हिन्दुत्व बनाम भारतीयता : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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उच्चतम न्यायालय की व्याख्या के अनुसार सामान्यतया ‘‘हिन्दुत्व का अर्थ जीवनशैली से है न कि हिन्दु धर्म से। इसका अर्थ हिन्दु धर्म की पूजा पद्धति से नहीं है और न ही इसका अर्थ हिन्दु कट्टरवाद से। हिन्दु शब्द का इस्तेमाल भारतीय शासन प्रक्रिया के रूप में समझा जाता है अर्थात भारत में मौजूद विभिन्न संप्रदायों की विषमताओं को खत्म कर एक रूप संस्कृति का विकास करना। हिन्दुत्व का अर्थ दूसरों से घृणा करना, शत्रुता करना और असहिष्णु होना नहीं है।’’ सुप्रिम कोर्ट ने कहा है ‘‘हिन्दुत्व न तो कोई धर्म की अवधारणा है न ही राजनीति बल्कि हमें जीवन में उद्वात और उन्नति का मार्ग दिखाता है। यही भारतीयता है और इसे हमें मजबूत बनाना है।’’

हिन्दुस्तान में सबसे पहले वर्ष 1923-24 में हिन्दुत्व शब्द का उपयोग किया। हिन्दु संप्रदायवाद को हिन्दुत्व के नाम से पुकारा गया। उसके अनुसार केवल सभी लोग जिनके धर्म का उद्गम भारत से है, वे सभी हिन्दू है। जिनके धर्म का उद्गम स्थल भारत में नहीं है वे हिन्दू नहीं हो सकते।

गांधी जी कहते थे कि ‘‘मैं धर्म को नहीं छोड़ सकता, इसलिए हिन्दुत्व छोड़ना असंभव है परन्तु यदि हिन्दुत्व ने मुझे निराश किया तो मेरा जीवन बोझ बन जायेगा। हिन्दुत्व के कारण ही मैं ईसाई, इस्लाम एवं अन्य धर्मो का आदर करता हूं। इससे इन्हें दूर कर दू तों मेरे पास कुछ नहीं रह जाता है।’’ गांधी जी के मन में किसी भी धर्म के प्रति द्वैष की भावना नहीं थी। विभिन्न समाज के व्यक्तियों को हिन्दु धर्म के अन्तर्गत समझते थे। उनके अनुसार भारत भूमि के प्रति प्रेम और भक्ति से भारतीय राष्ट्रीयता का विकास हुआ है। उनके अनुसार हिन्दु बने रहना इस्लाम और संसार के अन्य धर्मोसे अच्छा, सौम्य और सुन्दर है, परन्तु इसको ग्रहण करने की बाध्यता नहीं है। वे धर्मान्धता के पक्षधर नहीं थे अपितु सर्वदा विरोधी थे।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि हिन्दुत्व और भारतीयता में कोई अन्तर नहीं है। दोनों की एक ही विचारधारा हैं। हिन्दुत्व में दुर्भावना और हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। हिन्दुत्व व्यापक दृष्टि है। जो हिन्दु कट्टरपंथी उपनिवेश के रास्ते पर जा रहा है वह पूरी तरह दुर्भावनापूर्ण व अस्वीकार है तथा सामाजिक भावना के खिलाफ है। हमें उस हिन्दुत्व की सही पहचान करने और प्रोत्साहित करना जरूरी है। धर्मनिरपेक्षता हिन्दुत्व की विशेषता है। विभिन्न संस्थाओं ने हिन्दुत्व को स्वीकारा है। यह कहना गलत है कि हिन्दुत्व और धर्मनिरपेक्षता एक दूसरे के विरूद्ध है। हिन्दुत्व और भारतीयता दोनों इस बात पर जोर देते है कि भारत में सभी एक है और भारत में सबको समान अधिकार है तथा उनकी जिम्मेदारी भी समान है। यह हमारी सामूहिक राष्ट्रीय संस्कृति की पहचान को दर्शाता है। परन्तु कुछ साम्प्रदायिक तत्व हिन्दुत्व व भारतीयता को एक नहीं मानते।

स्वामी विवेकानन्द ने बहुत स्पष्ट विचार प्रकट किय थे कि हमारी मात्र भूमि जो हिन्दू और मुस्लिम समाज की मिलनस्थली है। वेदान्त का मस्तिष्क और ईस्लाम शरीर ही इसकी एक मात्र आशा है। इन्हें एक माना जाता है। मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूं कि जो आज के संगात और बवंडर के अन्दर से एक सही और अपराजेय भारत का आविर्भाव होगा। वेदान्त का मस्तिष्क और इस्लाम का शरीर लेकर।

डा. अम्बेडकर ने कहा था ‘‘जब स्वीजरलैण्ड में जर्मनी, फ्रांसीसी, इटेलियन आदि रहते है, पृथक पहचान के बावजूद उनमें देश के प्रति राष्ट्रभक्ति और संविधान के प्रति निष्ठा है। आखिर क्या कारण है कि भारत में मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ रहते हुए अपनी राष्ट्रीयता व संस्कृति की पहचान खो जाने का भय है? इसमें संदेह नहीं है कि हिन्दू राष्ट्र अस्तित्व में आना देश के लिए अपने आप में एक आपदा होगी। हिन्दू चाहे कुछ कहे लेकिन नई परिभाषा का हिन्दुत्व उदारता, समानता और बंधुत्व के सामने एक बहुत बड़ी बाधा है। हिन्दुत्व और लोकतंत्र विरोधी विचारधारा है। हर कीमत पर हिन्दू राष्ट्र अस्तित्व में आने से रोकना होगा।’’

पं. जवाहर लाल नेहरू के समय सरकार के पास भविष्य की व्यवस्था एवं नियोजित योजनाएं हुआ करती थी। तत्पश्चात राजनीति प्रबंधन सफलता का मापदण्ड बन गया। समस्याओं से लोगों की उपेक्षा हुई जिससे हिन्दुवादी शक्तियों को लाभ उठाने का अवसर मिल गया व संगठन से पहचान व हिन्दुवाद के नाम पर लोगों को बांटने की अल्पकालीन व दीर्धकालीन योजना बनी। इस योजना के माध्यम से निषेधों और व्यवस्था में अकर्मण्यता का भ्रम फैल गया।

आज नेहरूवादी धर्म निरपेक्षता, वामपंथी, समाजवादी, बुद्धिवादी विचारों को फर्जी करार देकर वर्तमान धर्मनिरपेक्षता की प्रचलित किस्म को फर्जी करार देना केन्द्रीत हो गया है। हिन्दुवादी स्वभाव बहुसंख्यकवादी हो गया है जिसके तहत अल्पसंख्यक खुद को हमेशा संकटग्रस्त महसूस करेंगे और उनसे हमेशा अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने की मांग की जाती रहेगी। यह एक ऐसी धर्मनिरपेक्षता हो गई जहां बहुसंख्यक राजनीति करने वाले लगातार युद्ध करने का आव्हान करते रहेगें। आतंकवाद के विरूद्ध लड़ना एक मिसाल जताते रहेंगे। हिन्दुवादी धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकों के लिए बाकायदा एक संदेश है कि सामान्य गतिविधियों पर भी दुव्र्यवहार किया जा सकता है। यह एक ऐसी धर्मनिरपेक्षता हो गई जहां राज्य खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते रहेंगे और अघोषित रूप से बहुसंख्यकवादी हो जायेंगे।

राष्ट्र और राज्य अलग-अलग हो जायेंगे तो बहुसंख्यक राष्ट्र रह जायेगा और राज्य नियंत्रित करेगा। अल्पसंख्यकों को संविधान व कानून की धाराओं का सहारा लेकर निरन्तर संघर्षरत रहना होगा, लगातार अपने हितों के लिए लड़ना होगा। भारत किसी कीमत पर धर्म आधारित राज्य नहीं बन सकता क्योंकि वह तो हमेशा से सिक्यूलर है। भारत इसलिए सिक्यूलर रहा है और रहेगा। हिन्दू सदैव नैसर्गिक रूप से उदार और सहिष्णु हैं। हिन्दू कट्टरवादी बार-बार यह कहने से भी नहीं चुकते कि भारत में होने की वजह से सहिष्णु हैं।

हिन्दूवादी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में भी भाग लेते हैं। उनको विदेशी पूंजी भी चाहिए। उनको अन्तर्राष्ट्रीयस्तर पर जबाब भी देना है, इसलिए उनको एक ऐसी धर्मनिरपेक्षता चाहिए जो हिन्दुवादी राजनीति की तरह काम कर सके और वे इसे द्वैष के रूप में इस्तेमाल कर सके। नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करने वाले धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या का खण्डन कर देते है। सनातनी व पारम्परिक हन्दुवादी कहते है कि भारत में हिन्दू होने होने के कारण सहिष्णुता है। भारत में जातियां सहिष्णुता पर आधारित है। गांधीजी मानते थे कि हिन्दू भारतीय समाज में सिर्फ हिन्दू होने के कारण नहीं बल्कि मुस्लिम, सिख, ईसाई होने के कारण वे सहिष्णु है। अगर हिन्दुवादी भारतीयता और धर्मनिरपेक्षता का उत्कर्ष है तो उसके समर्थकों में संकट व खौफ की भावना क्यों है?

सावरकर ने कहा था कि हिन्दू वह है ‘‘जिसकी मातृ भूमि व पितृ भूमि ही नहीं बल्कि पुण्य भूमि भारत है।’’ उनमें एक रक्त व नस्ल है परन्तु रविन्द्र नाथ ठाकुर ने कहा ’’विष्णु पुराण को याद करें तो उसके हिसाब जो भी भारत में रहते है, वह भारतीय है।’’ जबकि हिन्दुवादी विचारधारा के अनुसार हिन्दु राष्ट्र होने के लिए जरूरी है हिन्दू नस्ल से संबंधित होना। विष्णु पुराण की सोच भौगोलिक राष्ट्रवाद है। ऐसा राष्ट्रवाद जो एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले सभी लोगों को उनका धर्म, संस्कृति, परम्पराओं व विभिन्नताओं के साथ राष्ट्र का नागरिक मानने का अधिकार है। रविन्द्र नाथ ठाकुर की प्रथम पंक्ति जिसमें उन्होंने भारत को मां माना, समुद्र के रूप में देखा है।

राष्ट्रवाद का न सांस्कृतिक विकास से लेना देना है और न भारतीयता से। भारतीयता और हिन्दुवाद पर्यायवाची नहीं है। नस्ल और रक्त से राष्ट्र का सदस्य होने के लिए भारतीय होना पर्याप्त नहीं है। भारत की धर्मनिरपेक्षवादी सोच में उसका कोई स्थान नहीं है।

हिन्दुत्व की अलग-अलग तरह की व्याख्याएं की जा रही है। धर्म के साथ यह राजनीति बन गया है। जो लोग कभी गांधी और अम्बेडकर को जी भरकर कोसत थे, वे ही अब उनको प्रातः स्मरणीय करने लगे है। गांधी जी को अपना बताने की होड लगी है, हिन्दुवादियों से किसी ने उनके सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं किया। देश के सामने आज बड़ी चुनौति है कि सेक्यूलरवाद को कैसे बचाया जाये? (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)