लेखक : राम भरोस मीणा
(लेखक : पर्यावरण कार्यकर्ता व समाज विज्ञानी है)
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वनों के विकास व संरक्षण को लेकर विश्व स्तर पर प्रत्येक देश, देश की सरकारें हमेशा यही कहते आई है कि वनों को बचाया जाए, संरक्षण दिया जाए। इन सब को ध्यान में रखते हुए वन भु भागों में सीमांकन, बाउंड्री वॉल, फेंसिंग के साथ नये सम्भावित वन क्षेत्रों को तलाश कर वन तैयार करने का प्रयास जोरों पर वर्षा से पुर्व कर करोड़ों पौधें हर साल लगाए जाते रहे, लेकिन इससे ना वनों का विकास हुआ ना ही वन क्षेत्र सुरक्षित हो सकें। आज भारत में 16 प्रतिशत वन बचें जो प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए बहुत कम है। राजस्थान में वनों की दशा दिनों दिन बिगड़ती जा रही है वन क्षेत्रों को बढ़ाया जा रहा लेकिन वन नष्ट हो रहे जो एक चिंता का चिंतनीय विषय है। वनों के अंधाधुंध दोहन, बढ़ते अतिक्रमण, खनन, उपयोगी लकड़ियों की बेशुमार अवैध कटाई, बड़ती आगजनी ने भौगोलिक व पारिस्थितिकी तंत्र को बदलने के लिए मजबूर कर दिया। वन क्षेत्रों में वन्य जीवों के अनुकूल प्राकृतिक वातावरण नहीं रहा जिसके चलते अपना स्थान छोड़ आबादी या कृषि भूमि की ओर दोडने लगें जिससे आये दिन इन्हें मोत का सामना करना पड़ता है।
अलवर जिले (राजस्थान) के सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र के चारों ओर वन, वनस्पति के संरक्षण की बहुत आवश्यकता है।बाघ (टाइगर) के साथ साथ विभिन्न प्रकार के वन्यजीवों के संरक्षण व बढ़ते बाघों के कुनबे के साथ यहां अन्य वन्य जीवों (पेंथर) का संरक्षण जरूरी हो गया, लेकर इस हेतु वनों के क्षेत्र में बढ़ोतरी के साथ वनों को संरक्षण मिलना आज की आवश्यकता है। वन क्षेत्रीय के उजड़े वनों को पुनः तैयार करने के लिए सरकार बातें करने लगी लेकिन वर्तमान में उजड़ते वनों को सुरक्षा देने की कोई बात नहीं कर रहा। रिजर्व वन क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं रहें।
ग्रामीण वन (सामलात देह), नदी, नाले, बिहड़, रूंध, देव बनीं व निजी क्षेत्र में ऊपजे वन रात दिन आरी के हत्थे चढ़ रहें । मशीनों पर किवंटल, किलों ग्राम के भाव बिकते आम जन के साथ जिम्मेदार वन प्रहरी इन्हें देख रहे।नीम, शीशम, पीपल, गुलर, रौजं, खैर, कीकर, जैसे दर्जनों प्रजातियों के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने यहां के प्राकृतिक वातावरण को नष्ट कर दिया। राष्ट्रीय बाघ परियोजना क्षेत्र के चारों ओर हर वर्ष वृक्षारोपण कर क्लोजर तैयार किये जातें हैं। प्राकृतिक वनों को बचाने के लिए प्रयास नहीं, परिणाम स्वरूप स्थिति " जहां की तहां " बनी रहती। वर्तमान समय में वनों का विकास होना बहुत आवश्यक है बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग, वर्षा काल के घटते, गिरते जलस्तर, वन, वनस्पति के संरक्षण को लेकर दोहरी नीति से काम नहीं हो जिससे बिगड़ते पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र को बचाया जा सके इस के लिए निम्न सुधारों की आवश्यकता है:-
1. नदी क्षेत्रों को संरक्षण प्राप्त हो :- नदी नालों के बहाव क्षेत्रों में 100 प्रतिशत अतिक्रमण के साथ वनस्पतियों को नष्ट कर दिया गया, बहाव क्षेत्रों में कृषि होने लगीं या बहुमंजिले इमारतें बनाने लगीं जो प्राकृतिक संतुलन खराब कर रहीं हैं इन्हें रोक कर पुनः बहाव क्षेत्रों को विकसित किया जाए जिससे वनस्पति के साथ वन्य जीवों को संरक्षण प्राप्त हो।
2. ग्रामीण क्षेत्रों में उजड़े वनों को पुनः आबाद किया जाए :- ग्रामीण वन, बनी, देवबनी, रुंध, गोरवा, जोहड़, सिवायचक भूमि से उजड़े वनों को पुनः जन सहभागिता कार्य कर्मों के माध्यम से आबाद किया जाए ये पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करने का जितना जिम्मा लेते हैं उतने ही पक्षियों, पशुओं के आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।
3. नये वनों के साथ पुराने वनों को संरक्षण प्राप्त हो: - वनों के विकास के लिए हर वर्ष जो प्रयास कर लाखों नये पौधें लगाएं जाते वो "ऊंट के मुंह में जीरा" वाली कहावत सिद्ध होती हैं, सरकार, समाज, पर्यावरण प्रेमी, सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वे नये वनों के विकास के साथ पुराने वनों को संरक्षण दे,आज इन्हें संरक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है।
4. दोहरी नीति को बदलें :- वनों के विकास में सरकार की दोहरी नीति के चलते नये वनों को पुर्ण संरक्षण दिया जाता है जबकि पुराने वन उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं जिससे वन वनस्पति दोनों का नुक़सान होता है, सरकार को चाहिए की नये वन क्षेत्रों के साथ साथ पुराने वनों को संरक्षण प्रदान करें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार है)