इंदौर (एमपी)
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जवां नज़रों पर कब ऊँगली उठाना भूल जाते हैं
पुराने लोग हैं साहब, अपना ज़माना भूल जाते हैं
ग्यारहवीं कक्षा की आखिरी बेंच पर बैठा एक लड़का जब पहली बेंच पर बैठी लड़की के आने के इंतजार में सबसे पहले कक्षा में दाखिल हो जाता है, मानों अब वह मस्तीखोर बच्चा भी पढ़ने की ललक रखने को बैचेन है। इस बार उस अव्वल आने वाली लड़की के साथ से कक्षा में वह चौथा या पांचवा नंबर पास तो हो ही जाएगा। सुबह 8 बजे से शाम 4 बजे तक लगने वाले स्कूल में उसी पर नज़रे बिछाए, उसके लाख जतन झेलकर साल के अंत में ही सही, लेकिन आखिरकार एक अनोखी-सी प्रेम कहानी दोनों के जीवन में एक मिठास भरी दस्तक दे जाती है। यह सब होता था एक ज़माने पहले, क्योंकि अब तो स्कूल के दरवाजे पर लगे ताले की धूल भी यह सब देखने को तरस गई है।
अक्सर देखने में आता है कि दो लोगों के मिलने, बात करने या प्रेम का बंधन साझा करने पर धर्म, समाज तथा परिवार द्वारा कई अवरोध लगाए जाते हैं और तमाम आपत्तियां जताई जाती हैं, जबकि वे स्वयं अपने जीवन में एक न एक बार इस दौर से जरूर गुजर चुके होते हैं। वे भूल जाते हैं कि आकर्षण की इस दुनिया में हाजिरी लगाने से तो वे भी नहीं बच पाए हैं। फिर यह आपत्ति क्यों?? हर किसी के जीवन में वह दिन जरूर आता है, जब सपनों की दुनिया भी सच लगने लगती है, जब भावनाओं के तेज सैलाब उमड़ने लगते हैं, सारी दुनिया से परे सिर्फ एक शख्स पर विश्वास की लहर दौड़ने लगती है। किसी अनचाही डोर में इंसान बंध जाता है। एक ऐसी डोर, जिससे कभी न छूटने की चाह हर दम साथ होती है। इस चेतना की शुरुआत होती है उम्र के बेहद अनोखे पड़ाव में.... जी हाँ! किशोर अवस्था में...!
यही समय होता है, जब वे बात करने और रहन-सहन के सलीके में बड़ा बदलाव महसूस करते हैं। चंचल मन में आकर्षण के बीज अंकुरित होने लगते हैं। कोई दोस्त, दोस्ती की सीमा से परे आकर दिल के दरवाज़े खटखटाने लगता है। भावनाओं की तेज लहरों में डूबते जा रहे मन के इर्द-गिर्द उसकी तस्वीर उभर कर गहराती जाती है और मन मैथ्स के "सपोज़ दैट" की तरह खुद को हीर और रांझा मानने लगता है। उम्र के इस खूबसूरत पड़ाव में प्रवेश करने के समय बच्चे अक्सर स्कूल आदि में ही किसी के प्रति आकर्षित होते हैं। होते हैं.... या होते थे....?? लगभग 1.5 वर्ष से तो बच्चे स्कूल ही नहीं गए हैं, तो इस खूबसूरत आकर्षण की उत्पत्ति उनके मन में होगी कैसे?? हाँ, सोशल मीडिया जैसे ढेरों माध्यम हैं, लेकिन क्या इसके जरिए वास्तविकता का अनुभव किया जा सकता है?? नहीं न!! लेकिन सच तो यही है कि कोरोना ने किशोरों की भावनाओं को भी आहत किया है, जिस पर किसी का ध्यान नहीं है।
लम्बे समय से घरों में कैद बच्चे अपनी उम्र के सबसे खूबसूरत पड़ाव से वंचित रह गए हैं। हालात ये हैं कि वे किसी से अपने मन में उमड़ती भावनाओं का बखान भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे परिवार जनों के बीच ही अपने दिन को बीतता हुआ पा रहे हैं। और जो कुछ इस आकर्षण का हिस्सा हैं, वो बड़े लोगों के दबाव के चलते अपनी भावनाओं को खुद में ही कैद कर बैठे हुए हैं। स्कूल वाले आकर्षण की बात ही कुछ और होती है, जिससे शायद ही कोई बच पाया हो। यह एक अलग ही स्तर का अनुभव है, जिसका होना किशोर को आत्मविश्वास से भर देता है।
लेकिन 1.5 वर्ष की इस दूरी को खत्म करने के लिए अब हमें हमारे किशोरों की भावनाओं को प्रखर रखना होगा। वे गलत रास्ते पर चलने को मजबूर न हो जाए, इसकी कद्र करते हुए उनकी मनोदशा को समझें। यदि फोन आदि पर बात करते हुए आपको देखकर वे चुप हो जाएं, तो उन्हें उस समय के लिए अकेला छोड़ दें, उन पर हर तरह से विश्वास बनाए रखें, डांटने के बजाए उन्हें प्यार से समझाएं, उन्हें परिवार से इतर घूमने जाने की अनुमति दें, उन्हें सही और गलत स्पर्श में फर्क समझाएं, उनके उम्र के इस पड़ाव को तवज्जो दें, यह कतई न भूलें कि आप भी यह दौर पार करके ही यहाँ तक आए हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)