उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोटर्स में छाया सन्नाटा...
क्या किसी आने वाले तूफान का संकेत है...?

लेखक : नवीन जैन

(स्वतंत्र, वरिष्ठ पत्रकार)

09893518228

www.daylife.page 

बनिसब्तन, पिछले तमाम चुनाव इस बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव खासे दिलचस्प होते जा रहे हैं। माना, तो यहाँ तक जा रहा है कि यही चुनाव देश के आगामी सियासी मूड का को भी जानने में परिणाम मूलक रूप से मददगार सिद्ध होंगे। नोट करें कि उत्तर प्रदेश न सिर्फ देश का सबसे बड़ा सूबा है, बल्कि  यहाँ विधानसभा की सबसे ज़्यादा 403 सीटें हैं। कुल 75 जिले 18 सम्भागों में बंटे हुए हैं और कुल 24 करोड़ की आबादी में से 3.8 मुस्लिम वोटर्स हैं, जो कुल जनसंख्या का 20 फ़ीसद के लगभग बैठते हैं। इसी वोट पॉकेट की तरफ भाजपा, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की नज़र है। पिछले यानी 2017 के विधानसभा चुनावों में तो भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया था। 

इस बार भी अभी तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के तेवरों को देखकर लगता नहीं कि टिकट वितरण के मामले में उनका दिल मुसलमानों के लिए पिघलेगा। इन चुनावों के अत्यधिक चर्चा में होने का एक दूजा कारण यह भी है कि भाजपा के मंत्री और वरिष्ठ नेता थोक में ख़ासकर समाजवादी पार्टी में ठौर तलाश रहे हैं, लेकिन ऐन चुनाव के वक़्त इस तरह की तमाशेबाजी भारतीय राजनीतिक रंगमंच का स्थायी प्रहसन बन चुकी है। सनद रहे कि 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान अंतिम समय पर तकरीबन 60 वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने रातों रात अपनी वफादारी बदल ली थी, मग़र योगी आदित्यनाथ को सरकार बनाने में अधिक  माथा पच्ची नहीं करनी पड़ी थी। सो, शायद इस दल बदल का सरकार बनाने पर निर्णायक असर शायद ही पड़े, लेकिन मुस्लिम वोटर्स की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता।          

रामपुर, फरूखाबाद और बिजनौर ऐसी जगह हैं, जहाँ मुस्लिम आबादी 40 फ़ीसद से अधिक है। अलावा इसके पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रोहिल खण्ड  और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी  मुस्लिम वोट बाजी पलट सकते हैं।

सबसे खास बात, तो यह है कि इस प्रदेश की 143 सीटें ऐसी हैं, जहाँ मुस्लिम वोट अंतिम पलों में कोई भी कमाल दिखा सकते हैं, लेकिन इस बार जो अनसुलझी पहेली अभी तक है वह यह है कि मुस्लिम वोटर्स कुल मिलाकर इतने खामोश क्यों हैं? और, कहीं यह सन्नाटा किसी तूफान के पहले का सन्नाटा, तो नहीं है हालांकि मुस्लिम मुल्ला मौलवियों ने अलग अलग घोषणाएं की है और कि भी जाति रहेंगी, मगर आम मुस्लिम मतदाता के मूड को अभी तक तो समझा नहीं जा सका है। चुनाव परिणामों को लेकर महज क़यास ही लगाए जा सकते हैं। इस विषय में ज्योतिष विद्या कभी कभार ही चलती है, मग़र उत्तर प्रदेश के मीडिया से छनकर आ रही खबरों पर भरोसा करें, तो तस्वीर कुछ ऐसी बनती है कि जिस पर कोई भी आसानी से कोई भी विश्वास नहीं करेगा। 

मीडिया एक बड़े वर्ग का का मानना है कि मुलायम सिंह की बहू अपर्णा यादव के अचानक सपा छोड़कर जाने से भाजपा यकायक मजबूत हो गई है, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अर्पणा यादव को चूँकि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पार्टी टिकट देने से साफ़ मना कर दिया इसलिए वे भाजपा में शामिल हो गईं। यहाँ अखिलेश यादव के इस तर्क पर भी गौर करना होगा कि उनकी पार्टी ने पिछले चुनावों में पराजित रहे उम्मीदवारों को इस बार टिकट नहीं देने की  नीति इख्तियार की है और अपर्णा यादव 2017 का विधानसभा चुनाव लखनऊ की केंट सीट से हार चुकी हैं। ठीक है कि इस बीच उन्होंने एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपने क्षेत्र  में उन्होंने  गहरी पैठ बनाई है, लेकिन कहा यह भी जाता रहा है कि सामाजिक कार्यों का निष्पादन करना, और अपने इलाके की राजनीति की नब्ज़ पर हाथ रखना और उसे समझना दो अलग अलग बातें हैं। 

फिर, सवाल यह भी वाजिब हो सकता है कि अपर्णा यादव के ह्रदय में अचानक ऐसा देश प्रेम क्यों जागा? यकायक ही वे पीएम नरेंद्र मोदी की तारीफों के पुल क्यों बाँधने लगीं? और, लखनऊ केंट से टिकट के अन्य ख्वाहिशमंद उनका रास्ता क्यों नहीं रोकेंगे? गौरतलब यह  भी है कि इस सूबे का मुस्लिम समुदाय दो हिस्सों में बंटा हुआ जान पड़ रहा है। इस समुदाय पर सपा और बसपा ने पूरा दांव लगा रखा है, लेकिन सामने कांग्रेस के अलावा ओवेसुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस ए इतिहादुल मुसलमीन ने सौ जगह से लड़ने का ऐलान करते हुए आठ सीटों के प्रत्याशी घोषित भी कर दिए हैं।जिन दो धड़ों में मुस्लिम वोटर्स के विभक्त होने की चर्चा को गम्भीरता से लिया जा रहा है उनके नाम हैं, देवबंदी बहाबी मुसलमान, दूसरा बरेलवी मुसलमान।

जिन कुल 143 सीटों पर मुसलमान वोटर्स  का असर 40 फ़ीसद तक है, वहाँ भी 2017 के चुनाव में उनमें से मात्र 24 प्रत्याशियों को ही फतेह हासिल हुई थी।बाद में उप चुनाव हुए, तो एक सीट बढ़ने से कुल 25 मुस्लिम विधायक हो गए। इनमें से सपा के खाते में 18 ,और बसपा के पाँच विधायक मुस्लिम थे। इसी बीच इतिहाद ए मिल्लत काउंसिल के सर्वेसर्वा मौलाना तौकीर रजा ने बिना शर्त कांग्रेस को समर्थन  की घोषणा कर दी है। जनाब तौक़ीर का कहना है कि सूबे में जाट वाद या यादव वाद की जगह मानवतावाद की ज़रूरत है। इस बयान से एक अर्थ यह भी निकलता हैं कि मुदलिम समुदाय में एक असुरक्षा बोध घर कर गया है। 

लेकिन उत्तर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति के जानकार वीरेन्द्र भट्ट कहते हैं कि मूलतः मुसलमानों में किसी बात को लेकर असुरक्षा बोध का तर्क गले नहीं उतरता। पाँच साल के अपने कार्याकाल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कुल मिलाकर प्रदेश की एकदम चरमराई हुई कानून व्यवस्था में ऐसे सुधार किए हैं, जिससे गुंडा राज पर अच्छी खासी लगाम कसी गई है।एक दो जगह को छोड़कर हिंदू मुस्लिम दंगों के लिए बदनाम इस सूबे में कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। साम्प्रदायिकता एक ऐसा मसला है जिसके बारे में आम तौर पर देखा गया है कि यह कुछ नेताओं की राजनीतिक दुकानदारी के अलावा कुछ नहीं है। आम वोटर किसी भी जाति सम्प्रदाय का हो, शान्ति से ही रहना चाहता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)