नफरत छोडो - समाज जोड़ो : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

सहमे-सहमे शहर - डरे-डरे गांव

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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‘‘हमने संविधान में अपने देश को धर्मनिरपेक्ष बनाया। इसके यह मायने नहीं है कि हमारा मजहब (धर्म) से कोई नाता नहीं है। इसका मतलब है सभी धर्मो की बराबर इज्जत करना और किसी भी धर्म के मानने वालों को बराबर का अवसर देना।’’ -जवाहर लाल नेहरू

आजादी के बाद जब देश का संविधान बनाया गया उस समय हिन्दु का मतलब हिन्दुस्तान का रहने वाला समझा जाने लगा था। देश का विभाजन मुस्लिम राष्ट्रवाद के नाम से हुआ। भारत में रह रहे मुसलमान एक बारगी देश की मुख्य धारा से अलग-थलग पड गये। इस अलगाव की मनोवृत्ति को दूर करने के अभिप्राय से एवं देश में रहने वाले सभी धर्मो के लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए तथा राष्ट्र की एकता व दृढता बनाये रखने के लिए देश का नाम हिन्दुस्तान रखना ठीक नहीं समझा गया। जवाहर लाल नेहरू, पटेल जैसे राष्ट्रभक्त विचारकों ने देश की संस्कृति व स्वाभिमान के प्रतीक भरत के नाम पर भारत रखा और अलगाव को दूर करने के उद्देश्य से धर्मनिरपेक्ष संविधान की रचना कराई। हिन्दुवादियों की संकीर्णता के बीच धर्मनिरपेक्षता का जन्म हुआ। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1976 में इसे संविधान का अंग बना दिया तथा धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ समाजवाद को जोड़ दिया।

आज की राजनीति में दक्षिणपंथी विचारधारा के चलते जो हाल समाजवाद का हुआ वही धर्मनिरपेक्षता का करने का प्रयत्न किया जा रहा है। आज देश में अरबपतियों करोडपतियों की संख्या व संपत्ति के बढते किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग, वंचित वर्ग पिस रहा है। गरीबी, बेकारी, बीमारी, मंहगाई से आधी से अधिक जनता त्रस्त है, वहां समाजवाद की बात करने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही है। वहीं हिन्दु नाम पर तिलक, छापा, जनरेऊ धारितो द्वारा संकीर्ण मुद्दों को उइाया जा रहा है। हिन्दु धर्म के इन ध्वजधारियों ने द्वंद की एक लम्बी परम्परा चालू की है। इतिहास के पन्नों को खोदा जा रहा है। बहुसंख्यकता व बहुलता को राजनीतिक हथियार के रूप में भारत की राजनीति पर लादा जा रहा है।

धर्मनिरपेक्षता एक राजनीतिक दर्शन है, विचार है, चिन्तन है, सिद्धांत व सर्वहिताय की एक शैली है। धर्मनिरपेक्षता की सही-सही व्याख्या या परिभाषा के विरूद्ध इसे तुष्टिकरण कहा जा रहा है। बहुसंख्यक हिन्दुओं को कहा जा रहा है कि उनकी अवमानना की जा रही है। धर्मनिरपेक्षता को सेक्यूलर यानि धर्म से अलग होना बताया जा रहा है। वैसे धर्मनिरपेक्षता के विरोधी राजनीतिक चलन के दबाब में अपने को धर्मनिरपेक्ष बने रहना कहते है व धर्मनिरपेक्ष होने का दावा कर रहे है, अपने आपको सही मायने में धर्मनिरपेक्ष बताते है, दूसरों की धर्मनिरपेक्षमा को छद्म या नकली कहते है। रटी रटाई भाषा बोलते है, जनमानस को विषाक्त करते रहते है। धर्मनिरपेक्षता के कारण कांग्रेस को दोनों का कोपभाजन बनना पड़ रहा है। हिन्दु-मुसलमान दोनों ही कांग्रेस से नाराज है। दोनों ही वास्तविकता में निरर्थक करार दे रहे है।

जो लोग राष्ट्रवाद व राष्ट्रधर्म का हो-हल्ला मचाते है वे भूल जाते है हमारे शास्त्रों में राजधर्म, सम्प्रदायों, विचारधाराओं व मतमतान्तरों से उपर है, राजधर्म वह धर्म है जो सम्पूर्ण सृष्टि/समाज की व्यवस्था करता है। राजनीति व शासन के मौलिक अधिकार पूरी प्रजा को सुखी रखना है। अहमदाबाद के साम्प्रदायिक दंगों पर भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था ‘‘मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया, मैं विदेश में क्या मुंह दिखाउंगा।’’ कुटिल तथाकथित राष्ट्रवादियों ने राजनीति में इतना जहर घोल दिया कि अंग्रेजों की चलाई विघटनकारी राजनीति दिनोंदिन बढती जा रही है। हिन्दु-मुसलमान परस्पर विरोधी दो धडे बनते जा रहे है। राजनीतिक दल एक दूसरे को दुश्मन समझने लगे है। ये लोग देश का कितना नुकसान कर रहे है उसका मूल्यांकन करना कठिन होता जा रहा है।

हमारे देश का इतिहास व स्वभाव रहा है कि वेद विरोधी गौतम बुद्ध को भी भगवान का अवतार माना है। धार्मिक विद्वेष इस देश के संस्कारों में कदापि नहीं है। हिन्दु मुसलमानों के हर छोटे बडे झगडे या विवाद को बडे जोरों से साम्प्रदायिक करार दिया जाता है। सबसे बडी विकृति यह हो रही है कि सभी मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जा रहा है। विधि निषेध जीवन शैली भिन्न-भिन्न समुदायों की देन है। सभी सम्प्रदाय, मजहब अपने-अपने स्वरूप में विचरित होते है। आज हिन्दु या मुसलमान कहलाने वाले सभी साम्प्रदायिक हो गये, सभी अलग-थलग हो रहे है। 

कम्पोजिट कल्चर समाप्त हो रही है। सभी मान्यताओं वाले लोग इस देश में एक साथ शांति, प्रेम, सद्भाव से रहे, इस देश को अपना समझा, इस देश में आदिकाल से चलता आ रहा है। शिवाजी का सेनापति मुस्लिम, अकबर का हिन्दु था। दूसरे मुल्कों के साथ युद्ध में सभी वर्गो के लोगों ने भाग लिया है, कुर्बानी दी है। धर्मनिरपेक्षता के विरोधी भी अपनी सुविधानुसार इसका अर्थ लगा रहे है। संविधान में स्थापित राष्ट्रवाद ऐसा समाज दर्शाता है जो हर व्यक्ति को आगे बढने का अवसर व अधिकार देता है। वह किसी धर्म, जाति, भाषा या जन्म स्थान से जुडा हो।

धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करने के गांधीवादी, नेहरूवादी और अम्बेडकरवादी सिद्धांत हमारे संविधान की आत्मा है। गांधी हिन्दु और देश भक्त थे। गांधीवादी हिन्दु धर्म को लुप्तकर हिन्दुत्व की संकुचित राजनीति विचारधारा को लाया जा रहा है। महात्मा गांधी एक गौरवान्वित हिन्दू थे। हमें जातिय धार्मिक राष्ट्रवाद के विचारों के खिलाफ लडाई जारी रखनी होगी अन्यथा देश की एकता, स्वतंत्रता, भाईचारा, संस्कृति व समावेशिता कमजोर हो जायेगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)