निशांत की रिपोर्ट
लखनऊ (यूपी) से
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भारत में पहले से ही अनुमति प्राप्त और हाल में ही इजाजत पाये नये कोयला बिजली संयंत्र अब देश की बिजली सम्बन्धी जरूरतों के लिहाज से फालतू बन गये हैं। साथ ही, ये पॉवर प्लांट वर्ष 2030 तक 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन के बहु-प्रशंसित लक्ष्य की प्राप्ति की सम्भावनाओं को खतरे में डाल सकते हैं। ये संयंत्र जिंदा लाश (जॉम्बी) जैसे हैं जो न तो जिंदा होंगे और न ही सही मायने में मरेंगे। इनके निर्माण पर 247421 करोड़ रुपये (33 बिलियन डॉलर) खर्च होंगे, मगर इसके बावजूद तंत्र में सरप्लस उत्पादन क्षमता होने के कारण या तो वे बेकार पड़े रहेंगे, या फिर उनका बहुत थोड़ा ही उपयोग रहेगा। यह जाहिर होता है एम्बर और क्लाइमेट रिस्क होराइजन की आज प्रकाशित नयी रिपोर्ट से।
ऊर्जा विशेषज्ञों द्वारा किया गया यह अध्ययन जाहिर करता है कि भारत को किसी नये कोयला बिजली संयंत्र की मंजूरी देने की जरूरत नहीं है क्योंकि वित्तीय वर्ष 2030 तक बिजली की बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिये 33 गीगावाट के नये कोयला संयंत्रों का निर्माण कार्य पहले से ही चल रहा है। वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा तथा अन्य कोयलारहित स्रोतों से बिजली प्राप्ति का लक्ष्य हासिल होने पर बिजली की मांग में 5 प्रतिशत सालाना वृद्धि के बावजूद उस वक्त तक कोयला आधारित बिजली उत्पादन की मात्रा वर्ष 2020 के मुकाबले कम ही रहेगी। रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत के निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के बिजली उत्पादक पक्ष 300 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का संकल्प पहले ही व्यक्त कर चुके हैं।
इसके अलावा, भारत अगर पुराने कोयला बिजली उत्पादन संयंत्रों का उपयोग बंद कर देता है और वर्तमान में निर्माणाधीन ऐसे प्लांट्स को छोड़कर नये संयंत्रों का निर्माण बंद कर देते हैं तो भी वह वर्ष 2030 तक पीक डिमांड की पूर्ति कर सकता है। वर्ष 2030 तक भारत के पास 420 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता के साथ कुल करीब 346 गीगावाट की ‘मजबूत’ क्षमता होगी, जिससे वह 302 गीगावाट की अनुमानित उच्चतम मांग की आपूर्ति कर सकेगा। दिन के समय पीक डिमांड की पूर्ति भारत की विशाल नियोजित सौर ऊर्जा क्षमता के जरिये आसानी से की जा सकेगी, वहीं यह रिपोर्ट जाहिर करती है कि नये कोयला बिजली संयंत्र बनाने के बजाय अतिरिक्त बैटरी स्टोरेज की बदौलत रात के समय की पीक डिमांड को सबसे प्रभावी तरीके से पूरा किया जा सकता है, वह भी कम कीमत पर।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एम्बर के वरिष्ठ विश्लेषक आदित्य लोला कहते हैं, भारत चूंकि कोविड-19 महामारी के कारण पैदा हुई आर्थिक विपदा से उबरने की कोशिश कर रहा है, ऐसे में यह बेहद अहम होगा कि वह पहले ही सिकुड़ चुके जन संसाधनों का इस्तेमाल किस तरह करता है। ऐसे गैरजरूरी जॉम्बी कोयला बिजली संयंत्रों को जमीन पर उतारने का इरादा छोड़कर भारत न सिर्फ लाखों करोड़ रुपयों की बचत कर सकता है, बल्कि ऊर्जा की लागत में भी कमी ला सकता है। साथ ही वह स्वच्छ ऊर्जा रूपांतरण के अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की अपनी संकल्पबद्धता को भी दोहरायेगा।
आगे, अध्ययन से जाहिर होता है कि निवेश को कोयला परियोजनाओं से अक्षय साधनों तथा बैटरी स्टोरेज में लगाने से भारत वर्ष 2027 से घटी हुई बिजली खरीद लागत के तौर पर हर साल 43219 करोड़ रुपये (4 बिलियन डॉलर) की अतिरिक्त बचत करने लगेगा। वह भी भविष्य में बिजली मांग की आपूर्ति की ऊर्जा तंत्र की क्षमता को कोई नुकसान पहुंचाये बगैर।
क्लाइमेट रिस्क होराइजंस के अभिषेक राज कहते हैं, अगर एक बार ये कोल पावर प्लांट्स लग गये तो उन पर बर्बाद होने वाला निवेश डिस्कॉम्स और उपभोक्ताओं को मंहगे अनुबंधों में जकड़ देगा और तंत्र की अधिक्षमता (ओवर कैपेसिटी) में जुड़कर भारत के अक्षय ऊर्जा सम्बन्धी लक्ष्यों की प्राप्ति को भी मुश्किल बना देगा। समझदारी इसी में है कि इन संसाधनों को अक्षय ऊर्जा तथा स्टोरेज पर लगाया जाए, ताकि भविष्य के लिये एक अधिक किफायती और भरोसेमंद ग्रिड तैयार हो सके।
अध्ययन के मुताबिक ‘जॉम्बी’ कोयला बिजली संयंत्रों पर निजी क्षेत्र की तरफ से 62912 करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा। इनमें से जेएसडब्ल्यू एनर्जी ने बाड़मेर तापीय विस्तार परियोजना के लिये 10,130 करोड़ रुपये के निवेश का प्रस्ताव किया है। यह कम्पनी सार्वजनिक तौर पर कह चुकी है कि वह कोयला आधारित कोई भी नया प्लांट नहीं बनाएगी। वहीं, अडाणी ग्रुप और बजाज ग्रुप ने भी नये कोयला प्लांट्स के लिये 26,286 करोड़ तथा 17998 करोड़ रुपये के निवेश की पेशकश की है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)