रोजगारमूलक विकास की जरूरत : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

आयोजन का केन्द्र रोजगार

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को एक समाजवादी, लोकतंत्रात्मक, धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करती है। इसी भावना के अन्तर्गत योजनाबद्ध विकास निर्धनता और साधनहीनता जैसी समस्याओं व कठिनाईयों को ध्यान में रखते हुए प्रारम्भ किया गया। उसके सकारात्मक परिणाम भी आये। नेहरू-इन्दिरा युग की अर्थव्यवस्था में बदलाव की तेज प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। 1999-2000 के आते-आते निर्धनता अनुपात 37.3 फीसदी से 24 फीसदी पर आ गया। शहरी निर्धनता की अपेक्षा ग्रामीण निर्धनता में आई कमी अधिक रही परन्तु तीव्र आर्थिक विकास के समानान्तर अति दीनता की अवस्था विद्यमान रही।

वर्तमान में योजना प्रक्रिया यह मानकर चल रही है कि विकास विधि द्वारा राष्ट्रीय आय में वृद्धि, प्रोगेसिव टैक्सेशन एवं सार्वजनिक कल्याण नीतियों के परिणास्वरूप गरीबों का जीवनस्तर स्वतः उन्नत हो जायेगा परन्तु प्रोडेक्शन ओरियन्टेड एप्रोच से विकास का लाभ संसाधनों के स्वामी ही लीलने लगे। वर्तमान सरकारी नीतियों से लाभों का संकेन्द्रण एक विशेष केन्द्र बिन्दु पर ही हो रहा है जो अर्थव्यवस्था के ब्लैकहोल्स लाभों को अपने से बाहर ही निकलने नहीं देते। विकास एवं साम्यता के मूलभूत अंतर्विरोध को समरस एकीकरण में बदले बगैर असमानता व गरीबी बढ़ती रहेगी। इसका निवारण रोजगार जनन एवं उत्पादकता स्तर को बढ़ाने से ही संभव है, आयोजन का केन्द्र रोजगार होना चाहिए। आय पुनर्वितरण के पारम्परिक उपाय के स्थान पर संरचनात्मक सुधार लागू करने होगे।

वर्तमान आर्थिक सुधारों से अर्थव्यवस्था का चरित्र बदल रहा है। बढ़ती उच्च शिक्षा दर का फायदा सब नागरिकों को नहीं मिल रहा। भारत में गरीब व बेरोजगारी तीव्रता से बढ़ रही है। रोटी, कपडा, मकान की मूलभूत आवश्यकताओं से लोग दिनोंदिन महरूम हो रहे है। 1973-74 के दशक मे 56.4 फीसदी ग्रामीण जनसंख्या गरीब थी, प्रतिदिन 2400 कैलोरी के पोषण से वंचित थी जबकि 1990-91 में यह आंकडा 74.5 फीसदी हो गया, गरीबी हटने के बजाय बढ़ी। आर्थिक संवृद्धि के लाभ से बहुसंख्यक ग्रामीण जनता वंचित है, अब यह आंकडा 80 से 85 करोड़ पंहुच गया।

अधिकांश जनता रोजगार के अवसरों से वंचित है। गरीबी का मूल कारण अधिकांश जनता का रोजगार के अवसरों से वंचित रहना है। आर्थिक विकास का जो वर्तमान स्वरूप है उसमें रोजगार के अवसरों को बढ़ाने का कोई जोर नहीं है। हमारे वर्तमान योजनाकार यह भूल रहे है कि विकास एवं गरीबी के मूलभूत अंतर्विरोध का निवारण केवल रोजगार जनन एवं उत्पादकता स्तर बढाने से ही संभव है। उच्च विकास दर के बावजूद रोजगार के अवसर इतने कम बढ़ रहे है कि बेरोजगारों की फौज घटने के बदले बढती ही जाती है। आज रोजगार विहीन उच्च स्तर विकास दर में अधिकतर शहरी क्षेत्र में कौशल संपन्न युवा लोगों को लाभ मिला है।

नीति आयोग का कथन है कि विनिर्माण क्षेत्र के विस्तार से श्रम की मांग बढेगी, मगर वे भूल रहे है कि रोजगार की लोच इतनी कम (0.08) है कि उत्पादन में 12 फीसदी वृद्धि होने पर रोजगार में एक फीसदी वृद्धि होती है। केवल उत्पादन की विकास दर बढ़ने से बेरोजगारी में गिरावट नहीं आ सकती। रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाने होगें।

जब से आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू हुए गरीबी निवारण कार्यक्रमों की उपेक्षा हो रही है। कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक या सरकारी निवेश घट रहा है। 1985 की तुलना में निवेश काफी कम है। सरकार ने ग्रामीण विकास पर खर्च घटाया है। वार्षिक खर्च 1985-1990 के मुकाबले 14.5 फीसदी से घटकर 5.9 प्रतिशत रह गया। अब ग्रामीण रोजगार की वृद्धि लगभग शून्य है।

कृषि क्षेत्र में उत्पादन लागत बढ रही है, दूसरी ओर उपज के मूल्य में उत्साहवर्धक बढोतरी नहीं हुई। छोटे व सीमान्त खेतीहरों को समर्थन मूल्य का लाभ नहीं मिल पाता। सरकार श्रम सघन उद्योगों को छूट नहीं दे रही, नरेगा का बजट कम हो रहा है, श्रम सुधार कानून मजदूरों के हित में नहीं बन रहे। 1921 के यंग इंडिया में महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘नंगे गरीब को कपड़े के स्थान पर रोजगार देना चाहिए’’ परन्तु सरकारें बडे उद्योगों को छूट देकर गरीब को ओर गरीब बनाने की नीति अपना रही है। एनएसएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार 25 करोड़ लोग 12 रूपया रोजाना व्यय पर जीवन निर्वाह करते है। देश की एक तिहाई आबादी रोटी, कपडा, मकान जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ती से दूर है। कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। गरीबों की थालियों में रोटियों की संख्या घटती जा रही है। करीब 1 करोड 40 लाख बच्चे अब भी नहीं जानते कि विद्यालय किसे कहते है।

आर्थिक विकास दर को हवा से बातें कराना चाहते है जो 8 से 10 प्रतिशत की रफ्तार से भाग रही बताई जा रही है, इससे भारत में अमीर गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। हमारे नीति निर्माता भूर रहे है गरीब का पेट तो रोटी से भरेगा न कि उच्च आर्थिक विकास दर से। ऐसा विकास जो असमानताओं को शाश्वत बनाता है, न पोषणीय है और न ही इसे कायम रखा जाना चाहिए। अगर वर्तमान नीति व स्थिति का नहीं बदला गया तो अशांति पैदा होगी, अपराध बढ़ेंगे, सामाजिक एकता खतरे में पड़ जायेगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)