीबी हटाओ " के नारे ने ही इंदिरा गांधी को जिता दिया था।
भारत जैसे विशाल एवं विविधता भरे लोकतंत्र में विपक्ष में ऐसा दल आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है जो स्वयं सशक्त हो और अपने आचरण एवं व्यवहार से सत्ता पक्ष को हमेशा याद कराता रहे कि किसी भी सूरत में वह निरंकुश नहीं हो सकता। लोकतंत्र की सफलता के लिए यही आदर्श व्यवस्था मानी जाती है। भारत ने जिस ब्रिटेन से संसदीय प्रणाली अपनाई वहां तो विपक्ष " शैडो कैबिनेट " जैसी व्यवस्था को अपनाता है, जहां विपक्षी नेता सत्ता पक्ष के मंत्रियों के कामकाज पर औपचारिक एवं व्यवस्थित ढंग से निगरानी रखते हैं। इससे लोकतांत्रिक प्रणाली के सुचारू रूप से संचालन में मदद मिलती है।
हालांकि यह सब तभी संभव होता है जबकि विपक्षी दल स्वयं में मजबूत हो, उसके द्वारा सकारात्मक और स्वस्थ बहस की जाये और संयत और संसदीय भाषा व मर्यादा का पालन हो। लोक हित के मुद्दों पर सत्ता पक्ष का साथ देने में किसी प्रकार का अहम व राग द्वेष नहीं होना चाहिए तथा सत्ता पक्ष को किसी भी अमान्य और अलोकतांत्रिक कार्य करने से हरसंभव रोकना चाहिए। यही विपक्ष का सबसे बडा़ कर्तव्य-दायित्व है। लेकिन यह चिंता का विषय उस दशा में और बन जाता है जब विपक्षी दल ही संगठनात्मक कमजोरी और कमजोर शीर्ष नेतृत्व के दौर से गुजर रहा हो। बेहतर तो यह होगा कि कांग्रेस पार्टी जो कि इस समय विपक्ष की भूमिका में है अपने संगठनात्मक ढांचे में बदलाव लाए।
जहां तक राहुल गांधी का सवाल है, उनको परिपक्वता दिखाने की ज़रूरत है। वर्तमान में राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने के साथ ही जनमानस में यह धारणा घर करती जा रही है कि वह मोदी के आगे कहीं भी नहीं टिकते। उनकी बातें जनता को आकर्षित नहीं करती क्योंकि उनमें गहराई नहीं होती। राहुल गांधी के बचकाने बयानों से पार्टी के कुछ लोगों के ही स्वार्थ सिद्ध नही होते बल्कि शत्रु देश की सरकारों, सेना और जासूसी संस्थाओं को भी ऐसे नेता और राजनीतिक दल बहुत पसंद होते हैं जो इस तरह के अनर्गल और बेतुकी भाषा शैली व अपरिक्वता पूर्ण आचरण के लिए चर्चित रहते हैं।
राहुल गांधी के बयानों से देश की जनता में कांग्रेस के प्रति शंका उत्पन्न होती है। राहुल गांधी का मोटर साइकिल पर बैठकर भागना, संसद के अंदर प्रधान मंत्री को गले लगाने के बाद आंखें मारना , प्रधान मंत्री को भाषण के दौरान लगातार चोर बोलना आदि-आदि आचरण अपरिपक्वता ही तो दर्शाते हैं। अब प्रियंका गांधी को लें, उनके पास राजनैतिक अनुभव का अभाव है। सोनिया गांधी ने कांग्रेस को लगातार दस वर्षो तक केंद्र में सत्ता में बने रहने में मदद की, वे लम्बी बीमारी से जूझ रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे माहौल में अगर कांग्रेस जल्द कोई निर्णय नहीं लेती है तो दल को ही नहीं देश को भी काफी नुकसान होगा। इसलिए ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस का पुनर्जीवित और सुदृढ़ होना देश के हित में है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)