आजादी का अमृत महोत्सव : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. है)

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जिस आजादी के लिए सैकड़ों-हजारों लोगों ने हंसते-हंसते गोलियों का शिकार होकर, फांसी पर चढ़कर अपने प्राण न्यौछावर किए हों, जिसके लिए हजारों-लाखों ने जेल की यातनाएं या मार सही हो, जिस आजादी के लिए लाखों लोगों ने तरह-तरह के कष्ट सहे हो, कुर्बानियां दी हो उसकी याद सचमुच जश्न मनाने का अवसर है। पचहत्तर वर्ष जिस दिन एक लम्बे संघर्ष के बाद हमारा देश आजाद हुआ, उस दिन एक नये भविष्य के सुखद सपनों के कारण एक उमंग और आशायें थी। अब उसकी 75वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है, जलसे मनाये जा रहे है परन्तु आम जनता में वैसा उल्लास दिखाई नहीं देता। 15 अगस्त व 26 जनवरी समारोह अब सरकारी समारोह बन गये है।

आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास प्रारम्भ हुआ। कृषि, सिंचाई, विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, विज्ञान के क्षेत्र में बहुउद्देशीय  वृहत योजनायेंब नी, देश विकास के पथ पर चल पड़ा। जागीरदारी, जमींदारी समाप्त हुई, बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ, उत्पादन व लोगों की आमदनी में इजाफा हुआ।

अंग्रेजी शासन व गुलामी से मुक्त होने की घटना और उसकी याद आज देश के आम आदमी के दिल में उत्साह पैदा नहीं कर रही है,  वे सुनते तो है कि उसका देश स्वतंत्र है, देश में अपना राज है, हर पांच साल में वह अपने उपर राज करने वाले लोगों को चुनता है। उस वक्त हर उॅूीदवार या पार्टी जो वोट की याचना करते है, उसे तरह-तरह के आश्वासन देते है, सब्जबाग दिखाते है, सब कुछ करते व कहते है जो उसे वोट दिला दे। बैंक खातों में रकम जमा होने, नौकरियां देने, असमानता, मंहगाई, गरीबी, दरिद्रता दूर करने के वायदे करते है लेकिन कुछ नहीं होता, न कुछ बदलता है बल्कि उसका उल्टा ही होता है, उसकी समस्यायें बढ़ती जाती है। गरीबी, मंहगाई, बेकारी हर बार उसे पहले से ज्यादा मुसीबत में डालते रहते है।

आम आदमी के असन्तोष की आग पर पानी डालने, उसके दुख दर्द, गरीबी मिटाने के नाम पर सरकारें रोज नई-नई योजनाओं की घोषणा करती है, कभी आवास योजना, कभी रोजगार योजना, कभी शिक्षा योजना तो कभी स्वास्थ्य योजना, कभी कृषि योजना तो कभी बेटी बचाओं-बेटी पढ़ाओं योजना, कभी पशुपालन योजना। उसके लिए करोड़ों अरबों का प्रावधान भी किया जाता है पर उसका बड़ा अंश बीच में ही गायब हो जाता है, जहां पंहुचना चाहिए वहां नहीं पंहुचता। अब संचार माध्यमों के जरिये, सोशियल मीडिया द्वारा, भाषणों के जरिये प्रचार पर अधिकांश खर्च हो जाता है। इनके द्वारा आम आदमी की बुद्धि कुंठित कर असलियत पर पर्दा डाला जा रहा है।

विकास योजनायें बड़ें लोगों के लिए होती है, साधारण व्यक्ति-किसान, मजदूर, आदिवासी इन योजनाओं के लिए जल, जंगल, जमीन आदि संसाधनों से वंचित होते है जो प्रकृति ने उनके लिए पैदा किये हैं और जिनके सहारे ये करोड़ों लोग पुश्तों से अपना जीवन चलाते रहे है, बड़ी योजनाओं के लिए घरबार, खेत खलिहान से बेदखल किये जाते हैं। दूसरी और वह देख रहा है जो लोग गरीबी, बेकारी आदि समस्यायें दूर करने का बार-बार वायदा करके उसके वोटों के बल पर विधानसभाओं और संसद में, मंत्रीमण्डल में पंहुच गये है उन्होंने जनता की सेवा के नाम पर अपने लिए न सिर्फ वहां उंचे वेतन, तरह-तरह के भत्ते व सुविधायें जुटा रहे है, गैरकानूनी और गलत हथकंडों से अकूत जमीन जायदाद व धन सम्पत्ति भी इकठ्ठी कर रहे है।

लोगों की समस्याएं हल हों या न हों जनप्रतिनिधि कानून बनाने के अपने अधिकार का उपयोग अपने लिए जरूर कर लेते है। अपने वेतन-भत्तें व सुविधायें को समय-समय पर बढ़ाते रहते है, अमल भी तुरंत करा लेते है। जिनकी समस्याएं हल करने का वायदा करके, वोट लेकरे प्रतिनिधि बने उन्हें भूल जाते है या नकार देते हैं।

भारत केवल आजाद नहीं हुआ, एक प्रजातंत्र है, लोकतांत्रिक देश है, संविधान के अनुसार सर्वोच्च सत्ता संसद या विधानसभा में नहीं आम लोगों में निहित है। शासन चलाने के लिए ये लोग अपने प्रतिनिधि चुनते है, उनके वेतन पर ध्यान देते है। लाखों करोड़ों दिन प्रतिदिन घंटों काम करने वाले मजदूर किसानों की सबसे नीचे नौकरी करने वाले सरकारी व गैर सरकारी कर्मचारियों की ओर ध्यान नहीं देते जिसका गुजारा भी बमुश्किल होता है। पुरानी व्यवस्थाओं, सुविधाओं व हकों के स्थान पर आम पब्लिक के लिए चल रही सुविधाओं, व्यवस्थाओं, प्राकृतिक संपत्तियों को सामंतकालीन बताकर नई व्यवस्था के नाम पर सरकार अथवा उद्योगपतियों के सुपुर्द कर रहे है। अब आम आदमी को मिट्अी व ईंट ढोने का काम मिल रहा है। बेकारी के कारण कंधों पर सामान लिए बड़े नगरों का पलायन करना पड़ रहा है। गांव से गये जिन लोगों को शहर में काम नहीं मिला वे फुटपाथ पर रहते है, जिन्हें मजदूरी मिली वे झुग्गी झौपड़ियों में नरक की जिन्दगी जीते हैं।

खुद सरकार के आंकड़ों के अनुसार करीब 40 प्रतिशत लोग जिन्हें सरकार गरीब मानती है, गरीबी की रेखा के नीचे जी रहें हैं। इन गरीबों की जानमाल असुरक्षित है, अपराधों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है। राजमार्गो पर डकैतियां आम बात हो गई है, लोग रात को घरो ंसे निकलने में डरते है, पुलिस को लोगों की सुरक्षा के लिए फुरसत नहीं है क्योंकि वह या तो नेताओं की सुरक्षा में लगी रहती है या फिर लोगों को आतंकित करने में।

उदारीकरण, वैश्वीकरण और अब मानटाईजेशन व निजीकरण के नाम पर खुले बाजार की नीति अपनाई गई है। सरकार का दावा है इससे देश की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, देश आत्मनिर्भर होगा लेकिन वास्तविकता क्या है? आर्थिक उदारीकरण व निजीकरण के नाम पर देश की सम्पत्ति की लूट चल रही है। बड़ी कम्पनियां अधिक से अधिक धन लूटकर देश को खोखला कर रही है। आने वाले वर्षो में केवल कुछ कंपनियां बचेगी, शेष दलाली का काम करेगी, विदेशी कंपनियां फलेगी फूलेगी। असमानता, बेकारी और स्थाई गरीबी इस अर्थव्यवस्था की सहचरी है। स्वावलम्बी व्यवस्था से उखाडे जाकर रोजी रोटी की तलाश में मजदूर धूमेंगे।

आजादी के 75 सालों में सामंतशाही, जमींदारी, जागीरदारी खत्म हुई जो नये रूप में उभर रही है। सरकार इस महान अवसर का उपयोग अपनी योजनाओं को जन-जन तक पंहुचाने में व्यस्त है। इसके लिए मीडिया, टेलीविजन, रेडियो, सोसियल मीडिया के लिए हजारों, करोड़ों का प्रावधान किया है। समाचार पत्रों में जो कुछ काम देश में बिजली, रेल, सड़क, हवाई यातायात, पैट्रोलियम, टेलीफोन, समुद्री यातायात, बैंकिंग आदि क्षेत्रों में हुआ, उत्पादन या काम हुए उसके लिए दशकवार तुलनात्मक आंकड़ें गिनाये जा रहे है परन्तु उनमें लाखों करोड़ों लोगों को प्राकृतिक संसाधनों से वंचित करने, खेत खलिहान छोड़कर गंदी बस्तियों या फुटपाथों पर नारकीय जिन्दगी बसर करने वाले मजबूर लोगों का कोई जिक्र प्रस्तुत नहीं होगा या किया जायेगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)