गरीबी विषमता का उन्मूलन : डॉ. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘‘भारत के सामने गरीबी तथा असमानता दूर करने की दो चुनौतियां सदियों से चली आ रही है’’ उन्होने देश की सामाजीक, आर्थिक स्थितियों, ग्रामीण अर्थ व्यवस्था, विशाल जनसंख्या, व्याप्त गरीबी व विषमता को देखते हुए ऐसे निर्माण व आर्थिक सुधार कार्यक्रम हाथ में लिये थे जिसमें बुनियादी सुविधाये निर्मित हो, उसमें वृद्धि हो व विकास की मजबूत नींव पडे।

नोबल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्यसेन के अनुसार ‘‘आर्थिक समृद्धि से गरीबी और विषमता में कमी होना अवश्यम्भावी है। रोजगार के नये अवसर भी पैदा होते है, बेरोजगार आय प्राप्त कर सकते है, राज्य सरकार की आय बढती है, शिक्षा व स्वास्थय सेवाओं का विस्तार होता है। गरीबों की क्षमता का विकास होता है। प्रोत्साहन व अवसर मिलता है। परन्तु यह भी अवश्यमंभावी नहीं है कि राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि से आमजनता में व्याप्त गरीबी व आर्थिक विषमता दूर हो जाये।‘‘

आर्थिक समृद्धि, सामाजिक, आर्थिक न्याय और विषमता को मिटाने के लिए, समृद्धि का स्वरूप महत्तवपूर्ण है। समृद्धि का स्वरूप अनुकूल होने पर ही विषमताओं में कमी आ सकती है। परन्तु आज जिस तरह से आर्थिक समृद्धि बढ रही है, उससे आर्थिक विषमता बढी है। एक तरफ बेरोजगारी और निर्धनता बढ रही है तो दूसरी ओर थोडे से लोगो के पास अधिकतम आय ओर धन जमा हो रहा है। इससे सामाजिक असन्तोष बढ रहा है, आय का वितरण असमान होता जा रहा है। निर्धनता व अपराध बढे है। अमीरों की सम्पन्ता बढी है। 10 प्रतिशत समृद्धतात्मक लोगो के हिस्से में वृद्वि हुई है। दरिद्रता का प्रतिशत बढा है।

जनसंख्या वृद्धि भी एक महत्वपूर्ण कारण है। प्रतिव्यक्ति आय कम हुई है। शिक्षा, स्वास्थय व आवास की समस्यायें गंभीर हुई है। बेकारी व बेरोजगारी बढी है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच आय का वितरण पहले की अपेक्षा अधिक विषम हुआ है। बाजारी स्थितियां अनुकूल नहीं होने से किसानो पर कर्ज का बोझ बढ रहा है। आर्थिक सुधार की नीति दुर्दशा की ओर ले जा रही है। 

अर्थव्यवस्था में स्थायी विकास का प्रयास आवश्यक है। भौगोलिक कारणो से वर्षा की कमी व असामयिकता बनी रहती है एवं किसी न किसी प्रदेश में बाढ अथवा अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कृषि उत्पादन में सिंचाई माध्यमों से अकाल की स्थिति का सामना किया जा सकता है।

यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि भारत में कृषि विकास के बिना ओद्यौगिक विकास बेमानी होगा। ग्रामीण स्तर पर क्रय शक्ति में वृद्धि हो। घरेलू बचत में वृद्धि हो, कृषि का व्यवसायात्मक उन्यन हो। अतः यह आवश्यक है कि ग्रामीण बुनियादी ढांचे का विकास गांवों को विद्युत व सडक से जोडने, खाद्य प्रसंस्कर, फल, सब्जी, दुग्ध उत्पादन, ग्रामीण एवं गृह उद्योगो में जोडने का प्रयास, सिंचाई परियोजनाओं में तेजी आवश्यक है।

कृषि क्षेत्र में निर्यात को प्रोत्साहन देना तथा प्रोसेसिंग आदि की व्यवस्था करना आवश्यक है। पशुपालकों के लिए चारे के क्षेत्र का विकास व दुग्ध विपणन के लिए सहकारी व्यवस्था में सुधार आवश्यक है। विनियोग व प्रबन्धन की वजह से पशुधन विकास का कार्य नहीं हो रहा।

उन्नत कृषि समग्र विकास का सेतू है। भारत यदि कृषि विकास कार्यक्रम में सफल होता है तो इससे देश के 70 करोड लोगो की क्रय शक्ति में वृद्धि संभव है। जो पुनः सेवा, उद्योग के उत्पादन व घरेलू उपयोग को बढाकर उद्योग व सेवा क्षेत्र की विकास दर के स्तर में वृद्धि करेगा। देश में गरीबी के निवारण हेतुु ग्रामीण विकास के साथ-साथ कृषि का संमवित विकास आवष्यक है। कृषि उत्पादन बढाने हेतु मानसून पर निर्भरता को कम करते हुए सघन सिंचाई संसाधनों का सृजन आवष्यक है। ग्रामीण विकास के साथ ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी ढांचागत सुविधाओं, विद्युत, पानी, शिक्षा, सडक, चिकित्सा व भण्डारण की सुविधाओं पर ध्यान देना आवश्यक है। 

नीति निर्धारकों का कृषि के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार रहा है। इस अवधि में न कृषि का क्षेत्रफल बढा न सिंचाई की सुविधाओं में बढोतरी हुई। भारत को आज भी अच्छे भविष्य के लिए उत्कृष्ट व आधुनिक वैज्ञानिक कृषि सुविधाओं की आवश्यकता है। कृषि पर निवेश राशि को बढाने की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय बढाने के लिए आधारभूत ढांचे के विकास की आवश्यकता है। गांवों में ऐसे लोगों की संख्या को कम करना आवश्यक है जो खुद को कृषक बताते हैं और उसकी आड लेकर कर चुकाने से बचते है। यह लोग राजनैतिक लॉबी के रूप में शक्तिशाली व प्रभावशाली है व लघु कृषकों को मिलने वाला लाभ हडपते है।

देश में ऐसे समाज के निर्माण का लक्ष्य निर्धारित किया गया था जो समतावादी, प्रजातांत्रिक, सहिष्णु व उदार हो, लेकिन 1990 के दशक में हमने उदारीकरण का नया दर्शन अपनाया जिससे आर्थिक समानता का लक्ष्य खण्ड-खण्ड हो गया। बढती हुई मंहगाई और शुल्कों ने आम आदमी की कमर तोड दी है। रोजगार के अवसर कम हुये। बढती मंहगाई, बढते खर्च ने आम आदमी को निराश कर दिया। आम आदमी आज असंतुष्ट है। आर्थिक सुधार आम आदमियों के लिए नहीं खास आदमियों के लिए हो गया। यह बात अब खुलकर सामने आ गई। धनपतियों ने आज बडे-बडे उद्योगों पर ही पूंजी बटोर कर कब्जा ही नहीं किया वरन कृषि भूमियों पर भी कब्जा कर लिया है। खुदरा बाजार पर भी कब्जा कर रहे है। बडे-बडे खुदरा भण्डार खोले गये है जो छोटे खुदरा व्यापारियों, ठेले वालो की स्थिति बदतर कर रहें है। गरीबों की संख्या बढी है-विषमता बढ रही है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)