'हिन्दू' क्या है...?

एक नयी पड़ताल

लेखक : डा.अमलदार नीहार

(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद, चिंतक एवं मुरली मनोहर टाउन स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय, बलिया में हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)

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इसमें दो राय नहीं कि दुनिया का हर समझदार आदमी अपने बच्चे का, घर-संस्था, परिवार, किसी भी प्यारी चीज का अच्छा सा नाम रखता है, जो सुनने में भी अच्छा लगे और उसके भीतर का व्यंजित भाव भी रमणीय-आह्लादकारी और शिवत्व-विधायक हो। कोई सनकमिज़ाज या विद्याविहीन व्यक्ति ही नाम बिगाड़कर रखता है या इसके पीछे उसका अन्धविश्वास, उसकी कोई हीनग्रन्थि, कुण्ठा, कोई भीति भी काम कर सकती है, इसमें उसके मनोविज्ञान का पूरा योगदान रहता है । देखा जाये तो जिस प्रकार आज कोई व्यक्ति घृणा-विस्फोट करते हुए अपनी प्रचण्ड मूर्खता का प्रदर्शन करता है और गाली के अर्थ में किसी को 'सेक्युलर' अथवा 'मार्क्सवादी' कहता घूमता है, इसी प्रकार विश्व-इतिहास तथा भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन में अपनी नकारात्मक भूमिका के कारण विचारधारा विशेष के अनुयायियों के प्रति लगभग वही घृणा भाव बहुतों के मन में आज भी विद्यमान है। ठीक इसी प्रकार घृणा, दुराव अथवा दूसरे को नीचा बताने के लिए ही हमारे यहाँ जातियों को लेकर अनेक मुहावरे तथा लोकोक्तियों का सृजन हो चुका है। इस मामले में कबीर तक को नहीं बख्शा गया और होली के बहाने गालियों की पिचकारी से उन्हें ठिकाने लगा देने की नाकाम कोशिश की गयीं हैं। 

हमारे भाषाविद् जानते-समझते-मानते हैं कि यह 'सिंधु' शब्द का ही बदला हुआ रूप है। जो यह मानते हैं कि आर्य बाहर से भारत में आये तो उनकी यह भी मान्यता है कि वे सबसे पहले सिंधु प्रान्त में ही बसे, सिंधु नदी के किनारे ही वे फैलते चले गये। इसलिए कवियों ने भी उन्हें सिंधुतटवासी नाम से स्वीकार किया। चूँकि फारसी में 'स' की जगह 'ह' हो जाता है तो यह 'सिंधु' फारसी में 'हिन्दु' कहलाया। इस सिन्धु से बने शब्द हिन्दु से ही यह देश हिन्दु-स्थान और 'हिन्दुस्तान' बन गया। लेकिन काफी समय तक समुद्री व्यापार के दौरान यह पूरी दुनिया में 'हिन्द' के नाम से जाना गया और यहाँ का वह व्यक्ति, जो दूसरे देशों के साथ व्यापार करता था, "हिन्दी" कहलाया या यूं कहें कि वह ''हिन्दी'' कहलाता था। 

इसी संदर्भ में एक वैदिक शब्द 'बेकनाट्' की व्याख्या आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने की है। इस प्रकार "हिन्दी" माने हुआ--'हिन्द' देश का निवासी। इसी 'हिन्दी' से हिन्दिया--हिण्डिया और इण्डिया बन गया या यूँ कहें कि 'हिन्द' से 'हिण्ड', हिण्ड से इण्ड और फिर इण्ड से इण्डिया बन गया हो। इस देश का कोई भी व्यक्ति, जो किसी भी मज़हब को मानने वाला हो, वह 'हिन्दी' ही है/भी है। फिर तो यह भी होना चाहिए था कि इस भूखण्ड में बोली जाने वाली प्रत्येक भाषा "हिन्दी" कही जानी चाहिए थी। चाहें तो विशेषण लगाकर बोलिए, अर्थात् उर्दू हिन्दी, गुजराती हिन्दी, बंगाली हिन्दी, मराठी हिन्दी आदि-आदि। शायद हमारे भाषा वैज्ञानिकों ने इस विषय पर गम्भीरता से विचार नहीं किया या क्या पता, किसी के मन में यह विचार आया ही न हो। खैर, अब इस बात को यहीं छोड़ देते हैं। अब हम आपको बालू पेरकर उससे अपने मतलब का तेल निकालने की विधि बताना चाहते हैं। 

सच तो यह भी है कि हमें भी अपनी तरफ से कुछ कहने की छूट मिलनी ही चाहिए। मेरी समझ से 'हिन्दु' या 'हिन्दू' को कुछ दूसरे प्रकार से भी परिभाषित कर लें, जैसे 'हिन्दी'=हि+इन्दु=हीन्दु=हिन्द। 'हि' संस्कृत में 'क्योंकि' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह यहाँ पर निश्चय बोधक है, अर्थात्, जिसमें सोलह कलाएँ हों चन्द्रमा की तरह, जिसकी किरणों में, आध्यात्मिक चेतना में अमृत तत्त्व विद्यमान हो, जो चन्द्र कौमुदी की भाँति सर्वहिताय शीतल और सुखद हो, जिसके उपदेशों-सन्देशों में विश्व मंगल की भावना का प्रकाश हो, जो अतिशय उदार हो, जिसका हृदय और मस्तिष्क विराट हो और जो चंद्रमा को ललाट पर धारण करने वाले शिव की तरह भूतभावन हो, वह है हिन्दू। इसी तरह चाहें तो एक और अर्थ कर सकते हैं-हिन्+दु', अर्थात् जो दुरित(सम्पूर्ण पाप-दोष) को हीन कर दे, जो निष्पाप हो, अन्तर्मन से अनघ हो, आचार और विचार से अकलुष हो, वही हिन्दू है/हो सकता है। आप चाहें तो मेरे चिन्तन को पागल-प्रलाप कहकर संतुष्ट और प्रसन्न हो सकते हैं, किन्तु यदि तनिक भी इसमें तार्किकता नज़र आये तो इसे दिल-दिमाग में बैठाने की कोशिश अवश्य करें। सभी देशवासियों का कल्याण हो, बस यही तो मैं चाहता हूँ। यही मेरी आशा-आकांक्षा है। आखिर हमारा भारतवर्ष 'भा-रत' कैसे बनेगा, इस विषय में आप भी कुछ सोचिएगा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)