मस्तिष्क कोरे कागज के समान
लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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मानव जीवन में संस्कारों का बहुत महत्व है। संस्कारों का बीजरोपण बालपन में ही अच्छे ढ़ंग से किया जा सकता है। जब बच्चा माता के गर्भ से जन्म लेता है तब उसका मस्तिष्क कोरे कागज के समान होता है। धीरे-धीरे परिवार, समाज और वातावरण से वह सीखता है। विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो संसार के प्रत्येक जीव में पाई जाती है। यह जीव अमीबा से लेकर व्यक्ति तक कोई भी हो सकता है। विकास और संस्कार की प्रक्रिया गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में चलती रहती है। इसकी गति कभी तीव्र और कभी मन्द होती है। मानव विकास का अध्ययन प्राकृतिक विज्ञानों में भी होता है और मनोविज्ञान में भी होता है। मानव विकास का अध्ययन मनोविज्ञान कहा जाता था परन्तु अब मनोविज्ञान की यह शाखा बाल विकास कही जाती है और यह माना जाता है कि बालकों में जो संस्कार दृढ़ रूप में डाला जाता है वह आजीवन उसके भविष्य निर्माण में काम आता है। संस्कार भीतर के जगत में रहता है।
धीरे-धीरे परिस्थितियों को अनुकूल पाकर वह प्रस्फुटित होता है। जैसे बीज को खेत में बोया जाता है तो इसके लिए वातावरण का भी बहुत प्रभाव पड़ता है तब जाकर बीज वटवृक्ष के रूप में बड़ा होता है। जैसे बीज का वपन होता हैं वैसे ही पौध तैयार होती है और फल मिलता है। बीज संस्कार है जो बच्चे के रूप में रहता है। सभी बच्चों का जन्म एक ही प्रकार से मां के गर्भ से ही होता है। किन्तु वातावरण और परिस्थितियों के प्रभाव से विकास भिन्न-भिन्न हो जाता है। अगर अच्छा संस्कार डाला जाता है तो बच्चा आगे चलकर विकसित होता है और महापुरुष के रूप में परिवार और समाज का नाम रोशन करता है। परिवार में नए बच्चे का जन्म होना परिवार के लिए बहुत खुशी की बात होती है और यह सभी के लिए एक नए सफर की शुरुआत होती है। हालांकि बच्चा खाना खाने, सोने, रोने और डायपर गीले करने के अलावा कुछ नहीं करता, दरअसल वह नई दुनिया में स्वयं का तालमेल बिठाता है और उसके बारे में जानकारी हासिल करता है।
पहले महीने के अंत तक आपका बच्चा और अधिक सक्रिय, सतर्क और जवाब देने वाला हो जाएगा। वह अपने अंगों को और अधिक सहज ढंग से हिलाना-डुलाना शुरू कर देगा। वह अपने परिवेश के प्रति और अधिक जागरूक हो जाएगा और आपके चेहरे और आसपास की आवाजों के प्रति प्रतिक्रियाशील हो जाएगा। बालक में संस्कारों के सीखने की प्रक्रिया का प्रारम्भ जन्म के कुद दिनों बाद ही हो जाता है। जैसे-जैसे उसकी शारीरिक और मानसिक, परिपक्वता बढ़ती जाती है, उसमें सीखने की क्षमता उतनी ही बढ़ती जाती है; साथ-ही-साथ वह जटिल चीजों को सीखने के लिए अधिक योग्य होता जाता है। प्रारम्भ में वह अपनी मां के चेहरे को पहचानना सीखता है, फिर अन्य परिवारजनों अथवा उसके निकट रहने वाले लोगों को। इस प्रक्रिया के द्वारा उठना, बैठना, दौड़ना, कूदना, बोलना आदि सब कुछ सीखता है। विभिन्न कौशलों का अधिगम भी वह करता है। कुछ विशेषताएं वह परिपक्वता के साथ-साथ सामाजिक अन्तःक्रियाओं के कारण सीखता है परन्तु अन्य विशेषताओं, संस्कारों और गुणों को बालक को सिखाना भी पड़ता है।
बालकों को सिखाने और संस्कारित करने में, उसकी शिक्षा और प्रशिक्षण बाल-विकास का ज्ञान बहुत उपयोगी है। संस्कार को पहली शिक्षा बालक को मां से मिलती है। बालक मां के सम्पर्क में अधिक रहता है। इसलिए मां के हाव-भाव, पिता के हाव-भाव और अन्यजनों के वृत्ति, प्रवृत्ति और प्रकृति को वह सीखता है। मानव जो अच्छा कार्य करता है, वह उसकी वृत्ति कहलाती है। बार-बार करने से प्रवृत्ति बन जाती है, और प्रवृत्ति ही धीरे-धीरे प्रकृति बन जाती है। प्रकृति को बदलना बहुत कठिन है। संस्कार और कुसंस्कार परिवार और समाज से ही बालक ग्रहण करता है। यहां पर दो तोते के उदाहरण से इसको समझा जा सकता है। एक तोता संन्यासी के पास था और दूसरा तोता एक डाकू के पास। संन्यासी के पास वाला तोता राम-राम जपता था और डाकू के पास वाला तोता मारो, काटो, लूटो जैसे बुरे वचनों को बोलता था। तोता एक प्राकृतिक प्राणी है किन्तु संन्यासी और डाकू के संस्कार का असर तोते पर पड़ गया। जिससे दोनों की प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न हो गयी। अभिमन्यु का उदाहरण हमारे सामने प्रत्यक्ष है।
अर्जुन ने अपनी पत्नी को चक्रव्यूह भेदने का प्रसंग सुनाया था, तो उस समय अभिमन्यु अपने मां के गर्भ में था। गर्भ के समय में अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन की कला को सीख लिया था। इससे यह ज्ञात होता है कि गर्भ के समय में बच्चा जब रहता है तो उसी समय से संस्कार का बीजारोपण होने लगता है और आगे चलकर उसके जीवन निर्माण में वह काम आता है। पाषाण को जब संस्कारित कर मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है तो वह प्रतिमा ईश्वर का रूप ले लेती है और हजारों लोगों के श्रद्धा का पात्र हो जाती है। किन्तु जब वही पत्थर सड़क किनारे पड़ा रहता है तो लोग पैरों से ठोकर मारकर उसको हटा देते है। संस्कार से मानव देवतुल्य बन जाता है। संस्कार मानव को पूर्ण मानव बना देता है। संस्कार का बीजारोपण बचपन में कर दिया जाना चाहिए। बड़ों को प्रणाम करना, गुरुओं का सत्कार करना, बुजुर्गों की सेवा, ईश्वर भक्ति आदि गुण संस्कारों से ही प्राप्त होते है। संस्कारों से समाज में परिवर्तन आता है। सत्संगति के माध्यम से संस्कारों का प्रभाव पड़ता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)