माता-पिता गृहस्थ जीवन के भगवान : डॉ. सोहन राज तातेड़

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

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संसार में माता और पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता। माता-पिता इस संसार के ईश्वर तुल्य है। माता-पिता ही बच्चे को इस संसार में लाने वाले है। बच्चे का लालन-पालन शिक्षा, देकर उन्हें जीवन की राह दिखाने वाले माता-पिता ही है। मानव जीवन की तीन अवस्थाएं है- बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था। बाल्यवास्था मानव जीवन की वह अवस्था है जिसमें जीवन निर्माण होता है। विकास और ह्रास के बीज वपन का कार्य इसी अवस्था में किया जाता है। विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो जीवन से मृत्यु तक चलती रहती है। परिवार में नए बच्चे का जन्म होना परिवार के लिए बहुत खुशी की बात होती है और यह सभी के लिए एक नए सफर की शुरुआत होती है। हालांकि बच्चा खाना खाने, सोने, रोने और डायपर गीले करने के अलावा कुछ नहीं करता, दरअसल वह नई दुनिया में स्वयं का तालमेल बिठाता है और उसके बारे में जानकारी हासिल करता है। प्रत्येक बच्चा विलक्षण होता है और बच्चों के विकास की गति में भिन्नता होना, आमतौर पर आम बात है। यदि बच्चे के विकास में कुछ कम या अधिक समय लग रहा है अथवा बच्चा किसी चरण में कुछ क्षमताओं को हासिल करने में विफल रहता है, तो ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं। ये वयस्कों के साथ अधिक संतुष्ट रहते हैं तथा उनके साथ सामाजिक सम्पर्क रखने के प्रति अधिक रूचि दर्शाते हैं। पूर्व बाल्यावस्था के आरम्भ में, बच्चे समानांतर खेल का संरूप प्रदर्शित करते हैं अर्थात् दो बच्चे साथ रहकर भी स्वतंत्र रूप से (स्वान्तःसुखाय) खेल खेलते हैं। इस अवस्था के प्रमुख सामाजिक व्यवहार है- अनुकरण, प्रतिस्पर्धा, नकारवृत्ति, आक्रामकता, कलह, सहयोग, स्वार्थपरता, सहानुभूति तथा सामाजिक अनुमोदन इत्यादि। बाल्यावस्था में बालकों में विभिन्न सामाजिक व्यवहार जैसे नेतृत्व शैली, पठन-पाठन, मनोरंजन सिनेमा, रेडियो तथा टेलीविजन इत्यादि प्रविधियों के माध्यम से प्रदर्शित होते हैं। सामाजिक व्यवहारों के विकास का क्रम उत्तर बाल्यावस्था में भी जारी रहता है। बालक को संस्कारित और शिक्षित करने में माता-पिता का बहुत बड़ा योगदान होता है। माता-पिता की उपेक्षा करके पुत्र आगे नहीं बढ़ सकता है। यहां तक की जो लोग माता-पिता की उपेक्षा करके मंदिर, मस्जिद, पूजा-पाठ, तीर्थाठन आदि करते है उनका यह सब करना भी माता-पिता की सेवा से कम ही है। अगर माता-पिता न होते तो मनुष्य इस धराधाम पर न आ पाता। नारी घर की लक्ष्मी मानी जाती है उसी की शक्ति से ही गृहस्थ जीवन को ऊर्जा मिलती है। घर की देवी को नजरअंदाज करके उसका अपमान करके सफलता नहीं हासिल की जा सकती। यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता निवास करते है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। जहां पर नारी का अपमान होता है वहां पर सुख-समृद्धि कभी नहीं आती। ईश्वर सभी का परम पिता है। किन्तु जहां जन्म देने वाले माता-पिता का तिरस्कार होता है वहां परमपिता एक क्षण भी नहीं टिकते। मनुष्य भगवान् को इधर-उधर खोजता रहता है। लेकिन उसे पता नहीं कि वह खुद ईश्वर का लघु रूप है। अपने कर्मोें से मानव से महामानव बनकर ईश्वर के निकट पहुंच सकता है। इस बात को एक दृष्टान्त के द्वारा यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं- मां एक आंख की कानी थी। उसका लड़का वरिष्ठ राज्याधिकारी था। उसके लड़के से मिलने के लिए अनेक समानित लोग आते थे। एक दिन लड़के ने अपनी मां से कहा तुम्हारे रहने के लिए पड़ोस के भवन में व्यवस्था की गई है। तुम्हारा कान्हापन देखकर लोग उपहास करते है। मां का स्वभाव बहुत शांत था। उसने कहा- पुत्र! मैं तेरे संकेत के अनुसार खुश रहकर कार्य करूंगी। मां दूसरे दिन उस भवन में जाकर रहने लगी और कुछ दिन बाद मां का देहावसान हो गया। जब पुत्र को मां के देहावसान का संदेश मिला तो वह आकर मां का अंतिम संस्कार किया। वहां पर मां के हाथ का लिखा हुआ एक पत्र पाया, जिस पर लिखा हुआ था कि प्रिय पुत्र! मेरे कानेपन के कारण तुझे लज्जा का अनुभव हुआ। मैं तुझे बताती हूं कि जन्म के एक वर्ष बाद तेरी आंख मेें भयानक वेदना हुई डॉक्टर ने यह निर्णय लिया कि इसकी आंख निकाल दी जाये। तब मैंने चिकित्सक से निवेदन किया- इसकी आंख निकालकर मेरी आंख लगा दी जाये जिससे मेरा बच्चा संसार को देख सके और जिन्दगीभर खुश रह सके। डॉक्टर ने वैसा ही किया। मैंने मातृ धर्म निभाया, इस कार्य से मुझे अन्तस्तोष मिला। पत्र पढ़कर पुत्र ने घोर अनुताप किया। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि माता-पिता कष्ट सहकर के भी अपने पुत्र के हित के लिए सबकुछ न्यौछावर कर सकते है। माता करूणा की प्रतिमूर्ति होती है। पिता परिवार में अनुशासन की शिक्षा देते है। करूणा और अनुशासन दोनों के योग से परिवार आगे बढ़ता है। भगवान् शंकर के गणेश और कार्तिकेय दो पुत्र थे। एक बार दोनों की बुद्धि का परिक्षण करने के लिए भगवान शंकर ने कहा जो विश्व का परिभ्रमण करके पहले आ जायेगा वही श्रेष्ठ बुद्धि वाला होगा। कार्तिकेय अपने वाहन पर चढ़कर विश्व परिक्रमा के लिए निकल गये। गणेशजी का वाहन चूहा है वह अपने माता-पिता की ही परिक्रमा करके पहले आकर उपस्थित हो गये। गणेश ने माता-पिता को ही संसार मानकर उनकी परिक्रमा की क्योंकि वहीं उनके लिए भगवान थे। इससे ज्ञात होता है कि माता-पिता ही गृहस्थ के भगवान है, उन्हीं का आशीर्वाद लेना चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)