किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह की पुण्य तिथि पर विशेष

किसान घाट की कहानी : 

ज्ञानेन्द्र रावत की जुबानी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)

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देश के पूर्व प्रधानमंत्री, गांधी के अनुयायी, किसान चेतना के प्रणेता, जमींदारी उन्मूलन के जनक और पिछडो़ं को देश की राजनीति में हिस्सेदारी दिलाने वाले किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह की पुण्य तिथि है। असलियत में सर छोटू राम के बाद देश में  चरण सिंह ही ऐसे एकमात्र राजनेता रहे जिनको देश के किसानों,मजलूमों और पिछडो़ं ने अपना मसीहा माना। वह उनके सच्चे चौधरी थे जिनमें वह अपनी छवि देखता था। 23  दिसम्बर 1978 को चौधरी चरण सिंह के 77वें जन्म दिवस के अवसर पर दिल्ली के वोट क्लब की रैली इसकी जीती जागती मिसाल है। सच यह भी है कि इस दिन दिल्ली की सड़कों पर देश के आम आदमी, किसान-मजदूर और पिछडो़ं का वह सैलाब दिखाई दिया जिसका छोर कहीं थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। इस रैली को देशी ही नहीं वरन विदेशी अखबारों तक ने दुनिया की सबसे बडी़ रैली की संज्ञा दी थी और कहा था कि इस दिन दिल्ली में सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। असलियत में उस दिन दिल्ली में असली भारत के साक्षात दर्शन हो रहे थे जिनमें कश्मीर से कन्या कुमारी तक और सौराष्ट्र से नागालैंड तक के गांव-गंवई का आम आदमी शामिल था। यह भी एक सच्चाई है कि पिछडो़ं के अधिकारों हेतु मंडल आयोग की स्थापना चौधरी साहब के कार्यकाल में ही की गयी थी।

वास्तव में 29 मई 1987 को लम्बी बीमारी के उपरांत उनका निधन हुआ था।  दरअसल वह नवम्बर 1985 में डा.जे.के.जैन की पुत्री के विवाह समारोह के दौरान ही पक्षाघात के शिकार हो गये थे। तभी से ही वह लगातार बीमार चल रहे थे। इलाज के लिए उनको अमेरिका भी भेजा गया। लेकिन उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार न हुआ और 29 मई 1987 को नयी दिल्ली स्थित 12 तुगलक रोड के अपने आवास पर ही उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन के साथ ही उनके आवास पर पहुंचे लाखों समर्थकों, अनुयायियों और किसानों ने मांग की कि गांधी के सच्चे वारिस उनके मसीहा चौधरी चरण सिंह का अंतिम संस्कार गांधीजी की समाधि राजघाट के समीप ही किया जाये। लेकिन कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार इस पर अडी़ थी कि चौधरी साहब का अंतिम संस्कार कालिंदी कुंज के समीप किया जाये जो चौधरी साहब के वहां मौजूद लाखों समर्थकों को कतई मंजूर नहीं था। अंततः काफी जद्दोजहद, वार्ताओं के दौर और समर्थकों के भारी दबाव के बाद राजघाट के पीछे 9.2 एकड़ भूमि किसान मसीहा के समाधि स्थल "किसान घाट" हेतु सरकार देने पर सहमत हुयी जहां पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।

दु:ख इस बात का है कि उसके बाद भी तत्कालीन सरकारें चौधरी साहब के समाधि स्थल "किसान घाट" के निर्माण के प्रति उदासीन रहीं। इतना सच है कि इसके निर्माण हेतु इलाहाबाद निवासी और चौधरी साहब के विश्वस्त सहयोगी रहे राज्य सभा सांसद सत्य प्रकाश मालवीय ने न केवल काफी प्रयास किये बल्कि सरकारों पर दबाव भी डाला और इस बाबत सचेत भी किया कि यदि सरकार ने समाधि के निर्माण की दिशा में शीघ्र निर्णय नहीं लिया तो चौधरी साहब के समर्थकों के रोष पर काबू पाना आसान नहीं होगा। यही नहीं लेखक ने भी समय समय पर समाचार पत्रों में प्रकाशित अपने लेखों के माध्यम से वहां की दुर्दशा, अव्यवस्था और समर्थकों के रोष से सरकार को चेताया कि किसान अपने नेता की समाधि का निर्माण अति शीघ्र चाहता है और इस बाबत की जा रही देरी वह अब बर्दाश्त नहीं करेगा।

अंततः चंद्रशेखर सरकार के केन्द्रीय शहरी आवास निर्माण मंत्री और चौधरी साहब के पुराने सहयोगी दौलत राम सारण के कार्यकाल में समाधि का निर्माण द्रुत गति से पूर्ण हुआ। असलियत में किसान  घाट का वर्तमान स्वरूप उन्हीं के श्रम और सांसद सत्य प्रकाश मालवीय के प्रयासों की ही परिणति है, इसे नकारा नहीं जा सकता। इसमें दिल्ली के तत्कालीन उप राज्यपाल एवं पूर्व वायु सेना प्रमुख चीफ एयर मार्शल सरदार अर्जुन सिंह की भूमिका भी अहम रही। यह भी कटु सत्य है कि चौधरी साहब की जयंती और उनकी पुण्य तिथि पर हजारों किसान उनकी समाधि किसान घाट आकर श्रृद्धा सुमन अर्पित करते हैं। कोरोना काल की बात और है अन्यथा दिल्ली में ऐसी किसी भी नेता की समाधि पर उनकी जयंती और पुण्य तिथि पर इतने लोग श्रृद्धांजलि देने नहीं आते जितने चौधरी साहब की समाधि किसान घाट पर आते हैं। आज भी यह उनके प्रति प्रेम, आदर,श्रृद्धा और सम्मान का परिचायक है जो यह साबित करता है कि किसानों के असली चौधरी तो वही थे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)