संकट में नदियां बचाना जरूरी : मीणा

लेखक : राम भरोस मीणा

(एल पी एस विकास संस्थान , लेखक जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता व समाज विज्ञानी है।)

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भारत वर्ष नदियों का देश के नाम से प्रसिद्ध रहा, नदियों को मां स्वरूप समझते हुए पूजते, लेकिन नदियों पर बढ़ते संकट को देखते हुए यहां आने वाले समय (दो तीन दशकों) में महा नदियां ही भविष्य में मेली कुचली गंदे नाले के रूप में बच सकेंगे । जिस देश में हर गांव, शहर, राज्य की खुशहाली के लिए इन का उदय हुआ, पवित्र मानी गई, पुजा की गई, आज एक नाली अथवा गंदे नाले के रूप में  देखी जा रही जो एक चिंतनीय, निंदनीय, स्मरणीय विषय है। मानव के बढ़ते अत्याचारों , नैतिक पतन, संस्कार और संस्कृति से दुरी के कारण ऐसा हुआ। गंगा यमुना गोदावरी नर्मदा व्यास कृष्णा कावेरी अपनी पहचान खो रही, दुसरी तरफ स्थानीय छोटी-बड़ी नदियां अपने गिनती के सांस गिनने में लगी हुई दिख रही । नदियों के उद्गम स्थल पर बढ़ते अतिक्रमण, सरकार, सत्ता, व शासन की अनदेखी, उपेक्षा से आज देश की सैकड़ों हजारों नदियां अपना अस्तित्व खतरे में मान रही । 

नदियों के बहाव क्षेत्र में कृषि होने, फार्म हाउस बनाने से राजस्थान की बाणगंगा, साबी जैसी नदियां इसके जिंदे उदाहरण हैं। अलवर जिले की रूपारेल, नारायणपुर वाली नदी, रामपुर वाली नदी, सरसा, अरवरी नदी अतिक्रमण की चपेट के साथ प्रकृति की मार झेलते हुए आज सांसे गिन रही, आने वाली पीढ़ियां इनका अस्तित्व नहीं पहचान सकेंगे जो वर्तमान पीढ़ी के लिए अभिशाप है। नदियों के अस्तित्व पर बढ़ते खतरे को लेकर कार्य कर रहे एल पी एस विकास संस्थान के अध्यन से  पाया गया कि नदियों के उद्गम स्थल जो रहे वहीं पर उसके लिए अवरोध पैदा कर दिए गए, फार्म हाउस बना दिए गए, रास्तों के नाम उची दीवारें लगा दी गई, बिना सोचे समझे एनीकट, चेक डैम, जोहड़ का निर्माण किया गया। लगातार बहाव क्षेत्र के अंतिम स्थान तक इस प्रकार के व्यवहार से नदियों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है, अस्तित्व खत्म होने से बहाव क्षेत्र में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां, वन्य जीव नष्ट हुए, जिसके कारण यहां का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा ने लगा,  जल संकट पैदा हुआ, मौसम में रूखापन पनपा जिससे  आम जन के साथ वन्यजीव संकट में है। पीने योग्य मीठे पानी की किल्लत के साथ कृषि जल के लिए संकट खड़ा हो गया, वनों पर दबाव बना, पारिस्थितिकी तंत्र तथा वन्यजीवों के लिए खतरा बढ़ा।

नदियों के  क्षेत्र में बढ़ते अतिक्रमण से नदियों को बचाने की समस्या के साथ मानव निर्मित आपदाओं का संकट पैदा होने की आशंका से टाला नहीं जा सकता प्रकृति के नेचर को किसी ने जाना नहीं । यदि किसी समय बादल फटने जैसी घटना हुई तब पानी की निकासी के लिए रास्ता मिलना मुश्किल होगा साथ ही एक बड़ी समस्या पैदा होगी, जल का अपव्यय होगा, भूमि में कटाव पैदा होगा, वही जनहानि से टाला नहीं जा सकता। बढ़ते अतिक्रमण में मानव की नदियों के प्रति निर्दयता को देखते हुए आज नदियों के संरक्षण की आवश्यकता है, उद्गम से अंतिम छोर तक जो अवरोध बनाए गए उन्हें हटाया जाए, नदी क्षेत्रों का सीमांकन हो, वन भूमि, गोचर, गैर मुमकिन पहाड़ों, नालों, बिहड़, वन क्षेत्र, शिवाय चक भूमि से बढ़ते अतिक्रमण  रोककर प्राकृतिक वनस्पति को बढ़ावा दिया जाए।  जिससे प्राकृतिक संतुलन बराबर बना रह सके, नदियां बह सके, बढ़ते जल संकट से बचा जा सके, आने वाली पीढ़ियां गंगा स्वरूप नदियों को पहचान सके, देख सके, निहार सकें, आपदाओं से बच सकें। (लेखक के अपने निजी विचार है)