(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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भारतीय गणतंत्र का संविधान लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित है। संविधान में लोकतांत्रिक ढंग व जनता की भागीदारी से सामाजिक समस्याओं एवं विवादों का व्यवस्थित हल करने का स्पष्ट उल्लेख है। जाति विहीन, वर्ग विहीन समाज की परिकल्पना की गई है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक बराबरी, समानता व समता को संविधान की प्रस्तावना में गारंटी दी गई है। नागरिकों से संबंधित व्यापक सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक उद्देश्यों को पाने व बढ़ावा देने के लिए संविधान के अनुच्छेदों में स्पष्ट प्रावधान है। मौलिक अधिकारो के साथ नीति निदेशक तत्व व कर्तव्यों द्वारा दिशा निर्देश दिये गये है। संविधान की मूल भावना का उल्लंघन, लोकतांत्रिक भावनाओं का उल्लंघन सरकारों द्वारा भी संभव नहीं है।
देश में व्याप्त सामाजिक विषमताओं, बुराईयों, भेदभाव, कुप्रथाओं व कुरीतियों यथा बाल विवाह, बेमेल विवाह, दहेज, पर्दा प्रथा, नाता छुटकारा के संबंध में स्पष्ट कानून व कानूनी प्रावधान है परन्तु इस देश में जाति, वर्ण व्यवस्था, समाज व्यवस्था की नींव के पत्थर है। सामाजिक व्यवस्थाओं को धार्मिक मान्यताओं से बल मिला हुआ है। प्रभावशाली जातीय, धार्मिक पंचायतें सुदृढ़ सामाजिक संस्थायें हैं। धार्मिक कट्टरपन से वर्तमान सामाजिक एवं राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति में मददगार है। आज भी आईपीएस अधिकारी की बारात पुलिस संरक्षण में निकलती है। आज भी जातीय पंचायते लाखों का जुर्माना व अमानुषिक दण्ड दे रहे है, महिलाओं व बच्चों में सर्वाधिक कुपोषण व्याप्त है, दलित व महिलायें नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे है। चिन्ताजनक तथ्य यह है कि स्पष्ट संवैधानिक व कानूनी प्रावधानों के बावजूद जनतांत्रिक सिद्धांत दरकिनार है। सरकार व जनप्रतिनिधियों द्वारा स्पष्टः उल्लेखित प्रजातांत्रिक अधिकारों को दबाने का ही प्रयास होता है। सामाजिक चेतना, दृष्टिकोण में बदलाव के असरदार प्रयास नहीं है।
वर्तमान भाजपानीत गठबंधन सरकार का नेतृत्व यह सोच रहा है कि इस कवायद से उनके धार्मिक कट्टरपन से संबंधित सामाजिक व राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होगी। सरकार इस संबंध में अपने इरादों को स्पष्ट नहीं करना चाहती। सरकार के इरादों में उद्देश्यों को लेकर व्यापक शंकाये बनी हुई है। संविधान की मूल विशेषताओं, लोकतांत्रिक ढांचे व संवैधानिक संस्थाओं की समीक्षा नहीं की जा सकती इसलिए उसकी अवहेलना कर कमजोर बनाया जा रहा है। नीति निर्धारण तथा जनता के प्रति जबाबदेही संबंधी सार्वभौमिक प्रजातांत्रिक अधिकारों को दबाने का भी प्रयास हो रहा है। इनके विचार में देश सिर्फ एक भौगोलिक और राजनीतिक इकाई है जिसका आम लोगों से कोई लेना देना नहीं है। निजीकरण, उदारीकरण नीति लागू करने वालों का विचार है, सरकार का हस्तक्षेप वैयक्तिक उद्यमों को सीमित कर देता है जिसको वे बढावा देना चाहते है इसलिए निजीकरण व मानेटाइजेशन किया जा रहा है। बाजारोन्मुख विकास के हिमायती वंचित एवं शोषित वर्ग को किसी तरह के रियायत के अयोग्य एवं अक्षम समझते है, सामाजिक बदलाव व प्रचलित मान्यतायें व्यवस्थाओं में सुधार उनके एजेन्डे में नहीं है। धार्मिक एजेन्डा प्रमुख है। उनके अनुसार लोग जब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थिति से उबरने के लिए प्रयासरत होते है तो सिर्फ तनाव पैदा होता है और उच्च् वर्ग के प्रभाव कमजोर पड़ने लगते है।
वयस्कों के मतदान के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था होने के बावजूद अधिसंख्य भारतीय आबादी को सामाजिक-राजनीतिक असमानता की विकास प्रक्रिया से बाहर रखा जा रहा है। सुनियोजित तरीके से आर्थिक, सामाजिक विकास के प्रयास धीमे एवं अव्यवस्थित है।
पचास के दशक में जमींदारी व्यवस्था की समाप्ति, साठ के दशक में हरित व दुग्ध क्रांति ने कुछ प्रतिशत श्रमिक व वंचित वर्ग की भागेदारी सुनिश्चित की परन्तु वर्तमान कार्यक्रमों से यह विचारधारा निकली कि सुदृढ तबके को ही सामाजिक मान्यता एवं राजनीति अधिकार मिलने से ही देश के वंचित वर्गो का विकास स्वतः हो जायेगा। आर्थिक विकास प्रजातांत्रिक व्यवस्था व सामाजिक व्यवस्था के बदलाव देने की बजाय संकुचित करने की ओर हो गया। श्रमिक वर्ग में असंतोष व प्रतिरोध बढ़ रहा है, समाज व राजनीति निर्माण के अवसर सीमित हो रहे है परन्तु उस पर कोई ध्यान नहीं है। वर्तमान सरकार व संभ्रांत व सम्पन्न वर्ग चाहता है व्यवस्था का प्रजातांत्रिक स्वरूप तो परिलक्षित हो पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की आत्मा व सत्व किनारे कर दिया जाय। यह सामाजिक, आर्थिक बदलाव का संक्रमणकाल है।
भारत को स्वतंत्रता दिलाने, लोकतंत्र की नींव को सुदृढ करने व सुनियोजित विकास की नींव रखकर आगे बढ़ाने वाली कांग्रेस पार्टी का दबदबा कम हो गया। आर्थिक, सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया धीमी पड़ गई, सरकारी तंत्र व सरकार की निर्णय प्रक्रिया संसदीय अधिकारिता से उलट व्यक्तिगत अधिकारिता की ओर मुड गई। शासन में प्रधानमंत्री की स्वच्छन्द नीतियों और मानदण्डों को ही संवैधानिक प्रावधानों के उलट अमलीजामा पहनाया जा रहा है। पार्टी व सरकार जनता के समक्ष वोट मांगते समय व्यक्त की गई प्रतिबद्धताओं व वायदों को धता बता रहे है। देश में सामाजिक बदलाव इकतरफा हो रहा है। गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, मंदी, मंहगाई, भ्रष्टाचर, असमानता बढ़ रही है। किसान, मजदूर, पिछडों व वंचित वर्ग में बदलाव थम गया है।
आर्थिक नीतियां कारपोरेट सेक्टर के हितों को देखकर बनाई जा रहा है। जातिवाद, वर्ग भेद, धार्मिक कटुता बढ़ रही है। असहिष्णुता, असहमति व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कम होती जा रही है। समाज में दो वर्ग बनते जा रहे है, सुदृढ़ होते जा रहे है। लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समता व समानता संविधान तक सिमट गये है। सामाजिक, आर्थिक समस्याओं का संवैधानिक हल धुंधला होता जा रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)