गांधी जी और पर्यावरण

लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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सन 1945 में गांधीजी ने नेहरू को लिखा था ‘‘दुनिया उल्टी दिशा में जा रही है। पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर लगाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है, हो सकता है हिन्दुस्तान इस पतंगे के चक्कर से नहीं बच सके। मेरा धर्म है आखरी दम तक उसे और उसकी मार्फत दुनिया को बचाने की कोशीश करूं।’’ गांधी भारत की मार्फत दुनिया को बचाने की बात करते हैं और एक आदर्श की तरफ अपने देश को तैयार करना चाहते है, इसलिए यह भी समझते है कि पृथ्वी प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति करने में सक्षम है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती।

गांधीजी के दौर में पर्यावरण शब्द चलन में नहीं आया था। यह आधुनिक शब्द है व इसी से जुड़ा है विकास। विकास और पर्यावरण, विकास बनाम पर्यावरण। गांधीजी अपने प्रत्येक विचार को प्रयोग से जोड़ते थे। कृषि और ग्रामोद्योग को लेकर उनकी संकल्पना एक ऐसे विश्व की परिकल्पना है जिसमें प्रदूषण जैसी किसी बुराई के लिए स्थान नहीं है। वे रासायनिक और औद्योगिक खेती के दुष्परिणामों को शुरूआती दौर में ही समझ गये थे। रसायनों और कीटनाशकों का कृषि में प्रयोग की परिस्थिति को ही महसूस कर रहे थे। गांधी के कृषि एवं उद्योग के विचारों को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालने की प्रक्रिया में डा.जे.पी.कुमारप्पा छिपा है, वह कहा है एक सभ्यता की विशेषता समाप्त होकर दूसरी अर्थात नई सभ्यता की विशेष बातें आने में समय लगता है परन्तु यह स्थिति अगर जल्दी आ रही है तो गड़बड़ी व अव्यवस्था पैदा हो जाती है, आज यही हो रहा है।

गांधी कहते है ‘‘मनुष्य प्रकृति का उपयोग नहीं बेमिसाल शोषण में विश्वास करता है, यह शताब्दियों से हो रहा है परन्तु वर्तमान समय पर अधिक शोषण से जलवायु में जो परिवर्तन 3000 वर्षो में नहीं हुए, बीते 300 वर्ष में हो गये।’’ पिछले सात दशकों में परिवर्तन की रफ्तार में तेजी आई, अब परिवर्तन प्रत्येक वर्ष महसूस होगा। गर्मी हर वर्ष का रिकार्ड तोड देती है। हम सबने ऐसी जीवनशैली अपना ली है जो कमोबेश प्रमृति के सर्वधा प्रतिकूल है। शहरों में सड़को के किनारे अब पीपल, बरगद, नीम जैसे पेड़ दिखाई नहीं देते, उन्हें बेरहमी से हमने काट दिया है। हमारा वृक्षारोपण प्रोग्राम कमजोर, दिखावटी व असफल है।

गैसों के विसर्जन से पृथ्वी के वायुमण्डल का तापमान लगातार बढ रहा है। समुद्र का जलस्तर बढ रहा है, कही तूफान, कही भारी वर्षा, कही सूखा, जानलेवा बीमारियां, अकाल मृत्यु, वायु प्रदूषण आदि। औद्योगिकरण व शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। रासायनिक कचरा, कूडा करकट, प्रदूषित पानी नदियों में छोड़ दिया जाता है। जल में घुली आक्सीजन कम हो रही है। दूषित पानी पीने से केंसर, हृदय, गुर्दा रोग, पेट की बीमारियों से हजारों लोग हर साल मर रहे हैं। वनों की कटाई एक पर्यावरणीय समस्या है। भारत में 10 लाख हेक्टर वन सालाना काटे जा रहे है। वनों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है। वन्यजीव लुप्त हो रहे है। अनाज, फल, सब्जियों में कीटनाशकों का दुष्प्रभाव बढ रहा है जो अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हो रहे है।

विकास की अंधी दौड़ के पीछे मनुष्य प्रकृति का नाश करने में लगा है। शहरों में सीमेंट, कंक्रीट के जंगल खडे हो रहे है। सब कुछ पाने की तलाश में प्रकृति के नियम तौडे जा रहे है। प्रकृति तभी तक साथ देती है जब तक उसके नियमो के मुताबिक मनुष्य अपना जीवन जीने का प्रयास करें। हमें हमारे स्वार्थो के लिए प्रकृति से अधिक नहीं लेना है, जितना आवश्यक हो, उतना ही प्राप्त करना है।

एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। उस व्यक्ति ने नीम की पूरी डाली तौडकर उन्हें लाकर दी। यह देखकर गांधी को बहुत दुःख हुआ व गुस्सा आया, वे बिगड पड़े व डांटते हुए कहा कि जब छोटे से टुकडे से काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यो तोड़ी, यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।

गांधी जी के इस कथन की सीख है, प्रकृति से हमं उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। प्रदूषण रोकने, पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने के लिए गांधी का यही एकमात्र रास्ता है ‘‘जितना जरूरत, उतना दोहन’’ करना। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)