विश्व नर्स दिवस पर विशेष : न कोई थकन है, न कोई शिकन है...

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सालों से डॉक्टर्स को देवदूत कहा जाता रहा है। इनकी सेवा,और समर्पण  भावना को देखकर इनके पेशे को नोबलेस्ट माना जाता है। कोविड पेन्डेमिक के दौरान जगह जगह देखने में आया है कि सम्बन्धित मामले में यदि नर्सेस नहीं होतीं ,तो हज़ारों मामलों में डॉक्टर भी हाथ टेक देते। डॉक्टर्स को इन दिनों कई अस्पतालों में विजिट के बाद क्लिनिक में कई  मरीजों को देखना पड़ता है। इसलिए मानकर चलना पड़ेगा कि एक डॉक्टर प्रति मरीज पाँच मिनट से ज़्यादा समय नहीं दे सकता । फ़िर ,कोविड के अलावा दूसरे पेशेंट भी होते ही हैं। बाकी 24 घण्टों के मध्य नर्स या सिस्टर ही रोगी की असली डॉक्टर सिद्ध होती है। वही प्रत्येक रोगी का पूरा चार्ट मेंटेन करती है, समय समय पर दवाएँ देती है, ड्रिप पर ध्यान रखकर उसे बदलती है, शूगर और बीपी लेवल पर ध्यान रखती है बुखार लेती है, लगाती है, आईसीयू में गम्भीर मैरिजों पर लगे विभिन्न उपकरणों पर नज़र रखती हर,आवश्यकता पड़ने पर  तत्काल डॉकर बुलाती है। बावजूद इसके न कोई थकन, न कोई शिकन, न कोई ख़लिश, न उदासी, न गिला, न शिकवा। 

नर्स ही वह महिला होती है, जो डॉक्टर के साथ मिलकर रोगी की जान बचाने में अपनी जान भी जोखिम में डाल देती हैं। इसीलिए इस बदलते दौर में नर्सेस को अति सम्मान की नज़रों से देखा जाने लगा है।दुनिया की तमाम नर्सेस की इज़्ज़त, गौरव तथा प्रोत्साहन के लिए आज मई  12 को विश्व नर्स दिवस मनाने की प्रथा है।यह आयोजन आधुनिक नर्सिंग की जननी फ्लोरेंस नाइटेंगल के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। फ्लोरेन्स के शब्द के साथ नाइटेंगल शब्द नत्थी किए जाने का कारण बड़ा विस्मित, चकित, कारुणिक और अविश्वमरणीय है। दरअसल, उक्त देवी स्वरूपा महिला हवाला देती रहीं कि मैं तो राजसी परिवार में 1820 को जन्मी थी। इटली से जब मेरा परिवार इंग्लैंड शिफ्ट हो गया तो ठाठ बाठ की ज़िंदगी मुझे रास नहीं आई। इसी बीच मुझे सपने में भगवान ने दर्शन देकर सुझाया कि मुझे मानव सेवा में ही जीवन व्यतीत करते हुए अन्य महिलाओं को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए ।बताते चलें कि अंग्रेजी में इस तरह के कार्य को डिवाइन रेसलेसनेस ,यानी दैवीय बेचैनी कहते हैं। नाइटेंगल इसी काम में लीन हो गईं। 

इसी बीच क्रीमिया युद्ध हुआ, जिसमें ब्रिटिश घायल सैनिकों की देखभाल का जिम्मा नाइटेंगल के साथ उनकी 38 अन्य साथियों को सौंपा। उक्त टोली ने भी सरहद पर मोर्चा सम्हाला। सैनिक लड़ रहे थे और उक्त नर्सेस उनमें से घायलों को बचाने में बेख़ौफ़ होकर जुट गईं। सीमा पर बने अस्थायी चिकित्सा केन्द्रों में नाइटेंगल के समूह के पहले घायल में से मृत फौजियों का प्रतिशत 42 था, जो घटते घटते मात्र दो फ़ीसद हो गया।दरअसल ,जब ज़रूरतमंद सैनिक नर्सेस को पुकारते थे, तब सबसे पहले फ्लोरेंस नाइटेंगल जाती थीं। उनके हाथ में एक लालटेन हुआ करता था। उसके कारण ही सभी घायल सैनिकों ने मिलकर उन्हें तमगा दे दिया लेडी विद लैम्प। इसे हिंदी में कहेंगे मौत के अंधकार में जीवन का प्रकाश फैलाने वाली महिला है।

भारत में यूँ , तो नर्सेस की ड्यूटी तय शुदा समय की होती रही है, लेकिन कोविड पेन्डेमिक में नर्सेस ने वीरांगना का रूप धारण करते हुए कई मामलों में छोटी डॉक्टर का दर्ज़ा हासिल कर लिया है। इसीलिए, अन्य पैरामेडिकल के साथ उन्हें फ्रंट वारियर्स कहा जा रहा है। कई डॉक्टर्स के साथ नर्सेस की शहादत देने की कथाएँ मीडिया में आम हो रही हैं। उन्हें न खाने की चिंता है, न पीने की। लगभग 18 घण्टे की लगातार ड्यूटी। अन्य रोगों के मरीजों को भी सम्हालने की उतनी ही जिम्मेदारी। ये घर पर सिर्फ़ नहाने तथा बच्चों से मिलने जा पाती हैं। स्पेन के एक शहर में तो इनके सम्मान में बॉलकनी में मास्क लगाकर लोगों ने घर लौटती नर्सेस कुछ समय पहले सलामी दी थी। केरल अपनी 99 फ़ीसद साक्षात्कार की वजह से हर उस काम में दुनिया की नज़रों में सम्मान से देखा जाता है, जिसमें सेवा, समर्पण, त्याग, करूणा, परोपकार, बुद्धिमत्ता, विवेक आदि की ज़रूरत हो। केरल के अलावा कर्नाटक भी कुछ कुछ ऐसा ही प्रदेश है। केरल की नर्सेस ने तो कोविड के दूसरे प्रहार में वैज्ञानिक की तरह काम करके दिखाया। वहाँ की नर्सेस ने सभी वैक्सीन की खाली शिशियों को फेंका नहीं बल्कि उन्हीं में जो थोडी बहुत दवा बची थी ,उससे 80 हज़ार से ज़्यादा डोजेस बना दिए। अंदाज़ लगाया जा सकता है कि इस अभिनव प्रयोग ने वहाँ कितने मरीजों की जान बचाई होगी। 

इस प्रयोग की तारीफ़ किए बिना पीएम नरेंद्र मोदी से भी नहीं रहा गया। केरल में नर्सिंग सिर्फ पेशा नहीं है, बल्कि जीने का मकसद, मानवता के हित में कुछ नया कर गुज़र जाने की बेख़ौफ़ आरजू  है। वहाँ और कर्नाटक में नर्सिंग के सैकड़ों स्कूल, पाठशाला और कॉलेज हैं। इनमें से महिला एवं पुरुष दोनों ही नर्सेस ट्रेंड होकर भारत के अलावा कई देशों में जाती हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्राँस, जर्मनी जैसे अति विकसित देशों तक ने अब तो मान लिया है कि यदि हमारे यहाँ भारत की ट्रेंड नर्सेस नहीं होती तो हमारी अति आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था चौपट हो सकती थी। गल्फ में सबसे ज़्यादा भारतीय नर्सेस जाती है। कारण स्प्ष्ट है बड़ा पैकेज, अच्छी जीवन पद्धति, अस्पतालों का लगातार विकास। भारत में नर्सेस की कमी के बारे में आंकडा दिया जाता है 483 लोगों पर मात्र एक नर्स। 

शोध में पता चला है कि कम से कम देश में बीस लाख नर्सेस और छह लाख डॉक्टर्स की आवश्यकता है। कहा जाता है कि फ्लोरेन्स नाइटेंगल को भगवान ने मानवता की यह सेवा करने के लिए समय समय पर सपनों में आकर प्रेरित किया था। उन्होंने ही अस्पतालों में से संक्रमण, प्रदूषण, गंदगी आदि को हटाकर सकारात्मकता का उजाला फैलाया था। कहते हैं कि उनकी मुस्कान और आँखों की भाषा इतनी मोहक थी कि जीने की तमन्ना छोड़ चुका मरीज भी फ़िर जीने के लिए उत्साहित हो जाता था।भारत में कहा भी जाता है कि यदि कोई सख्त बीमार व्यक्ति दम तोड़ रहा हो ,और किसी परिमार्जित स्त्री को देख ले ,तो उसकी मौत टल सकती है। यह ईश्वर का दिया तोहफा है। कोरोना का काल में नर्सेस की भूमिका को देखते हुए यहाँ तक कहा जा रहा है कि इस काम में यूरोप जैसा रिनासा यानी पुनर्जागरण भी आ सकता है। देश में  प्रत्येक वर्ष श्रेस्ठ नर्सेस को फ्लोरेन्स नाइटेंगल पुरुस्कार से नवाजा भी जाता है। 

भारत की नर्सेस को कनाडा ने तो ट्रेन्ड किया ही था ,देश में भी इसके डिप्लोमा ,बेचुलर डिग्री ,पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री कोर्सेस उपलब्ध हैं। इनके नाम हैं ए एन.एम., डी. एन.ए, जी. एन.ए .आदि हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)

लेखक : नवीन जैन की क़लम से 

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर