23 जनवरी, सुभाषचन्द्र बोस जन्मदिवस के अवसर पर
लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई. ए. एस. अधिकारी हैं)
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असहयोग आंदोलन के दौरान सुभाष बोस ने ”प्रिन्स ऑफ वेल्स“ के बहिष्कार के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया। 1921 में उन्हे गिरफ्तार कर 6 महिने की कैद की सजा दी गई। जेल से छूटने के बाद उन्होंने स्वराज्य पार्टी मे काम किया। वे बंगाल प्रदेश कांग्रेस मे मंत्री बने व साइमन कमीशन के विरूद्ध प्रर्दशनों का नेतृत्व किया। मद्रास कांग्रेस अधिवेशन मे उन्हें कांग्रेस कार्यकारीणी में लिया गया। 1939 में त्रिपुरा कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। सुभाष ने जर्मनी के राजदूत से कलकत्ता में भेट की, और आश्वासन दिया की विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी कांग्रेस के सर्मथन की आशा रख सकता है। गांधी नहीं चाहते थे की कांग्रेस जर्मनी को समर्थन दे। 1940 में जर्मनी ने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की एवं ब्रिटिश क्षेत्र पर भी हमले प्रारम्भ कर दिये। कांग्रेस ने पुना में कुछ शर्तो के साथ ब्रिटिश सरकार को सहायता देने का निर्णय किया। गांधी जी इग्लैण्ड के संकट को भारत का अवसर नहीं समझते थे जबकि सुभाष द्वितीय युद्ध को भारत के लिए वरदान समझते थे।
1942 मे कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन चलाया। मुम्बई कांग्रेस की बैठक में प्रस्ताव लिया गया की भारत में ब्रिटिश शासन का तुरन्त अन्त होना चाहिए। मांग न मानने पर सरकार गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक संघर्ष चलाएगी। यह भी कहा गया की सरकारी दमन नीति के कारण यदि गांधी का नेतृत्व न रहे तो प्रत्येक व्यक्ति अपना नेता होगा। गांधी जी ने उपवास किया। यह आंदोलन सफल नहीं हुआ परन्तु भारतीय स्वतंत्रता को पृष्ठ भूमि तैयार हो गई परन्तु धीरे-धीरे सुभाष एवं गांधी जी के मतभेद बढ़ते गये। सुभाष चन्द्र बोस पं. जवाहरलाल नेहरू के सम्पर्क में आये तथा उनके साथ कांग्रेस में युवकों की इन्डीपेडेंस लीग प्रारम्भ की। कांग्रेस का नरम व्यवहार पंसद नहीं आया, यद्यपि कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष निर्वाचित हुए। जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों के बावजूद उनके गर्म और तीखे तेवर कायम रहे, महात्मा गांधी के प्रिय सेनानी नहीं बन सकें।
त्रिपुरा अधिवेशन में प्रस्ताव रखा कि ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम दिया जाय कि 4 माह में भारत को स्वतंत्रता दे अन्यथा भारत को ब्रिटेन के विरूद्ध सैनिक सहायता लेनी चाहिए। महात्मा गांधी व पं. नेहरू ने इसका विरोध किया। अतः यह प्रस्ताव पास नहीं हो सका। तीव्र मतभेदों के कारण सुभाष चन्द्र बोस ने अप्रेल 1939 में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर ‘‘फारवर्ड ब्लाक’’ का गठन किया। द्वितीय विश्व युद्ध छिडने पर फरवर्ड ब्लाक ने अंग्रेजों के विरूद्ध जंगी तैयारियां प्रारम्भ कर दी। सुभाष चन्द्र बोस को 1940 में बंदी बनाया गया। सुभाष चन्द्र बोस धार्मिक और समाजवादी उग्रवादी नहीं थे। उन्होंने विभिन्न शक्तियों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध एकत्रित करने का प्रयास किया। धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ा। उन्हें वामपंथी शक्तियों का वक्ता माना गया परन्तु उन्होंने मार्क्सवाद की आर्थिक विचारधारा का समर्थन नहीं किया। वे गांधीवादी अति आदर्शवाद के भी आलोचक थे। उनके अनुसार गांधी एक ही समय में सामंत और किसान, पूंजीपति और श्रमिक, द्विज और अद्विज के हितों का रक्षक बनना चाहते थे, उनके कार्य संचालन की एक ही विधि सत्याग्रह है।
सुभाषचन्द्र बोस ने गांधी के अस्पष्ट स्वरूप की कड़ी आलोचना की तथा लोगो से आग्रह कि वे गांधी के चक्कर से बचे, परन्तु गांधी के प्रति सम्मान व श्रद्धा थी सुभाष चन्द्र बोस ने गांधीवाद के अनुसरण की आलोचना की और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरूद्ध संघर्ष करने की अपील की। फारवर्ड ब्लाक का प्रमुख सिद्धांत था ‘‘पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष में, आलोचनात्मक दृष्टिकोण से, आधुनिक समाजवादी राज्य की स्थापना, देश में बड़े पैमाने पर आर्थिक उत्पादन एवं वितरण पर स्वामित्व और नियंत्रण, धार्मिक मामलों में व्यक्ति की स्वतंत्रता, समान अधिकार, भाषाई एवं सांस्कृतिक स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय।’’
सुभाषचन्द्र बोस मानते थे कि संघर्ष द्वारा ही आजादी प्राप्त की जा सकती है, अंग्रेज नैतिक दबावों व अहिंसक प्रतिरोध के विरूद्ध घुटने नहीं टेकेंगे। उनका विचार था यद्यपि राष्ट्रीय कांग्रेस के सभी सदस्यों का लक्ष्य एक ही था, परन्तु गांधी के संघर्ष के ऐतिहासिक तरीके से आजादी प्राप्त नहीं की जा सकती। सुभाष बोस ने विचार भेद के बावजूद गांधी को सम्मान दिया। उन्हें सबसे पहले राष्ट्रपिता कहने वाले सुभाष चन्द्र बोस ही थे। आजाद हिन्द फौज के ऐतिहासिक रेडियो भाषण में उन्होंने कहा था ”आप (गांधी) हमारे देश की वर्तमान जागृति के जनक है दुनिया दुनियाभर में उन्हें सर्वाेच्च सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, पिछली शताब्दी में किसी अन्य भारतीय नेता को ऐसा सम्मान नहीं मिला, जो जीवन भर देश की सेवा कर आधुनिक ताकत से बहादुरी से लड़ा। आपकी (गांधी) उपलब्धियों की सराहना उन देशों में हजार गुना ज्यादा है जो ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध है। हमारे राष्ट्रपिता भारत की आजादी की पवित्र लड़ाई में आपके आर्शीवाद और शुभकामनाओं की कामना करता हूँ।“
सुभाषचन्द्र बोस राजनैतिक क्षेत्र में उग्रपंथी थे, धार्मिक और सामाजिक सुधारवादी नहीं थे, उन्होंने धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ा, यथार्थवादी थे, राजनैतिक एवं सामाजिक उत्थान के बीच साम्यता चाहते थे। परन्तु उन्होंने मार्क्सवाद के आर्थिक विचारों का समर्थन नहीं किया। राजनैतिक यथार्थवादी होने के कारण गांधीवादी आत्यानिक आदर्शवाद के आलोचक थे। गांधी एक ही समय में सामन्त एवं किसान, पूंजीपति तथा श्रमिक, द्विज और अद्विज के हितों की रक्षा चाहते थे। गांधीवाद में कार्य संचालन की विधि एकमात्र सत्याग्रह था। बोस इससे सहमत नहीं थे।
इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्रीय आन्दोलन को राजनैतिक स्वतंत्रता, सामाजिक प्रगति, आर्थिक उत्थान, किसी धार्मिक भेदभाव के बिना, बढ़ाना चाहते थे। देश का बहुमुखी विकास व धर्म-निरपेक्ष समाज की स्थापना चाहते थे। जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी व सुभाषचन्द्र बोस को नजदीक लाने व वैचारिक एकता लाने हेतु अथक प्रयास किये परन्तु सुभाषचन्द्र बोस अपने उग्रविचारों पर कायम रहे।
गांधी, सुभाष बोस, नेहरू, पटेल, टैगोर व सभी क्रान्तिकारीयों ने धर्म निरपेक्षता की भावना पर जोर दिया। गांधी ने तो 1940 में ही स्पष्ट कहा था ”धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए, धर्म व्यक्तिगत मसला है राज्य पूरी तरह धर्म निरपेक्ष होने के लिए बाध्य है। रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ”असली चिंता की बात तो यह है कि मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ व हिन्दूओं को मुसलमानों के खिलाफ इस्तमाल किया जाता है।“ महत्वपूर्ण यह नहीं कि उनका इस्तेमाल कौन करता है शैतान भीतर तभी घुसता है जब उसके आने का रास्ता हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)