22 अप्रेल पृथ्वी दिवस पर विशेष
लेखक : सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड : आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
www.daylife.page
प्राकृतिक वातावरण के तत्व या पदार्थ, धरातल, मिट्टी, जल, वनस्पति, पशु खनीज आदि मनुष्योपयोगी होने के कारण प्राकृतिक संसाधन है। मानव स्वयं एक संसाधन है, मानव उपयोगी में आने वाले तत्व यथा भूमि, मिट्टी, जल, प्राकृतिक वनस्पति वन, जीवजन्तु, खनिज, आदि को भी संसाधन की संज्ञा दी गई है। मनुष्योपयोगी प्राकृतिक संसाधन में प्राकृतिक वातावरण के तत्व व पदार्थ है। मानव सभ्यता के विकसित स्तर के जटिलतापूर्ण अन्र्तसम्बन्ध बहुत बडे प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावहीन बना रहे है और मानव आवश्यकताये प्रकृति के संसाधनों को प्रभावित कर रहे हैं। कई दशाओं में मानव इन प्राकृतिक तत्वों का विनाश करने लगा है।
बढती आबादी और लालसा के चलते जीवन के अनुकूल संसाधनों का अनुपात गडबडा रहा है। जिसका असर हमारे जीवन और जरूरतों पर पडता है। हवा और पानी के बाद वन पृथ्वी के सबसे महत्वपूर्ण संसाधन है। पृथ्वी से जंगल तेजी से कम हो रहे हैं। 2000 से 2018 के बीच 18 वर्षों में 1.1 अरब हैक्टर वनक्षेत्र में 10 करोड हेक्टर वन कम हो गया जिससे खाद्य व पर्यावरण संकट सामने आ रहा है। जंगल कम होने से पर्यावरण सन्तुलन बिगड रहा है, जैव विविधता प्रभावित हो रही है। इससे मानव और अन्य जीवों का जीवन संकट में आ रहा है। 1990 में वैष्विक आबादी 1.6 अरब थी जो 2021 तक 7.9 अरब हो गई। वन व रहने योग्य भूमि 06 अरब हैक्टर से 5.7 फीसदी कम हो गई। उष्ण और समषीतोष्ण जंगल 4.6 अरब हेक्टर कम हो गये। 42 फीसदी घास के मैदान और झाडियां थी। वन 30 प्रतिषत कार्बन अवषोषित करते हैं। हर वर्ष विश्व में जंगल 4.18 प्रतिषत यानि 682344 वर्गमील घट गया ।
आर्थिक विकास के नाम पर प्रकृति के संसाधनों के दोहन ने राक्षसी रूप ले लिया है। प्रकृति के उपादानों के षोषण की सीमा नहीं रही हैं पर्यावरण संबंधी अनेक समस्याऐं प्रकट होने लगी है। वायु प्रदूषण आज ऐसा संकट बनता जा रहा है, उसकी व्यापकता व कुप्रभाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जो मानव सहित सभी जीवधारीयों के लिए खतरा पैदा कर रहा है।
भारत में हजारों वर्ष पूर्व ’’वसुधैव कुटुम्बकम’’ की अवधारणा को स्वीकार किया गया था। इस अवधारणा के कारण जहां एक ओर स्वावलम्बन भारतीय अर्थतंत्र का आधार बना वहीं सादा जीवन उच्च विचार के कारण जीवन में संतोष आधारित सुख चैन का प्राद्यान्न था। भारतीय जीवन षैली प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर सहज व शोषण मुक्त बनी रही। कृषि, पषुपालन, और गृह उद्योग आधारित अर्थतंत्र में स्वावलम्बन की भावना जीवन का लक्ष्य था।
देष के नव निर्माण के लिए प्रजातंत्रीय षासन व्यवस्था के अन्तर्गत योजनाबद्ध विकास की नीति अपनाई गई और पंचवर्षीय याजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी गई। केन्द्र नियंत्रित विकास योजनाओं का निर्माण हुआ, हरित क्रान्ति के बाद देश खाद्यान्न में निर्भर हो गया परन्तु जनसंख्या वृद्धि के साथ कृषि पर बढते दबाव के कारण गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षता और बीमारी को कुचक्र से निबटना कठिन रहा।
1990 में भारत ने भूमण्डलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की नीति अपनाई। इसका प्रभाव व्यापार के साथ-साथ जीवनशैली पर पडा। उपभोक्तावाद को प्रश्रय मिला। जीवन शैली पर प्रभाव पडा। अर्थव्यवस्था बाजारोन्मुख बन गई बहुराष्ट्रीय कम्पनिया पेयजल का बाजार बनाने में सफल हुई। सिंचाई, निजी पूंजी निवेश व्यवस्था को प्राथमिकता नही मिली। नियोजित विकास की अवधारणा को छोड दिया गया।
वन विनाश के कारण भारत की जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव प्रकट होने लगा है। महानगरों में वायु प्रदूषण भयानक स्थिति में पहुंच गया। प्रकृति प्रदत्त जल स्त्रोतों को प्रदूषण मुक्त करने के बजाय प्रदूषण फैलाने वाला प्रक्रियाओं को प्रश्रय दिया जा रहा है। प्रतिकूल जैव प्रौद्योगिकी की घुसपैठ चिन्ता का विषय बन गया है। क्षेत्रीय असन्तुलन बढ रहा है। प्रकृति के प्रति आस्था और आचरण को डिगाने का जो प्रयास व प्रयत्न वह समाज व राष्ट्र हित में नहीं है।
ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण स्वच्छ जल के बहुमूल्य भंडार हिमनद पिघलते जा रहे हैं, ताजे पानी के जलाशय नष्ट होंगे, बाढ, सूखे का खतरा बढ गया है। कृषि योग्य भूमि में कमी, मत्स्य व खाद्यान्न भंडारों पर विपरीत प्रभाव, समुद्री जल स्तर में वृद्धि से तटवर्तिय क्षेत्रों का क्षरण, पलायन व संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ रही है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत पर भी पड रहा है। मानसून की बढी अनिष्चितता, षुष्क क्षेत्रों के किसानों के सामने आने वाली परेषानी, भारतीयों के जीवन को प्रभावित कर रही है। भारत को केवल अन्तर्राष्ट्रीय कदमों पर निर्भर रहने की बजाय राष्ट्रीय कार्ययोजनाओं के षीघ्र अंतिम रूप देना चाहिए। प्रौद्योगिक ऊर्जा दक्षता और उत्सर्जन में कमी जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य योजना बढाने की आवष्यकता है। आर्थिक विकास और ठोस पर्यावरण नीतियों में परस्पर टकराव नहीं है उन्हें साथ-साथ आगे बढाया जा सकता है। वायु प्रदुषण का कुप्रभाव मनुष्य के साथ अन्य जीवधारीयों, मकानों, धातु के संयत्रों और मौसम पर पड रहा है व तापमान में उतार चढाव से सांस संबंधी रोग बढ रहे हैं। गैसों से कटौती से सेहत में सुधार होगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)