लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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1922 में भारतीय सिविल सर्विस के लिए परीक्षाऐं लेना आरम्भ हुआ था। 1928 में मोतीलाल नेहरू व 1940 में पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इसे समाप्त करने की मांग की। परन्तु 1947 में देश के हालात को देखते हुए, सेवाओं में बाधा न पड़ने देने की दृष्टि से, पण्डित नेहरू व सरदार पटेल ने सेवाओं का संकल्प सम्मिलित कर सेवाओं संबंधी प्रावधानों को संविधान का अंग बना दिया। उस समय सरकार चलाने के लिए जन नेताओं के पास एक लोहे का चौखटा (अखिल भारतीय सिविल सेवा) था जिसमें 1200 से 1350 तक आदमी (केन्द्रीय अधिकारी) थे जो सदियों से हिन्दुस्तान को चलाते थे। 50 प्रतिशत अंग्रेज थे, जो चले गये। कुछ लोग धनिकों, व्यवसाईयों के पास चले गये, कुछ पाकिस्तान चले गये। चौथा हिस्सा सर्विसेज का बचा रहा। सरदार पटेल इन सेवाओं के अधिकारों व विशेषाधिकारों के पक्षधर रहें। उन्होनें सिविल सेवाओं की भूरी-भूरी प्रसंषा करते हुए उनकी भूमिका व उपलब्धियों की मान्यता पर जोर दिया था। उन्होनें इन सेवाओं के संवैधानिक संरक्षण नहीं करने पर सरकार से त्याग पत्र देने तक की धमकी दे दी थी।
संघ व राज्य के अधिकारियों की भर्ती तथा पदावधि की सुरक्षा, अनुशासन संबंधी संवैधानिक गारन्टी एवं रक्षा के उपायों हेतु स्वतंत्र लोक सेवा आयोग की गठन की व्यवस्था की गई। अनुच्छेद 309 के उपबन्धों के अधीन संघ और राज्य की सेवाओं की भर्ती एवं सेवा शर्तों का विनियमन किया गया। स्पष्ट किया गया कि निर्धारित नीति के अलावा सिविल सर्वेन्ट को पदों से नहीं हटाया जा सकता, परन्तु यह प्रावधान कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रखता केवल प्रक्रियात्मक है।
प्रारम्भिक वर्षो में संसद व विधानसभा में गौरवशाली, प्रतिष्ठित लोग चुने गये। राष्ट्र निर्माण हेतु प्रगतिशील नीतियों का निर्माण हुआ। विभिन्न सांसद उच्च कोटी के प्रबुद्ध व्यक्ति थे। धीरे-धीरे गिरावट आती गई, जन प्रतिनिधियों की योग्यता में कमी आती गई, शासन प्रशासन में कमजोरियां व बुराईयां घर करती गयी। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भ्रष्टाचार, नौकरशाही व लालफीताशाही में बढ़ती गई। सरकारी व्यवस्था का व्यवसायीकरण नतर आने लगा। जनप्रतिनिधियों व नौकरशाहों का गठजोड़ हुआ। पक्षपात, भाई भतीजावाद बढ़ता गया।
स्वाधीनता के बाद हमने नवीन राजनैतिक, आर्थिक लक्ष्य तो स्वीकार कर लिये परन्तु उसको मूर्त रूप देने वाले प्रशासनिक तंत्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किये। वर्तमान में राजनैतिक झगडे, धार्मिक एवं साम्प्रदायिक झगडे आदि के कारण कानून व्यवस्था बिगड़ती है। हमारी असमान आर्थिक स्थिति, सामाजिक व्यवस्था भंग करने के लिए उत्तरदायी है। बढ़ती हुई बेरोजगारी, गरीबी, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, भाई भतीजावाद कानून व्यवस्था भंग करने का कारण है। स्वाधीनता के पश्चात विकास को प्राथमिकता दी गई परन्तु कानून व्यवस्था को उतना महत्व नहीं मिला जितना आवश्यक था। हमारी प्रजातांत्रिक सरकारें स्वयं कानून, नियमों व व्यवस्था के प्रावधानों एवं उनके महत्व से अनभिज्ञ रही। अस्थाई मार्ग खोजे जाते रहे, सुधार के प्रस्ताव समितियों और आयोगों को सौंप दिये जाते रहे। इन संस्थाओं को भी साहसिक नेतृत्व नहीं मिल सका है और वे छोटी-छोटी समस्याओं में उलझकर रह गई।
हमारे प्रशासन एवं नौकरशाही की भूमिका प्रशासन को निरन्तर स्थाईत्व एवं समंवय रखने तक सीमित रही है। नियमों की पालना और छोटे-छोटे निर्णय लेने की प्रक्रिया जब स्पष्ट नहीं रही तो लालफीताशाही का जन्म हुआ। प्रशासन में लिप्त अधिकारी व कर्मचारी राजनीतिज्ञो व दलो के एजेन्ट के रूप में कार्य करने लगे तो सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिस्थितियों ने उनकी प्रतिबद्धता समाप्त कर दी। पक्षपात, भाई भतीजावाद, जातिवाद जैसे तत्वों को महत्व मिलने लगता है और जिम्मेदारी टालने की प्रवृति बन गई। उत्साही व उद्यमी नौकरशाह अनुत्साही व अनिरूद्ध बन गये। नाकारा व्यक्तियों को पुरस्कार व लाभ मिलना प्रारम्भ हो गया। अच्छे कार्यो के लिए पुरूस्कृत एवं बुरे के लिए दंड की स्थिति समाप्त हो गई। शिष्टता एवं सहयोग के स्थान पर अशिष्टता एवं असहयोग हो गया। नौकरशाही का काम फर्राटे से दौरा करने, विशिष्ट व्यक्तियों के सत्कार व्यवस्था में व्यस्त रहने तक सीमित हो गया। जन समस्याओं का संवेदनशीलता के साथ निराकरण की प्रतिबद्धता समाप्त होती गई। वर्तमान में शासन के जन समस्याओं के प्रति उदासीन होने से स्थिति और बिगडती जा रही है।
आज वेतन को पेंशन समझा जाने लगा है। सुविधाओं व अन्य स्रोतों से कमाई की लालसा बढ़ती जा रही है। जिलास्तरीय प्रशासन व न्ययिक प्रशासन में अत्यन्त गिरावट आ गई है। राजस्व सेवा व पुलिस प्रशासन की स्थिति तो और भी बदतर हो गई है। मुल्जिमों को सजा नहीं मिलती एवं संगीन मामलों में भी मामूली जुर्माना किया जाकर छोड दिया जाता है । मुकदमों के निस्तारण में देरी होती है। नागरिक व्यवस्था ठप्प होती जा रही है, आम लोगों से अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है, भ्रष्टाचार होता है, आम जनता सोचती है कि इतनी बड़ी अफसरों की फौज किस लिए तैनात की गई है। अब प्रशासन जागरूक सचेष्ट निष्पक्ष नहीं है। राजस्व अधिकारी किसानों का मुनीम होता है, परन्तु लोगों को अपने अभिलेखों की प्रतियां भी आसानी से उपलब्ध नहीं होती है। आम जनता यह सोचती है कि सिपाही से लेकर थानेदार, पटवारी से लेकर राजस्व अधिकारी, लाईनमेन से लेकर अफसर, वार्ड ब्याय से लेकर वरिष्ठ डाक्टर सभी आम जनता की अवहेलना कर रहे हैं और सभी भ्रष्ट है।
प्रशासनिक सुधार के नाम पर नये-नये महकमे स्थापित करने की प्रक्रिया तेजी से चल पड़ी है। पीडब्लूडी, स्वास्थ्य, शिक्षा, लेखा, पुलिस, विकास विभाग में नये कार्यो के लिए नये महकमे बन रहे है, अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए महकमों की भरमार होती जा रही है। विभागीय जांच, विजीलेंस, भ्रष्टाचार निरोधक विभाग आदि में अधिकारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। परन्तु कोई यह नहीं महसूस करता कि आम जनता की समस्याओं का समाधान नहीं हो रहा है। ब्यूरोक्रेसी को आज लोग बुुरोकरसी कहने लगे है। राजनैतिक हस्तक्षेप के बगैर आम जनता की समस्याओं का समाधान संभव नहीं हो रहा है। अधिकारियों की नियुक्ति प्रशासनिक दक्षता को देखकर नहीं हो रही है।
स्वाधीनता के बाद विरासत में प्राप्त प्रशासन उत्तरदायी बन गया परन्तु उसका रवैया अभी भी वैसा ही है जो उस समय केवल प्रशासनिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक समझा गया। स्वाधीनता के बाद हमने नवीन राजनैतिक, आर्थिक लक्ष्य तो स्वीकार कर लिया किन्तु उसको मूर्त रूप देने वाले प्रशासनिक तंत्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किया। हमारी पुलिस जो कानून की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, आज भी सामान्य नागरिक को अपराधी मानती है और आम जनता में यह धारणा है कि पुलिस सामान्य जनता की रक्षक नहीं है। कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने का दूसरा बड़ा कारण राजनैतिक हस्तक्षेप है। देश में गठित पुलिस आयोग के अध्यक्ष धर्मवीर ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया के किसी भी देश में चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा इतना हस्तक्षेप नहीं किया जाता जितना भारत में होता है। जो अधिकारी राजनीतिज्ञों की बात नहीं मानते वे निरन्तर तबादले, अपमान व अन्य मुसीबतों से आशंकित रहते है। हमारी सामाजिक, आर्थिक स्थिति भी कानून व्यवस्था बिगाड़ती है। असमान आर्थिक स्थिति, सामाजिक व्यवस्था भी इसके लिए उत्तरदायी है। हमारी प्रजातांत्रिक सरकारें स्वयं कानून, नियमों व व्यवस्था के प्रावधानों एवं उनके महत्व से अनभिज्ञ है।
प्रशासनिक व्यवस्था व नौकरशाही को उत्तरदायी बनाने के लिए राजनैतिक हस्तक्षेप को रोकने की आवश्यकता है। संवैधानिक संस्थाओं का राजनैतिक इस्तेमाल रोकने की आवश्यकता है। राजनैतिक हस्तक्षेप के बगैर आम जनता की समस्याओं का समाधान हो, अधिकारियों की नियुक्ति प्रशासनिक दक्षता को देखकर हो, उनको अच्छा कार्य करने पर पुरूष्कार एवं गलती करने पर दंड मिले। शीर्षस्थ अधिकारीशालीनता व सद्व्यवहार अपनाये जिससे नौकरशाही के प्रति अविश्वास की भावना में सुधार हो, शासन प्रशासन में विश्वास हो, जन समस्याओं का निराकरण हो और कानून व्यवस्था में सुधार हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)