हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो सर्वविध समर्थ बना सके

शिक्षा प्रणाली के गुण एवं दोष

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान


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किसी भी राष्ट्र में शिक्षा सामाजिक नियंत्रण, व्यक्तित्व निर्माण तथा सामाजिक व आर्थिक प्रगति का मापदंड होती है। प्राचीनकाल में भारत में गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था प्रचलित थी। यह शिक्षा व्यवस्था छात्रों को चरित्र निर्माण के साथ जीवन निर्माण की शिक्षा देती थी। किन्तु समय के परिवर्तन के साथ शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप बदला जिसका परिणाम आज की शिक्षा व्यवस्था है। हमारे देश में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही शिक्षा के प्रतिरूप थी। जिस तीव्र गति से भारत के सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिदृश्य में परिवर्तन आ रहा है उसे देखते हुए आवश्यक है कि हम देश की शिक्षा व्यवस्था को उसके अनुकूल बनावे। सन् 1835 में जब वर्तमान शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गई थी तब लार्ड मैकाले ने कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य भारत में प्रशासन के लिए बिचौलियों की भूमिका निभाने तथा सरकारी कार्य के लिये भारत के विशिष्ट लोगों को तैयार करना है। 

अंग्रेज लोग अपने उद्देश्य में तो सफल रहे किन्तु इस शिक्षा प्रणाली से हमारे देश में बेरोजगारों की एक लम्बी फौज खड़ी हो गई और शिक्षा अपने उद्देश्य में असफल रह गयी। लगभग पिछले दो सौ वर्षों की भारतीय शिक्षा प्रणाली के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह शिक्षा नगर तथा उच्च वर्ग केन्द्रित, श्रम तथा बौद्धिक कार्यों से रहित थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान निर्माताओं तथा नीति नियामकों ने राष्ट्र के पुनर्निर्माण सामाजिक आर्थिक विकास आदि क्षेत्रों में शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया। शिक्षा में सुधार के लिये अनेक आयोगों का गठन किया गया और उनके द्वारा सुझाये गये सिद्धांतों को शिक्षा में शामिल किया गया। जिससे स्वतंत्रता के बाद हमारी साक्षरता दर तथा शिक्षा संस्था की संख्या में निःसंदेह वृद्धि हुई है। किन्तु जितनी अपेक्षा शिक्षा व्यवस्था से है वह अभी भी पूरी नही हो रही है। 

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के नये चहरे, निजीकरण तथा उदारीकरण की विचारधारा से शिक्षा को भी उत्पाद की दृष्टि से देखा जाने लगा है। इसके अतिरिक्त उदारीकरण के नाम पर राज्य भी अपने उत्तददायित्व से विमुख हो रहे है। शिक्षा मानव जीवन का निर्माण करती है। शिक्षा से मानव को कर्त्तव्याकर्त्तव्य का बोध होता है। हमारे जीवन तथा आचरण का मूल आधार है हमारी शिक्षा। देश की उन्नति के लिए देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह देश के लिए कार्य करे। हर व्यक्ति का यह उत्तरदायित्व है कि देश को अपने ज्ञान, संस्कार और अच्छे आचरण के माध्यम से देश को विकसित करे। आज का शिक्षित वर्ग ही देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चला सकता है किन्तु अगर शिक्षा प्रणाली ही ठिक न हुई तो उस देश का भविष्य अंधकारमय हो सकता है। आज आवश्यकता है एक ऐसे शिक्षा प्रणाली की जो हमें ज्ञान के साथ-साथ आचरण की शिक्षा दे सके। 

आजकल हर जगह शिक्षा प्रसार की नयी-नयी योजनाएं बन रही है। हमारी राष्ट्रीय सरकार इस बात की घोषणा कर चुकी है कि देश का कोई भी बच्चा निरक्षर न रहे। किन्तु विचार यह करना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली कैसी है? वह किस प्रकार से जीवन का निर्माण कर रही है। हमारी शिक्षा वास्तव में कैसी होनी चाहिए। आजकल शिक्षा की जो व्यवस्था प्रचलित है वह बहुत ही दोषयुक्त है। इसको मिटाकर हमें शिक्षा-दीक्षा का विधान करना होगा जो हमें सर्वविध समर्थ बना सके। ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण होना चाहिए। जब तक शिक्षा के द्वारा चरित्र निर्माण की बात नहीं की जाती तब तक शिक्षा का वास्तविक स्वरूप ठीक नहीं हो सकता। शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसके माध्यम से छात्रों में छिपे हुए गुणों को प्रकट किया जा सके। उनमें स्पष्ट रूप से चिंतन करने और निर्णय लेने की योग्यता का विकास हो सके। 

एक नागरिक के रूप में देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं पर स्वतंत्रता पूर्वक चिंतन और मनने करके स्पष्ट विचार कर सके। बालक को समाज में रहने और जीवन-यापन की कला में दीक्षित करना भी शिक्षा एक महत्वपूर्ण कार्य है। एकांत में रहकर न तो कोई जीवन-यापन कर सकता हैं और न ही पूर्णतः विकसित हो सकता है। उसके स्वयं के विकास तथा समाज कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि वह सहअस्तित्व की आवश्यकता को समझते हुए व्यावहारिक अनुभवों द्वारा सहयोग के महत्व का मूल्यांकन करना सिखे। इस दृष्टि से अनुशासन एवं देशभक्ति आदि अनेक सामाजिक गुणों का विकास किया जाना चाहिए जिससे प्रत्येक छात्र इस विशाल देश के नागरिकों का आदर करते हुए परस्पर घुल-मिलकर रहना सिख जाये। छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का गुण भी होना चाहिए। 

इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। अतः छात्रों के मन में श्रम के प्रति आदर तथा रूचि उत्पन्न करना एवं हस्तकला के कार्य पर बल देना परम आवश्यक है। पाठ्यक्रम में विभिन्न व्यवसायों को भी उचित स्थान मिलना चाहिए। जिससे प्रत्येक बालक अपनी रूचि के अनुसार व्यवसायों को चुन सके। छात्र के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास शिक्षा के माध्यम से ही होता है। बालकों को क्रियात्मक तथा रचनात्मक कार्यों को करने के लिये प्रेरित करना चाहिए। जिससे उनमें साहित्यिक कलात्मक एवं सांस्कृतिक रूचियों का निर्माण हो जाये। इसके साथ ही शिक्षक का भी यह कर्त्तव्य है कि वे छात्रों के सर्वांगीण विकास पर पूरा जोर दे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)