सत्ता की ओछी राजनीति की शिकार बनी डी.एम. डा.विभा चहल
डी.एम. डा.विभा चहल



लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)

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राजनीति में अक्सर ऐसा होता है जबकि राजनेता, सांसद, विधायक, पार्षद जनता के मापदंड पर खरा नहीं उतर पाते या यूं कहें कि जब उनको अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर संकट काल में जनता के हितार्थ मैदान में सामने आकर चुनौतियों का सामना करना होता है, उस समय उनकी बेरुखी जहां सत्ता के शीर्ष पर बैठे आकाओं को नागवार गुजरती है, वहीं समय आने पर जनता भी उन्हें सबक सिखाने से नहीं चूकती। ऐसा ही हुआ एटा में हुए गत पंचायत चुनावों में जहां सत्ताधारी नेताओं की उदासीनता, भले वह उसे सिरे से नकारें, लेकिन हकीकत यह है कि इन चुनावों में जहां समाजवादी पार्टी समर्थक उम्मीदवार बहुतायत में जीते, वहीं भाजपा उम्मीदवाद दहाई का आंकडा़ भी पार कर पाने में नाकाम रहे। इसका अहम कारण डी एम एटा डा.विभा चहल द्वारा निष्पक्ष चुनाव कराया जाना रहा है। 

जानकार सूत्र तो यहां तक कहते हैं और जनता भी इसकी पुष्टि करती है कि चुनावों में डी एम डा. चहल  सत्ताधारी नेताओं के मंसूबों को पूरा कर पाने में नाकाम रहीं या उन्होंने उनके प्रयासों को पूरा नहीं होने दिया।डा.चहल के इन प्रयासों की जिले की जनता सर्वत्र सराहना कर रही है। साथ ही उन्हें इस साल के फरवरी महीने में प्रदेश सरकार दिल्ली जहां वह रेजिडेंट कमिश्नर के पद पर कार्यरत थीं, इस आशय से एटा लायी थी कि वह कोरोना संक्रमण की भयावहता से जूझते एटा जिले को इस महामारी के विस्तार पर अंकुश लगा पाने में कामयाब होंगीं। आश्चर्य यह कि इस चुनौती का उन्होंने अपनी समझ, दूरदृष्टि,कार्य शैली और अधिकारियों के सहयोग-समर्पण तथा कर्तव्य परायणता के बलबूते बखूबी न केवल मुकाबला किया बल्कि उस पर बनारस जो कि प्रधानमंत्री का चुनावी क्षेत्र भी है, के मुकाबले अंकुश लगाने में कामयाबी भी पायी। यह शीर्ष पर बैठे सत्ता की राजनीति के आकाओं को रास न आया। 

फिर आने वाले दिनों में जिला पंचायत अध्यक्ष का भी चुनाव होना है। नेताओं को इस बात की प्रबल आशंका थी कि यदि डा. चहल उस समय भी एटा की डी एम रहीं तो निष्पक्ष चुनाव की स्थिति में उनकी शतरंज की बिसात में वह कारगर साबित नहीं होंगी। इसका एकमात्र हल था कि डा. चहल का तबादला करवा दिया जाये जिसमें वह कामयाब रहे। अब देखना यह है कि नये डी एम निष्पक्ष चुनाव करवा पाने की चुनौती में किस सीमा तक सफल होंगे। यह तो समय के गर्भ में है। वैसे यह एटा जिले की नियति है कि यहां डा. चहल जैसे डी एम कम ही रह पाते हैं। उनके इतने कम समय के कार्यकाल का अहम कारण उनका ईमानदार और निष्पक्ष होना रहा है। इसे जिले का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जायेगा। पूर्व में एटा के डी एम रहे विजय किरण आनंद और शैलजा जे इस कथन के जीते-जागते सबूत हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)